समर्पण
प्राचीन काल से भारतवर्ष में आयुर्वेद-विषयक विपुल साहित्य की रचना हुई है। इसके साथ ही आयुर्वेद के सर्वांगीण पठन-पाठन की सुव्यवस्थित व समृद्ध परम्परा भी रही है। कालान्तर में प्रतिकूल परिस्थितियों के कारण जहाँ अनेक ग्रन्थ नष्ट हो गये, वहीं कुछ प्राचीन दुर्लभ हस्तलिखित ग्रन्थ देश के विभिन्न ग्रन्थालयों में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में सिमट कर रह गये।
यत्र-तत्र उपलब्ध इन ग्रन्थों की मूल हस्तलिखित प्रतियों का अन्वेषण कर उनके आधार पर मूलपाठ का शोधन, उत्तम सम्पादन व सुगम अनुवाद करना एक अत्यन्त श्रमसाध्य व कठिन कार्य था। पतञ्जलि विश्वविद्यालय ने आयुर्वेद के प्राचीन हस्तलिखित अप्रकाशित आयुर्वेदीय ग्रन्थों का अन्वेषण कर अनुवाद सहित सम्पादन व प्रकाशन करने के दुष्कर कार्य का संकल्प किया है। इसे चरितार्थ करते हुए सारस्वत पुष्पों का यह प्रथम गुच्छ निम्न ग्रन्थों के रूप में प्रस्तुत किया है-
१. भोजन- कुतूहलम्
२. आयुर्वेद महोदधि (सुषेण निघण्टुः)
३. अजीर्णामृतमञ्जरी
इन तीन ग्रन्थों को अपने इस संसार में आगमन के ४१ वे वर्ष में आप सबको समर्पित करने से बढ़कर मेरे लिए और क्या सौभाग्य हो सकता था।
पतञ्जलि विश्वविद्यालय के इस उपक्रम को मूर्त रूप देने में विशेष पुरुषार्थं व सहयोग के लिए वैदिक विद्वान् डा० विजयपाल शास्त्री ‘प्रचेता’ जी व उनके सहयोगियों को भूरिशः धन्यवाद। मुम्बई निवासी प्रसिद्ध एवं अनुभवी आयुर्वेद विशेषज्ञ वैद्य श्री एस. डी. कामत जी ने संदिग्ध स्थलों के स्पष्टीकरण में विशेष सहायता की है, एतदर्थ हम उनके प्रति हार्दिक आभार प्रकट करते हैं।
इस सबके प्रेरक श्रद्धेय योगऋषि स्वामी रामदेवजी महाराज की सत्प्रेरणा के परिणाम स्वरूप ही इस ग्रन्थत्रय का प्रकाशन इतना शीघ्र सम्पन्न हो पाया है। अतः उनके चरणों में प्रणाम करते हुए ये तीनों ग्रन्थ उन्हीं
के चरणों में समर्पित करता हूँ। पतञ्जलि योग- परिवार के लाखों कर्मयोगी भाई-बहिनों के पुरुषार्थ से आज पूरे विश्व में योग एवं आयुर्वेद के प्रति लोगों की जिज्ञासा जगी है व इनकी प्रतिष्ठा बढ़ी है; उन सभी का स्मरण करते हुए सम्पूर्ण विश्व में योग व आयुर्वेद के प्रति
श्रद्धालु एवं निष्ठावान् सभी सज्जनों के प्रति में नतमस्तक होता हूँ। प्रस्तुत प्रकाशन के लिए जिन शोधसंस्थानों/ हस्तलेखागारों ने ग्रन्थों की हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध करवाई, उन सभी के प्रति हम हार्दिक कृतज्ञता ज्ञापित करते हैं। यह कार्य निरन्तर आगे बढ़ता रहे, इस संकल्प की सफलता के लिए प्रभु से प्रार्थना है।
– आचार्य बालकृष्ण
भूमिका
अन्न (भोजन) का जीवन के लिए अतिशय महत्त्व देखते हुए कहा है- अन्नं वै ब्रह्म। यही प्राणियों के प्राणों का आधार है- ‘अन्नं वै प्राणिनां प्राणाः’। भारतीय अध्यात्म एवं आयुर्वेद की परम्परा में भोजन के विषय में बहुत सूक्ष्म व विशद विवेचन करते हुए आहार शुद्धि को मोक्ष तक का साधन माना है-
