विशुद्ध मनुस्मृति
Vishuddh Manusmriti

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Vishuddh Manusmriti

Vishuddh Manusmriti

विशुद्ध मनुस्मृति

इस पुस्तक की विलक्षणता उपाध्याय जी की मनुस्मृति की एक विलक्षणता यह है कि आपने ‘ क्षेपकों ‘ को इसमें से निकालकर बहुत दूरदर्शिता व साहस का परिचय दिया । एक प्रसिद्ध प्रकाशन संस्थान ने इसे प्रकाशित करना चाहा परन्तु , शर्त यह रखी कि प्रक्षिप्त श्लोक इसमें से न निकाले जायें । उन्हें छोटे अक्षरों में छाप दिया जाये । उपाध्याय जी ने तब लिखा था कि घर में झाडू लगाकर वहीं एक कोने में कूड़े का ढेर लगा देना , यह कोई झाडू देना नहीं है ।

दूध में से मक्खी निकाल कर गिलास के एक सिरे पर चिपका देना यह कोई दूध को छानना नहीं माना जा सकता । अच्छी पुस्तक का न पढ़ना बुरी पुस्तक के न पढ़ने से कहीं अच्छा है । अनिष्ट के रहने से अनिष्टता नहीं जा सकेगी । उसका प्रभाव बना ही रहेगा । उपाध्याय जी की इस मौलिक सूझ का मूल्याङ्कन करना प्रत्येक व्यक्ति के बस की बात नहीं है । पीछे जो बात आरम्भ में लिखी गयी है उसी को उपाध्याय जी ने कभी ऐसा लिखा था , ” ऋषि दयानन्द के पास समस्त घर को झाड़ने का न समय था , न साधन ।

” यह भी ध्यान दिलाया , ” वैदिक साहित्य की पुस्तकें जितनी पुरानी हैं , उतनी ही ‘ क्षेपकों ‘ से भरी पड़ी हैं , और सामाजिक सुधार करने वालों के मार्ग में रोड़ा अटकाती रही हैं । ” एक आक्षेप का उत्तर कुछ मित्र आज भी और उपाध्याय जी के जीवन काल से ही यह आक्षेप करते चले आ रहे हैं कि उपाध्याय जी ने कई ऐसे श्लोकों को भी निकाल दिया है जिन्हें ऋषि दयानन्द ने अपने ग्रन्थों में प्रमाण स्वरूप उद्धृत किया है ।

यही आक्षेप कुछ बन्धु श्री डॉ . सुरेन्द्रकुमार जी पर भी करते हैं । मनुस्मृति में बहुत कुछ प्रक्षिप्त है , इस बात को सुझाने – बताने का पूरा – पूरा श्रेय तो दण्डी गुरु विरजानन्द जी के शिष्य महर्षि दयानन्द को ही प्राप्त है । ऋषि की दी गयी इसी कसौटी पर कसकर उपाध्याय जी ने क्षेपक निकाले हैं । झाडू लगाते हुए , मकान की झाड़पोंछ करते – करते कूड़े के साथ कभी – कभी पलस्तर की चमड़ी भी उतर जाती है ।

उपाध्याय जी इसके साथ ही यह उत्तर दिया करते थे कि दक्ष से दक्ष सर्जन भी जब ऑपरेशन करता है तो शुद्ध रक्त की भी दो – चार बूंदें निकल ही आती हैं । इसके साथ हीपाठक यह न भूले कि मनुस्मृति बौद्ध या पौराणिक काल की न होने से और अति प्राचीन होने के कारण वैदिक धर्म पर आधारित होने से ऋषि जी को मान्य है ।

वेद सत्यासत्य की सबसे बड़ी कसोटी है । सिद्धान्त व्य हैं । भावुकता में बहकर आक्षेप करना तो बहुत सरल है परन्तु , ऐसा करना हितकर नहीं है । ऋषि जी ने मनुस्मृति के श्लोकों को उतना – उतना ही प्रामाणिक माना है जितना जितना वे वेदानुकूल है ।

उपाध्याय जी ने अपने आलोचकों को युक्ति , तर्क व प्रमाण से बहुत अच्छा उत्तर देते हुए कहा था कि कहीं – कहीं तो किसी शब्द के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए , कहीं अपने सिद्धान्त की पुष्टि में किसी श्लोक से एक आधा सूत्र हाथ लगा तो उसे उद्धृत कर दिया अन्यथा मनुस्मृति के वर्तमान स्वरूप में , मनुस्मृति के मुख्य प्रकरण में ऐसे एलोकों की संगति कतई नहीं लगती । आर्यसमाज में कई सज्जन ब्राह्मणग्रन्थों , दर्शनों के भाष्यों व गृह्यसूत्रों आदि को पूरा – पूरा आर्ष मानकर एक – एक बात के लिए हठ व विवाद करते हैं । ऐसे सब मित्रों को मूल तथा गौण का भेद जानना चाहिये । ऐसा पूज्य उपाध्याय जी तथा आचार्य उदयवीर जी के मुख से हम लोग सुनते रहे

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