चरक संहिता
Charak Sanhita

1,625.00

AUTHOR: Dr. Brahmananda Tripathi (डॉ. ब्रह्मानंद त्रिपाठी)
SUBJECT: चरक संहिता | Charak Sanhita
CATEGORY: Ayurveda
PAGES:: 2550
LANGUAGE: Hindi
BINDING: Hardcover
EDITION: 2024
VOLUMES: 2 Volumes
WEIGHT: 2800
Description

प्राक्कथन

उपलब्ध आयुर्वेद के प्रधान आकर ग्रन्थों में चरक संहिता का स्थान निर्विवादरूप से उच्चतम है। यत्र-तत्र बिखरे उद्धरणों से आयुर्वेद साहित्य के लुप्त विशाल भण्डार का आभाम मिलता है। किन्तु वे सभी महान् कृतियाँ वर्तमानकाल तक प्राप्त थी, ज्ञात नहीं हो सकीं। केवल महर्षि अग्निवेश कृत एवं महर्षि चरक द्वारा संस्कृत तथा आचार्य दृढबल द्वारा खण्डित अप्राप्त अंशों को प्रपूरितसम्पादित कर जिस प्राचीन संहिता का आज चरकसंहिता के नाम से प्रचलन है. वही उपलब्ध है। सुश्रुतसंहिता भी उसी प्रकार अपने मूलरूप में उपलब्ध नहीं है।

जिस रूप में भी उपलब्ध है, बाद के आचार्यों द्वारा व्यवस्थित-संवर्धित रूप में है। काश्यपसंहिता भी संपूर्ण उपलब्ध नहीं है। भेलसंहिता, भोजसंहिता, हारीतसंहिता का वर्तमान प्राप्तस्वरूप कितना प्राचीन है यह संदिग्ध है। संस्कृत साहित्य के प्राचीन वाङ्मय में आयुर्वेद का विशाल भण्डार है।

जिनमें अधिकांश का परिचय जिज्ञासु शोधकर्ताओं ने प्राप्त किया है। चिकित्सा के सैद्धान्तिक पक्ष का जितना व्यापक एवं असंदिग्ध परिचय इन संहिता ग्रन्थों में मिलता है, वह आश्चर्यजनक है। अपनी आप्तबुद्धि एवं क्रान्तदर्शी प्रतिभा के बल पर उन तपःपूत महर्षियों ने जिन आधारभूत सूत्रों का निर्देश किया है, वे आज भी चिकित्सा-सिद्धान्त के मानदण्ड को स्थापित करने के लिए पर्याप्त हैं। इन विभूतिभूषित महती प्रतिभा के आकर महर्षियों द्वारा उपदिष्ट छिन्न-भिन्न साहित्य भी प्राचीन गरिमामय रूप को स्थायित्व प्रदान करता है।

चरकसंहिता का काल-निर्धारण एवं मूल कृतिकार का सही परिज्ञान आचार्यों के आत्मगोपन के सिद्धान्त के कारण निर्विवाद रूप में स्थापित कर पाना कठिन है। इस विषय पर रसयोगसागर के उपोद्घात में आचार्य पं० हरिप्रपन्न शर्मा जी वैद्य एवं काश्यपसंहिता की भूमिका में आचार्य पं० हेमराज शर्मा तथा बाद के अनेक विद्वानों ने अद्यतन उपलब्ध साहित्य का विस्तृत पर्यालोचन एवं दिग्ददर्शन विभिन्न ग्रन्थों, निबन्धों के रूप में प्रकाशित किया है। जिज्ञासु महानुभाव उस विशाल परिचर्या का विवरण तदनुरूप सन्दर्भ-ग्रन्थों द्वारा प्राप्त कर सकते हैं। इस कारण यहाँ केवल प्रस्तुत प्रकाश्यमान चरकसंहिता की चन्द्रिका व्याख्या एवं उसके साथ दिये गये विशिष्ट वक्तव्य का परिचय देना मात्र अधिक समीचीन होगा।

