Biography

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक
Lokmanya Bal Gangadhar Tilak

Lokmanya Bal Gangadhar Tilak , लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक जीवन चरित्र

“स्वतन्त्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है”

के उद्घोषक

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक

स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है” का उद्घोष करने वाले देशभक्त और क्रान्ति के समर्थक बाल गंगाधर तिलक का जन्म रत्नागिरि जिले ‘के ‘चिबल’ नामक गांव में एक निर्धन ब्राह्मण गंगाधर पन्त के घर हुआ। तिलक की कई बहनें थीं और ये सबसे छोटे थे, अतः परिवार में इन्हें ‘बाल’ कहकर पुकारा जाता था। कुशाग्र बुद्धि तिलक मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण करके डेक्कन कॉलेज ‘पूना में 1876 में प्रविष्ट हुए। प्रथम श्रेणी में बी.ए. परीक्षा पास करके सन् 1879 में वकालत की डिग्री प्राप्त की। इनके एक निकट के साथी श्री आगरकर थे। दोनों ने देशसेवा करने का निश्चय किया।

पूना में श्री विष्णुशास्त्री चिपलूणकर ने एक अंग्रेजी स्कूल खोला। दोनों साथी सरकारी नौकरी छोड़ उसमें सहयोग करने लगे। ये विद्यार्थियों को शिक्षा के साथ देशभक्ति का पाठ पढ़ाते थे। देशभक्ति की भावना का प्रचार करने के लिए श्री तिलक ने 4 जनवरी 1881 से दो साप्ताहिक पत्र प्रारम्भ किये। ‘केसरी’ मराठी भाषा का और ‘मराठा’ अंग्रेजी का पत्र था। इन पत्रों में ब्रिटिश सरकार की कटु आलोचना करने के कारण इन्हें साथी सहित गिरफ्तार कर लिया और 17.8.1882 को दोनों को चार मास की जेल हुई। जेल से छूटने के बाद 1888 में ‘सुधारक’ नामक पत्र प्रारम्भ किया।

इस बीच तिलक समाजिक क्षेत्र में अपनी सक्रियता से बहुत प्रसिद्ध होते गये। इन्होंने महाराष्ट्र में ‘गणपति उत्सव’ को व्यापक लोकप्रिय बनाया और उसके माध्यम से जन जागृति की। इसी शैली में शिवाजी की जन्मभूमि रायगढ़ में उनके जन्म दिवस पर ‘शिवाजी उत्सव’ प्रारम्भ किये। ये उत्सव महाराष्ट्र में राष्ट्रीय जागरण के माध्यम बने और वहां स्वराज्य प्राप्ति के लिए नयी चेतना का संचार हो गया।

1897 में पूना में प्लेग की महामारी और दुर्भिक्ष फैले। अंग्रेज सरकार महारानी विक्टोरिया की हीरक जयन्ती के उत्सव मनाने में इतनी मग्न थी कि उसने जनता के कष्ट पर ध्यान नहीं दिया। अपितु प्लेग आफिसर रैंड प्लेग की आड़ में जनता को सताने और कष्ट देने लगा। उसकी यातनाओं से क्रुद्ध होकर एक मराठी क्रान्तिकारी युवक दामोदर चापेकर ने उसे गोली से उड़ा दिया। श्री तिलक ने 15 जून 1897 के अंक में इस घटना पर एक लेख लिखा जिसमें सरकार के अधिकारी रैंड को इस घटना का जिम्मेदार माना । तिलक को गिरफ्तार कर लिया गया। जनता ने 50 हजार की राशि इकट्ठी कर अपने नेता को जमानत पर छुड़वा लिया,

