हल्दीघाटी Haldighati
₹395.00
AUTHOR: | Shyam Narayan Pnadey |
SUBJECT: | हल्दीघाटी – Haldighati |
CATEGORY: | Biography |
LANGUAGE: | Hindi |
EDITION: | 2021 |
PAGES: | 264 |
PACKING: | Hard Cover |
WEIGHT: | 454 GRMS |
“प्राचीन काल में जब मधुर ब्रजभाषा का बोलबाला था, बराबर सुकुमार कल्पनाओं और कोमल पदावलियों से देवी का श्रृंगार हो रहा था। अनेक वादों के इस संघर्ष युग में भी शृंगार की सामग्रियों की प्रचुरता से देवी ऊब रही थी। मुझे कवियों की श्रृंगार प्रियता असहय हो गई। मैं प्रताप के साथ चल पड़ा। काई की तरह फटकर वादों ने मार्ग दे दिया। मैं देवी के निकट था। माँ ने पूछा-तेरे हाथों में क्या है?
मैंने कहा- तलवार। माँ आश्चर्य से बोल उठी-ए ! तलवार! मैंने कहा- हाँ देवि! तलवार, राणा प्रताप की इस परतंत्र और भिखमंगों के देश में तेरे श्रृंगार से मुझे घृणा थी और दुःख था इसीलिये तेरे शृंगार के लिये रक्त से रंगी हुई यह चुनरी, शोणित की गंगा में स्नान की हुई यह तलवार और वायुगति यह चेतक लाया हूँ, स्वीकार है? माँ की आँखों में स्नेह उमड़ रहा था, मुस्कुराकर कहा- हाँ। वीर कविता मुँह खोल बोल उठी।” (भूमिका पृ. 24)
इन विचारों ने कवि के हृदय में ‘हल्दीघाटी’ काव्य लिखने की प्रेरणा दी। वास्तव में उस समय ऐसे ही काव्य की आवश्यकता थी। परकीयों का शासन था, देश परतंत्र था। देश स्वतंत्र होना चाहता था। ऐसे में इस प्रकार के साहित्य की आवश्यकता थी जिसे पढ़ कर पाठक प्रेरित हो सकें उसके लिये कवि ने प्रताप को चुना, , क्योंकि वह ऐसा नायक था जिसने अपने देश से विदेशी सत्ता को उखाड़ने के लिये संघर्ष किया,
उसके लिये वह हर प्रकार के कष्ट सहने के लिये तत्पर रहा। इस कार्य के लिये उसने मेवाड़ के हर व्यक्ति को तैयार किया। यहां तक कि गिरि कन्दराओं में रहने वाले भील भी उससे प्रेरित होकर इस ‘राष्ट्र यज्ञ’ में कूद पड़े।
उन्हें आत्मोत्सर्ग करने में भी हिचक नहीं हुई। प्रताप स्वयं जैसा था, उसने जनमानस को भी वैसा ही बना दिया। सम्पूर्ण मेवाड़ प्रताप मय हो गया। ऐसे महानायक और उनसे प्रेरित उनके साथी सहयोगियों की घटनाएं निश्चित रूप से वर्तमान में लोगों को प्रेरित करेंगी ऐसा कवि का विश्वास था। प्रथम पुनरावृत्ति के संस्करण में कवि ने इसी प्रकार के भाव व्यक्त किये हैं-
“हिन्दी साहित्य में ‘हल्दीघाटी’ का प्रचार मेरे अनुमान के बाहर होता जा रहा है। इसका श्रेय महाराणा प्रताप और उनके साथियों को है। मैंने तो उनके कर्तव्यों के कुछ चित्र जनता के सामने रख दिये हैं इसलिये नहीं कि पुस्तक पढ़कर लोग ऊँपने लगे बल्कि इसलिये कि ऊँपते हुए लोगों की आँखें खुल जाय… हल्दीघाटी” काव्य का स्पर्श पाठकों की नस-नस में फैल जाने वाली बिजली के स्पर्श से कम आकर्षक न होगा और एक बार फिर राजपूतों की निद्रित वीरता तडित सर्पिणी की तरह फुफकार उठेगी और जौहर की ज्वाला से देश प्रज्वलित हो उठेगा।” (भूमिका 9.24)
हिन्दी साहित्य में हल्दीघाटी महाकाव्य’ अपना विशेष महत्व रखती है। जिस समय इस महाकाव्य का सृजन हुआ वह हिन्दी साहित्य के लिये शैशव से उठकर किशोरावस्था का काल था। ऐसे समय में इस काव्य ने हिन्दी भाषा साहित्य के कोष की अभिवृद्धि की ।
इस काव्य की भाषा सहज और सटीक है। प्रकाशन से पूर्व कवि ने सात वर्षों तक इस काव्य के माध्यम से प्रताप के जीवन के प्रसंग गा-गाकर लोगों को सुनाए थे। भाषा में आकर्षण था, ओज था, किसी जन में भी जोश भरने की क्षमता थी, सबसे बढ़कर यह गेय था, इसे गाया जा सकता था। अतः इस महाकाव्य के गीत जन-जन की जबान पर रच-बस गये थे। प्रकाशन से पूर्व काव्य के विषय को समाज के सम्मुख रखकर स्वतंत्रता की भावना को बल देने का काम प्रताप के चरित्र के माध्यम से ही किया जा सकता था जो पाण्डेय जी ने किया।