प्राचीन चिकित्सा-साहित्य के अध्ययन के पूर्व जिज्ञासुओं को व्याकरण, षड्दर्शन-साहित्य का भली प्रकार अध्ययन परिशीलन आवश्यक होता है, अन्यथा इन संहिता-ग्रन्थों के बहुर्थ गुम्फित सूत्रों का सही भावार्थ उपलब्ध नहीं हो पाता। यद्यपि चरकसंहिता पर प्राचीन आचार्यों की अनेक विद्वत्तापूर्ण व्याख्याएँ उपलब्ध हैं, जिनमें चरकसंहिता की चरकचतुरानन आचार्य चक्रपाणिदत्त विरचित ‘आयुर्वेददीपिका’, आचार्य जेज्जट विरचित ‘निरन्तरपदव्याख्या’ कुछ अंशों में प्राप्त है।

बाद के आचार्यों में इस युग को महान् विभूति आचार्य गङ्गाधरसेन का विशाल व्याख्या ग्रन्थ चरक को जल्प कल्पतरु व्याख्या बहुत विस्तृत समन्वित रूप में अपने विशाल परिज्ञान के साथ उपलब्ध है। इन सभी व्याख्या कृतियों के अध्ययन के लिए संस्कृत वाङ्मय का विस्तृत पूर्वज्ञान आवश्यक है। इस प्रकार पूर्वाधार के बिना इस विशाल प्राप्त सम्पदा का भी परिचय प्राप्त करना दुष्कर है।

आज का आयुर्वेद विद्यार्थी इतना समय वैद्यक ग्रन्थों के अध्ययन में नहीं दे पाता। इस कारण आचार्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी ने अपने विद्वत्तापूर्ण अध्ययन से प्राप्त सभी प्राचीन व्याख्याओं का समुचित सारांशरूप में परिचय देते हुए हिन्दी भाषा में चरक-चन्द्रिका नाम की व्याख्या विशिष्ट वक्तव्य के साथ उपस्थित की है। डॉ० त्रिपाठी आयुर्वेद के प्रतिभासम्पन्न विद्वान् हैं ही, ज्यौतिष, साहित्य, षड्दर्शन के भी आचार्य हैं।

आधुनिक चिकित्सा साहित्य तथा अंग्रेजी भाषा के भी अभिज्ञ हैं तथा संस्कृत साहित्य, व्याकरण, आयुर्वेद का अध्यापन आपने अनेक विशिष्ट संस्थाओं में किया है। अनेक सम्भाषा परिषदों के मान्य क्रियाशील सदस्य भी रहे हैं तथा अपने विशाल ज्ञान एवं गम्भीर अध्ययन द्वारा प्राप्त प्रतिभावैदुष्य से आपने अनेक सम्भाषा परिषदों में व्यापक रूप से सहयोग दिया है। अनेक आतुरालयों में आपने अपने चिकित्सा ज्ञान को सुफल क्रियारूप में आतुरजनों को देकर सही अर्थों में चिकित्सा के अध्ययन को उपयोगिता उ‌द्घाटित की है।

भाग – 2 


                                                                                                                     प्राक्कथन

आयुर्वेदीय बृहत्त्रयी में ‘चरकसंहिता’ का सर्वप्रथम स्थान है। आरम्भ में इसका नाम अग्निवेश-तन्त्र था, उसी का चरक ने प्रतिसंस्कार किया। उपलब्ध चरकसंहिता दृढबल सम्पूरित है। आज इसी चरकसंहिता का आयुर्वेद-जगत् में सर्वत्र समादर है। इतिहास का अध्ययन करने से यह भी ज्ञात होता है, कि आज की अपेक्षा प्राचीनकाल में आयुर्वेद की स्थिति अत्यधिक समृ‌द्ध थी। आज आयुर्वेद की अनेक संहितायें सुलभ नहीं हैं। काश्यपसंहिता आदि कुछ ग्रन्थ खण्डित रूप में प्राप्त हैं। आज जो सुश्रुतसंहिता उपलब्ध है. वह भी अपने में अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। इसमें दिये गये अग्नि, क्षार, शस्त्र, जलौका आदि के प्रयोग विश्व की समस्त चिकित्सा पद्धतियों को आश्चर्यचकित कर देते हैं।