किन्तु अन्याय करने पर तुली गोरी सरकार ने निर्णय करते समय डेढ़ वर्ष की कठोर कैद दे डाली। इन घटनाओं से तिलक सारे भारत में प्रसिद्ध हो गये और एक संघर्षी नेता के रूप में प्रतिष्ठित हुए। जेल में तिलक का स्वास्थ्य काफी बिगड़ गया। भारत भर से, यहां तक कि इंगलैंड से प्रो. मैक्समूलर तक ने तिलक के स्वास्थ्य पर चिन्ता प्रकट करते हुए उनको छोड़ने का आग्रह किया। सरकार माफीनामे के साथ छोड़ने को तैयार हो गयी किन्तु तिलक माफी मांगने के लिए तैयार नहीं हुए। अन्तत: उन्हें एक वर्ष बाद स्वयं ही छोड़ दिया गया।

स्वास्थ्य ठीक होने पर आप मद्रास के और लखनऊ के कांग्रेस-अधिवेशन में सम्मिलित हुए। जनता ने आपका खूब स्वागत किया। कांग्रेस में आपको ‘गरमपन्थी’ नेताओं में माना जाता था। नरमपन्थी भीरू नेताओं ने इसी कारण तिलक को अध्यक्ष नहीं बनने दिया । किन्तु कांग्रेस पर ‘गरमपन्थी’ नेताओं का वर्चस्व बढ़ता ही गया।

मुजफ्फरपुर बमकाण्ड के बाद ‘केसरी’ में लिखे एक लेख में तिलक ने उस काण्ड के लिए अंग्रेज सरकार की दमनकारी नीति को जिम्मेदार ठहराया। तिलक पर फिर मुकदमा चलाया गया। तिलक ने अपनी पैरवी स्वयं की और एक सप्ताह तक चली बहस में 21 घण्टे अपने तर्क प्रस्तुत किये। किन्तु न्याय का सिर्फ ढोंग ही करने वाली सरकार ने उन्हें छह वर्ष की कठोर कैद सुना दी और बर्मा की मांडले जेल में ले जाकर एक एकान्त की कोठरी में बंद कर दिया। इस कठिन समय का आपने सदुपयोग इस रूप में किया कि एकाग्र और तपस्वी बनकर गीता रहस्य नामक गीता की विस्तृत टीका लिखी तथा वेद सम्बन्धी ग्रन्थ लिखे। वहां आपका स्वास्थ्य फिर बिगड़ने लगा। तब आपको में पूना की जेल में स्थानान्तरित कर दिया।

जेल से छूटकर आपने ‘होमरूल लीग’ (स्वराज्य संस्था) की स्थापना की। सरकार ने आपको फिर नोटिस दिया और जमानत के रूप में 40 हजार रुपये जमा कराने के निर्देश दिये। इस केस में आप हाईकोर्ट से जीत गये। होमरूल लीग की ओर से आपने तथा एनीबेसेन्ट ने एक प्रतिनिधि मण्डल के रूप में इंगलैंड जाकर स्वराज्य प्रदान करने का आग्रह किया। स्वराज्य आन्दोलन के कारण कांग्रेस और देश में आपकी प्रतिष्ठा सर्वाधिक बढ़ी। जनता ने आपको उस समय एक लाख की थैली भेंट की, जो तब तक किसी भी नेता को नहीं मिली थी। आपने घोषणा की कि यह राशि स्वराज्य प्राप्ति के लिए व्यय की जायेगी। आपने 70 हजार रुपये लाला लाजपतराय को दिये ताकि वे निर्बाध रूप से राष्ट्र सेवा का कार्य कर सकें।

रोगों, संघर्षों, जेलयातनाओं, भागदौड़ भरे कार्यक्रमों से लोकमान्य तिलक का स्वास्थ्य दिन-प्रतिदिन क्षीण होता जा रहा था। अन्तिम समय उनको 5-6 दिन तक ज्वर आता रहा और इसी में उनकी जीवन यात्रा पूर्ण हो गयी। बम्बई में ‘बैंकवे’ नामक समुद्र तट पर आपका अन्तिम संस्कार किया गया। इस अवसर पर महात्मा गांधी सहित सभी बड़े नेता और दो-तीन लाख व्यक्ति उपस्थित थे। सरलता एवं सादगी और वैचारिक प्रखरता की प्रतिमूर्ति श्री तिलक के साथ स्वराज्य प्राप्ति के प्रयत्नों का एक अध्याय पूर्ण हो गया। आज उनका भौतिक शरीर हमारे बीच नहीं है किन्तु ये उद्घोष उनके वैचारिक शरीर को सदा अमर रखेगा

“स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।”

और तिलक अगर जीवित होते तो देखते कि यह अधिकार 15 अगस्त 1947 को हमें मिल कर ही रहा !