कवि को इस काव्य और उसके नायक से कितनी आसक्ति थी यह पुस्तक की भूमिका के प्रथम वाक्य से ही लग रहा है- ‘प्रताप! आज सात वर्षों से तेरी पवित्र कहानी गा-गाकर सुना रहा था, मोह होने पर भी आज उसे मैं पूर्ण कर रहा हूँ।’ राम नवमी वि.स. 1996 (31 मार्च सन् 1939) के दिन इस महाकाव्य का प्रथम प्रकाशन हुआ। 22 मार्च 1946 तक इसके पांच प्रकाशन हो चुके थे।
प्रताप का चरित्र ही कुछ ऐसा है जो मुर्दों में भी जान फूँक दे। यही कारण था कवि ने अपने काव्य का नामक प्रताप रखा। कवि अपने काव्य का शुभारम्भ प्रताप को समाधि से जगाने से कर रहा है। उसे यह विश्वास है कि प्रताप सोये हुए समाज को जगाने में अवश्य समर्थ होगा-
आज इसी छतरी के भीतर सुख दुःख गाने आया हूँ ।
सेनानी को चिर समाधि से आज जगाने आया हूँ। (हल्दीघाटी- पृ. 25)
विषम परिस्थिति में महाराण प्रताप जैसा महानायक ही हमारा उद्धार करने में समर्थ हो सकता है। कवि ने अपने भाव आगे इस प्रकार अभिव्यक्त किये है-
सुनता हूँ वह जगा हुआ था, जौहर के बलिदानों से ।
सुनता हूँ वह जगा हुआ था, बहनों के अपमानों से ॥
सुनता हूँ ली थी अंगड़ाई, अरि के अत्याचारों से।
सुनता हूँ वह गरज उठा था कड़ियों की झनकारों से (पृ. 25-26)
“प्रताप हर कठिन परिस्थिति में सामना करने के लिये तत्पर रहे। पाण्डेय जी ने गद्य में भी अपनी यही बात सशक्त शब्दों में रखी है। गद्य और पद्य में उनकी गति व भाव समान है उक्त बात को कवि ने गद्य में इस प्रकार कहा है- “तू विश्व के वक्ष पर अपने व्यक्तित्व की छाप छोड़ कर बाण्डोली की पवित्र समाधि में सो गया।
हे मेवाड़ उद्धारक! मैं आज अपने तैतीस करोड़ सहयोगियों के साथ तुझे जगा रहा हूँ। हे वीर तू समाधि की चट्टानों को फेंक दे और गरज कर उठ जा खल दल चकित और चिन्तित हो उठे, बैरी का मणिमय सिंहासन भय से काँप उठे और पराधीन भारत को उसका खोया हुआ सेनापति मिल जाय।” (भूमिका पृ. 22)
‘हल्दीघाटी’ नामक महाकाव्य विशेष स्थल को सामने रखकर लिखा गया है। ‘हल्दीघाटी’ वह स्थल है जहां प्रताप ने मुगल सेना के छक्के छुड़ा दिये थे। प्रताप की सेना का मुगलों में इतना भय व्याप्त हो गया था कि दिन को युद्ध समाप्त होने के बाद वे एक कदम भी आगे बढ़ने को तैयार नहीं थे।
इस युद्ध को बीते सैकड़ों वर्ष हो गये किन्तु हल्दीघाटी का कण-कण वीर सिपाहियों के शीर्य और बलिदानों की गाथा आज भी गाकर सुना रहा है। वन प्रान्तर का पत्ता पत्ता राणा की अमर कहानी कहता सुनाई दे रहा है। मिट्टी के एक-एक कण से चेतक के पद चाप की ध्वनि आज भी सुनाई दे रही हैं और सुनाई दे रहा है राणा का यह संदेश-
“स्वतंत्रता के लिये मरो’ राणा ने पाठ पढ़ाया था’
इसी वेदिका पर वीरों ने अपना शीश चढ़ाया था’ (पृ. 19)
‘हल्दीघाटी’ महाकाव्य के महानायक राणा प्रताप ऐसे महान् व्यक्तित्व हैं जिन पर आज भी लोगों की आस्थाएं टिकी है। अपने देश और धर्म की रक्षा के लिये जिसने विशाल साम्राज्य के अधिपति अकबर के साथ डटकर संघर्ष किया अन्य राजाओं की तरह अपने सुख वैभव के लिये उसकी अधीनता स्वीकार नहीं की।
अपने सीमित साधन और सहयोगियों के अटूट विश्वास के साथ न केवल उसने सतत संघर्ष किया वरन् अन्त में विजयश्री हासिल की, सम्पूर्ण मेवाड़ को अपने अधीन कर उसका समग्र विकास किया। सुदीर्घ काल तक चले संघर्ष में एक भी उदाहरण ऐसा नहीं मिलता जिसने उसके साथ कभी धोखा किया हो।
उल्टे ऐसे असंख्य उदाहरण मिल जायेंगे कि उसके एक इशारे पर वीरों ने अपने जीवन की सर्वस्व की बाजी लगा दी, प्रताप के लिये उन्होंने प्राणों तक का उत्सर्ग कर दिया। ‘हल्दीघाटी’ उसका प्रमाण है। प्रताप का जीवन ही दिव्य दाहक था। जो भी उसके सम्पर्क में आया वह भी उसके समान ही बन जाता था।
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