महर्षि आत्रेय द्वारा उपदिष्ट प्रस्तुत संहिता की भाषा अत्यन्त प्राज्ञ्जल, सुस्पष्ट, सुबोध तथा मनोरम है। इसमें अनेक प्रकार की परिषदों की चर्चा भी है। उनमें सर्वत्र ‘तद्विद्यसम्भाषा’ का ही अनुसरण कर महर्षि आत्रेय ने प्रसाद-सुमुख होकर अन्य मतों का युक्ति-युक्त खण्डन कर अपने मतों की सिद्धान्तरूप में प्रतिष्ठापना की है, जिनका देश-विदेशों से आये हुए सभी आयुर्वेदविद महर्षियों एवं राजाओं ने सादर समर्थन किया है। सवृत्त, आचार-रसायन, तन्त्रयुक्तियाँ आदि अनेक मूल्यवान् विषयों का इसमें समावेश होने के कारण ही प्रस्तुत संहिता का कार्यचिकित्सा में महत्त्वपूर्ण स्थान है।

काशी में श्री अर्जुनमिश्र की परम्परा के चरकाचार्य श्रीलालचन्द्र वैद्य समकालिक आयुर्वेदविदों में अग्रगण्य थे और मेरे गुरुकल्प थे। उनकी व्याख्यान-शैली अनुपम थी। उन्हीं के प्रमुख शिष्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी हैं, जिन्होंने चरकसंहिता पर ‘चन्द्रिका व्याख्या’ लिखी है। इसका प्रथम भाग सन् 1983 में प्रकाशित हो चुका था। मैंने इस ‘चन्द्रिका व्याख्या’ को अथ से इति तक देखा। जिस प्रकार सुरूप के प्रति आँखों का तथा सुमधुर के प्रति जीभ का पक्षपात होता है, ठीक उसी प्रकार आयुर्वेदशास्त्र के प्रति अनुराग होने के कारण मेरा भी इस व्याख्या के प्रति पक्षपात होना स्वाभाविक था।

निरन्तर अध्ययन, अध्यापन, विविध विषयक ग्रन्थ के लेखन आदि कार्यों में तत्पर डॉ० त्रिपाठी मेरे स्नेहपात्र हैं। इन्होंने द्वितीय भाग की पूर्ति के लिए लिखी चरकसंहिता की समस्त पाण्डुलिपियाँ मुझे दिखलायीं और उनमें से उन-उन स्थलों को देखने का मुझ से विशेष आग्रह किया, जहाँ-जहाँ इन्होंने मूलपाठों का संशोधन किया था तथा चक्रपाणि आदि प्राचीन टीकाकारों से जहाँ इनका मतभेद था। मैंने भी मनोयोगपूर्वक उन-उन स्थलों को देखा, अनेक युक्ति-युक्त प्रमाणों से इन्होंने अपने पक्ष की पुष्टि की है।

इस प्रकार के सभी स्थलों का पर्यालोचन करने पर इनके प्रति मेरा सहज स्नेह बढ़ता गया। अन्त में इन्होंने मुझसे प्राक्कथन के रूप में आशीर्वचन देने का आग्रह किया। मैंने इनके इस आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर संक्षेप में यह सब लिख डाला।

यद्यपि चरकसंहिता पर चक्रपाणिदत्त आदि मनीषियों की विद्वत्तापूर्ण अनेक टीकाएँ संस्कृत में उपलब्ध हैं। प्रकाशकों तथा सम्पादकों को असावधानी से उन प्राचीन टीकाओं के भी स्थल-विशेषों पर एक ही विषय के अनेक रूप देखे जाते हैं, जैसा कि डॉ० त्रिपाठी ने अपनी व्याख्या में स्थान-स्थान पर संकेत किया है। तथापि वे टीकाएँ समादरणीय हैं; उनसे चरकोक्त रहस्य विदित होते हैं, अतः उनका परिशीलन करना ही चाहिए। किन्तु उक्त प्राचीन टीकाओं को समझने के लिए संस्कृत वाङ्‌मय का पर्याप्त ज्ञान अपेक्षित है।