लोकमान्य तिलक के स्वलिखित जेल- संस्मरण

‘पहले मैं बम्बई के प्रेसीडेन्सी जेल में रहा। बाद में वेराडा जेल में भेजा गया। यहां मुझे ऊन का सूत रंगने और कातने का काम दिया गया। यहां ‘मराठा’ और ‘केसरी’ कटे फटे हुए पढ़ने को मिलते थे। मुझे युरोपियन वार्ड में रखा गया था। कोठड़ी दश फीट लम्बी और आठ फीट चौड़ी थी। मेरा बिस्तर दो कम्बल थे। मुझे रात को पुस्तकें पढ़ने और तीन घण्टे तक तैल जलाने की आज्ञा मिली हुई थी। कुछ पुस्तकें मेरे पास रहती थीं, शेष सब जेल के आफिस में रखनी पड़ती थी। मैं वहां अधिक दिन तक ऋग्वेद का स्वाध्याय करता रहा।

जब मैं बम्बई के जेल में था, तो मुझे भोजन की बड़ी शिकायत थी केवल शुष्क रोटी और पानी पर भरोसा करना पड़ता था। क्योंकि प्याज और लहसुन से मुझे बड़ी घृणा थी, इसका परिणाम यह हुआ कि थी बहुत शीघ्र मेरा वजन घट गया। इस पर डाक्टर से शिकायत करने पर भोजन में परिवर्तन कर दिया गया। एक पौण्ड दूध और आधी छटांक घी भी मिलने लगा था और अन्त तक मिलता रहा। यूरोपियन कैदियों को दूध, चाय, बिस्कुट तथा मांस सब कुछ मिलता था। हमें सप्ताह में एक बार गेंहू की रोटी, दाल और नित्य सुबह बाजरे की रोटी, दाल तथा शाम को सब्जी और वही रोटी !

जेल में आज्ञा के बिना कोई व्याख्यान नहीं हो सकता। जेल कर्मचारियों की आज्ञानुसार काम करने से, उसी के अनुसार आचरण न होने पर बेंत, उपवास, एकान्तवास की सजाएँ दी जाती हैं। मेरे साथ अच्छा सुलूक किया जाता था और मेरा हर तरह से ध्यान रखा जाता था। मुझे कभी कोई सजा नहीं भुगतनी पड़ी।

जेल के कपड़े तथा मकान बड़े सड़े हुए रहते हैं। बम्बई में जब पहली बार प्लेग का प्रकोप हुआ, तो जेल में भी वह फैलने लगी थी, किन्तु मेरी अनुमति से वहां सुपरिण्टेडेंट ने खूब अच्छी तरह सफाई करा दी थी। जिससे प्रकोप शान्त हो गया।

जेल में बुरे से बुरे आदमी होते हैं। वहां भी वे कुछ न कुछ उपद्रव करते ही रहते हैं। अगर मैं जेलर होता, तो ऐसे आदमियों के साथ कभी अच्छा वर्ताव न करता ।

भारत की जेलों में राजनीतिक कैदियों की बहुत बुरी दशा होती है। खूंखार, खून और जूआ, चोरी के अपराधों में कैद हुए यूरोपियनों के साथ बहुत अच्छा वर्ताव होता है और भारतीय राजनीतिक कैदियों से बुरा वर्ताव होता है। यह अन्याय है और वह दूर होना चाहिये।”

(‘केसरी’ से संकलित)

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