सांख्यदर्शन Sankhyadarshan
₹200.00
- By :Swami Brahmamuni Parivrajak
- Subject :Darshan
- Category :Darshan
- Edition :2024
- Publishing Year :2018
- SKU# :N/A
- ISBN# :9788170772712
- Packing :Papercover
- Pages :208
- Binding :Papercover
- Dimentions :21cms X 13cms
- Weight :230 GRMS
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परिचय
श्री स्वामी ब्रह्ममुनि जी परिव्राजक अनेक शास्त्रनिष्णात गम्भीर विद्वान् हैं । आपने अनेक ग्रन्थों का निर्माण किया है । आपकी प्रस्तुत कृति ‘ सांख्यदर्शन भाष्य ‘ को मैंने पढ़ा है । अनिरुद्ध , विज्ञानभिक्षु आदि विद्वान् भाष्यकार इस दर्शन को निरीश्वरवादी मानते रहे हैं । योगदर्शन और सोख्यदर्शन की सेश्वर सांख्य और निरीश्वर सांख्य इन दो नामों से प्रसिद्धि इसीलिये हुई । समानतन्त्र होने से इन दोनों ही दर्शनों में ईश्वर का प्रतिपादन स्वाभाविक था , जैसे कि न्याय और वैशेषिक में , परन्तु सङ्गति ठीक न लगा सकने के कारण सांख्यदर्शन को निरीश्वरवादी कहने लग गये । वेदों को प्रमाण माननेवाले महर्षि कपिल अपने शास्त्र में ईश्वर का निषेध कैसे करते ? क्योंकि ” ईशा वास्यमिद सर्वं ” आदि वेदमन्त्रों में तो स्थान स्थान पर ईश्वर की सत्ता का प्रतिपादन है ।
परन्तु भाष्यकारों के इस दर्शन पर अनीश्वरपरक व्याख्यानों को देखकर लोगों को विवश होकर ऐसा मानना पड़ता था । अब प्रसन्नता की बात है कि इस उलझी हुई समस्या को स्वामी ब्रह्ममुनि जी के भाष्य ने सुलझा दिया है । इस भाष्य में युक्तियों और प्रमाणों के द्वारा स्वरस सङ्गति लगाकर उन्हीं कपिल – सूत्रों से ईश्वर की सत्ता को सिद्ध कर दिया है । सांख्यदर्शन में निराशः सुखी पिङ्गलावत् ” आदि व्यावहारिक दृष्टान्त देकर कई सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण किया है । आपने उन दृष्टान्तों का ऐसा सारगर्भित अर्थ प्रकट किया है ।
जिससे कि दृष्टान्तों के द्वारा दान्तों की सिद्धि स्वाभाविक प्रतीत होने लगी है । ” कई विद्वान् सांख्यदर्शन को ईश्वरकृष्णकृत कारिका से भी नवीन मानने लग पड़े थे । परन्तु आपके इस भाष्य ने उनकी इस धारणा को हटाकर प्राचीनता की धारणा को अवलम्बन दिया है । मुझे यह लिखते हुए प्रसन्नता होती है कि स्वामी जी अपने ध्येय में सफल हुए हैं । –
आत्मानन्द सरस्वती
( आचार्य , दयानन्दोपदेशक महाविद्यालय )
पुस्तक का नाम – सांख्य दर्शनम्
भाष्यकार – ब्रह्ममुनि परिव्राजक
“सांख्ययोग पृथक् बाला: प्रवदन्ति न पण्डिताः” अर्थात् सांख्यदर्शन और योगदर्शन में विरोध होने की बात बालबुद्धि जन करते है पंडित नहीं, इस प्रसिद्धि के अनुसार सांख्य और योग दोनों समान सिद्धांतवादी दर्शन हैं। दोनों ही मोक्ष शास्त्र हैं। जहाँ महर्षि पतञ्जलि योगदर्शन में अष्टाङ्ग योगसाधनो द्वारा समाधि और मोक्ष की प्राप्ति का वर्णन करते हैं वहाँ सांख्य दर्शन में भी पहले ही सूत्र में महर्षि कपिल ने त्रिविधदुःख निर्वृत्ति को ही अत्यंत पुरुषार्थ माना है जिसके बिना मोक्ष नहीं हो सकता है।
मध्यकालीन टीकाकारों ने भ्रान्ति से सांख्य दर्शन को निरीश्वरवादी मान लिया था। विद्वान् लोग सांख्य और योग को एक समान ईश्वरवादी ही मानते हैं। स्वामी ब्रह्ममुनि जी ने युक्ति और प्रमाणों द्वारा यह सिद्ध किया है कि महर्षि कपिल ईश्वर को मानते थे। स्वामी ब्रह्ममुनि जी की व्याख्या आर्ष पद्धति के अनुकूल है। यह भाष्य नवीन भाष्यकारो के समान कल्पित और भारतीय दार्शनिक लक्ष्य का विरोधी नहीं है।
इस भाष्य की विशेष विशेषता यह हैं कि यहाँ पर सूत्रकार के मत को श्रुति-स्मृति प्रमाण से सिद्ध किया गया है। सांख्य दर्शन में आये कुछ उदाहरणों जैसे “निराश: सुखी पिंगलावत्” इत्यादि उदाहरणों का सारगर्भित अर्थ प्रस्तुत किया है। इस भाष्य में अनिरुद्ध और विज्ञानं भिक्षु के पाठ भेदों को दर्शाया गया है तथा प्राचीन होने से विज्ञानं भिक्षु के पाठों को लिया गया हैं।
यह दर्शन उन पाठकों के लिए लाभकारी होगा जो भारतीय दर्शन परम्परा की पृष्ठभूमि में इस दर्शन का ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं।
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