आज संस्कृत वाङ्मय का दिनों-दिन ह्रास होता जा रहा है। आयुर्वेद के विद्यार्थियों में भी यह ह्रास दिखलायी देता है। आयुर्वेद की कोई भी संहिता ऐसी नहीं है, जो संस्कृत में न लिखी गयी हो। अतः आज का विद्यार्थी संस्कृत का समुचित ज्ञान न होने कारण तत्त्वतः उन संहिताओं के रहस्यों को नहीं समझ पाता और न अध्यापक-वर्ग ही उसे स्पष्ट कर पाता है। इस दिशा में आचार्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी ने अपने विविध विषयक ज्ञान द्वारा सभी प्राचीन व्याख्याओं का सार लेकर ‘चन्द्रिका व्याख्या’ के रूप में उसे सरल एवं सुस्पष्ट किया है, जो सर्वथा स्तुत्य प्रयास है। डॉ० त्रिपाठी अनेक विषयों के प्रतिभा सम्पन्न विद्वान् हैं।

आपने अनेक सम्भाषा-परिषदों को अपने सारगर्भ वचनों से सम्मानित किया है, अनेक ग्रन्थों का सम्पादन किया है, विविध ग्रन्थों की रचनाएँ की हैं एवं अनेक ग्रनों की टीकाएँ लिखी हैं। भारतवर्ष की हिन्दी, संस्कृत एवं आयुर्वेद की सम्मानित अनेक पत्र-पत्रिकाएँ आपके लेखों को प्रकाशित कर गौरवान्वित होती रहती हैं।

प्राचीन टीकाओं में देखा जाता है, कि उद्धरणों के अन्त में केवल सन्दर्भ ग्रन्थों के नाम देकर टीकाकार कृत-कृत्य हुए हैं। परवती श्रीचक्रपाणि आदि ने अपनी टीका में केवल ग्रन्थ एवं अध्याय का नाम दिया है, जो पर्याप्त नहीं है; तथा अष्टांगसंग्रह एवं अष्टांगहृदय इन दो भिन्न ग्रन्थों के लिए टीकाकारों ने केवल ‘वाग्भट’ शब्द का भ्रामक प्रयोग किया है।

प्रस्तुत टीका में इस प्रकार के दोषों को कहीं भी नहीं आने दिया गया है, जो अत्यन्त परिश्रम-साध्य कार्य है। छन्द, व्याकरण तथा विषय आदि की दृष्टि से चरक के पाठों को शुद्ध करने का प्रथम प्रयास केवल डॉ० त्रिपाठी ने किया है, जो इनकी विविध विषयक विद्वता का परिचायक है। इसकी टीका करते हुए डॉ० त्रिपाठी ने उपलब्ध अन्य अनेक आयुर्वेदीय संहिताओं का स्थान-स्थान पर तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया है।

थोड़े ही समय में इनकी कृति को विद्वानों द्वारा जो समादर प्राप्त हुआ है, उसे देखते हुए हमारा अनुरोध है, कि ये भविष्य में सम्पूर्ण वृहत्त्रयों को अपनी प्रतिभा से अलंकृत करें। बहुज्ञ एवं बहुश्रुत डॉ० त्रिपाठी ने अपनी विद्वत्ता तथा चिरन्तन चिकित्सकीय अनुभवों द्वारा प्रस्तुत व्याख्या को शास्त्रीय एवं व्यावहारिक दृष्टियों से विचारकों, शोधकर्ताओं तथा पाठकों के लिए सरल एवं उपयोगी बनाने का सफल प्रयास किया है।

चन्द्रिका-व्याख्या युक्त प्रस्तुत चरकसंहिता के परिशिष्ट भाग में निर्दिष्ट विविध प्रकार की सूचियाँ उसके अन्तर्गत विषयों को करामलकवत् बनाने में अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होंगी। इस प्रकार को सूचियों का इसमें पहली बार समावेश व्याख्याकार की सूझ-बूझ एवं अथक परिश्रम का सूचक है। वर्षगणसाध्य इस महत्त्वपूर्ण कृति को सफलतापूर्वक सम्पन्न करने के लिए आचार्य डॉ० ब्रह्मानन्द त्रिपाठी को मैं हार्दिक साधुवाद प्रदान करता हूँ और उनका स्वागत करता हूँ, कि वे आजीवन तन-मन से आयुर्वेद की सेवा करते रहें।

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