स्वाध्याय

आलोचकों की बातों पर क्रोध ना करें
Aalochakon Kee Baaton par Krodh Na Karen

Aalochakon Kee Baaton par Krodh Na Karen - आलोचकों की बातों पर क्रोध ना करें

“प्रायः प्रत्येक व्यक्ति में इतना मिथ्या अभिमान भरा हुआ है, कि वह स्वयं को सबसे अधिक बुद्धिमान और विद्वान समझता है, तथा दूसरों को मूर्ख समझता है।” इसी कारण से अपवाद स्वरूप एक आध व्यक्ति को छोड़कर प्रायः कोई भी व्यक्ति अपना दोष या अपनी आलोचना सुनना नहीं चाहता। क्यों?

क्योंकि ऐसा सुनना उसे अपमानजनक लगता है, कष्टदायक लगता है। और यह बात सभी जानते हैं, कि “कोई भी व्यक्ति कष्ट भोगना नहीं चाहता।” “इसलिए जब भी कोई व्यक्ति किसी के दोष बताता है, अथवा उसकी आलोचना करता है, तो उसे सुनकर वह व्यक्ति क्रोधित हो जाता है, दुखी हो जाता है, नाराज हो जाता है।” ऐसा करना उचित नहीं है। यदि वह कुछ गंभीरता से विचार करे, तो यह उसके लिए हानिकारक नहीं है, बल्कि लाभदायक है।

वेदों का यह सिद्धांत है, कि “यदि आपके अंदर दोष रहेंगे, तो वे आपको भी दुख देंगे तथा समाज को भी।” “यदि आपके अंदर अच्छे गुण होंगे, तो वे आपको भी सुख देंगे और समाज को भी।” “इसलिए जहां तक संभव हो, अपने दोषों को जानना, समझना और उन्हें दूर करना, आपके लिए हितकारक है।”

आप अपने दोषों को कब जान पाएंगे?

“या तो आप स्वयं अपने अंदर अपने दोषों की खोज करें।” “अथवा कोई दूसरा व्यक्ति आपके दोषों को देखकर जानकर समझकर फिर आपको बताए, और आप उसकी बात प्रेम से सुनें, तब आपको पता चल सकता है, कि आपमें क्या-क्या और कितने दोष हैं?”

उसके बाद यदि आप अपने दोषों पर निष्पक्ष भाव से विचार चिंतन करें, और आपको आपके दोष समझ में आ जाएं, कि “हां, मुझ में ये ये दोष हैं। और आप उन्हें दूर करने की इच्छा रखते हों। फिर इस काम में आप पूरा पुरुषार्थ करें, तब तो आपके दोष दूर हो सकते हैं। तभी आपका दुख भी कम होगा।” “यदि आप दूसरे व्यक्ति के द्वारा बताए गए दोषों को ध्यानपूर्वक सुनना ही नहीं चाहते, उन पर विचार करना ही नहीं चाहते, उन्हें दूर करने का पुरुषार्थ भी करना नहीं चाहते, तब तो आपके दोष दूर नहीं हो सकते। और न ही आपके दुख दूर हो सकते।” इसलिए अच्छा यही है, कि “जब कोई आलोचक व्यक्ति आपके दोष बताए, तो प्रेमपूर्वक उसकी बात को सुनें। उस पर शान्ति से विचार करें। यदि आपके अंदर वे दोष सिद्ध हो जावें, तो उन्हें दूर करने का प्रयत्न करें।”

यदि उसका आरोप झूठा हो और वे दोष आपमें हों ही नहीं। तब भी कोई चिंता की बात नहीं है। दुखी होने की आवश्यकता नहीं है।

क्योंकि जब दोष हैं ही नहीं, तो दुखी क्यों होना ?

अतः जब भी कोई आलोचक आपके दोष बताए, तो यह सोच कर प्रसन्न होना चाहिए, कि “इसने मेरा काम आसान कर दिया। इस व्यक्ति ने मुझे मुफ्त में मेरे दोष बता दिए।” “अर्थात उसकी सलाह मुफ्त में मिल रही है, तो उसका लाभ ले लेना चाहिए। इसी में बुद्धिमत्ता है। और इसी में मेरी सुरक्षा, उन्नति और लाभ है।” “अन्यथा ऐसी ही किसी समस्या को सुलझाने के लिए यदि मैं वकीलों से सलाह लेता, तो मुझे बहुत भारी फीस देनी पड़ती।”

—- स्वामी विवेकानन्द परिव्राजक

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