‘आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धिः, सत्त्वशुद्धौ ध्रुवा स्मृतिः, स्मृतिलम्भे सर्वग्रन्थीनां विप्रमोक्षः ‘।
इसका भाव है कि आहार की शुद्धि से मन की शुद्धि हो जाती है तथा मन की शुद्धि से स्मृति की दृढ़ता हो जाती है। स्मृति की दृढ़ता का भाव यह है कि व्यक्ति उच्च चेतना में प्रतिक्षण जागरूकता से जीता है। उसे प्रतिपल अपने कर्त्तव्य की स्मृति बनी रहती है।
इससे वह सतत सावधान होकर अपने कर्तव्य पर दृढ़ रहता है। उसके आचरण में थोड़ी सी भी त्रुटि नहीं रहती। इस प्रकार स्मृति दृढ़ होने पर सब गांठें खुल जाती है; अज्ञान विषयासक्ति, राग, द्वेष एवं अहंकार के बन्धन छूट जाते हैं। साधक बन्धनमुक्त व आनन्दयुक्त हो जाता है।
इस प्रकार आहारशुद्धि मनुष्य के परम कल्याण का साधन है। यहाँ आहार में सात्विक विचारों का मानसिक आहार भी सम्मिलित है। श्रीमद्भगवद्गीता में भी यह तथ्य स्पष्टतया बताया गया है-
युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दुःखहा ।। (६.१७)
अर्थात् युक्त (उचित) आहार-विहार, उचित व्यवहार व समुचित शयन-जागरण पूर्वक किया गया योग मनुष्य को दुःखमुक्त कर देता है। गीता के इस कथन में भी युक्तियुक्त आहार को दुःखहारी योग का भी मुख्य साधन माना है।
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ चरकसंहिता के एक प्रसंग में आता है कि एक बार हिमालय की उपत्यका में जुटी ऋषियों को विशाल परिषद् ने रोग व आरोग्य के कारणों पर गहन विचार मन्थन किया। अन्त में ऋषि परिषद् इस निष्कर्ष पर पहुंची कि आहार ही आरोग्य व रोगों का कारण है। वहाँ सार रूप में यह सिद्धान्त स्थिर किया कि- हिताहार ही आरोग्यकारक है व अहिताहार रोगकारक ।
तमुवाच भगवानात्रेय:- हिताहारोपयोग एक एव पुरुषस्य वृद्धिकरो भवति,
अहिताहारोपयोगः पुनर्व्याधिनिमित्तमिति (चरकसंहिता सूस्थान- २५.३१)
इस प्रकार आयुर्वेद, जो केवल चिकित्सा पद्धति ही नहीं, अपितु एक समग्र जीवनदर्शन है, में बताया गया है कि- उचित व हितकर आहार-विहार, उचित व्यवहार, उचित शयन-जागरण, उचित दिनचर्या ये सब मनुष्य को स्वस्थ व सुखी बनाते हैं।
नरो हिताहार-विहार सेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः ।
दाता समः सत्यपर: क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः ।।
मतिर्वचः कर्म सुखानुबन्धि सत्त्वं विधेयं विशदा च बुद्धिः ।
ज्ञानं दमस्तत्परता च योगे यस्यास्ति तं नानुपतन्ति रोगाः ।।
(चरकसंहिता, शारीरस्थानम्- २.४६-४७)
अर्थात् जो व्यक्ति नित्य हितकर आहार-विहार का सेवन करता है, विचारपूर्वक सब कार्य करता है, इन्द्रिय-विषयों के प्रति अनासक्त रहता है, दानशील व सत्यपरायण होता है, निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों में समता बनाए रखता है, क्षमाशीलता अपनाता है व आप्तजनों को संगति करता है, वह व्यक्ति निरोग रहता है।
जो मन, वचन व कर्म को संयमित कर सुखद परिणाम वाले कर्म करता है, जिसका मन सदा वशीभूत एवं बुद्धि निर्मल अर्थात् राग-द्वेष व विषयासक्ति से रहित होकर तत्त्व को ग्रहण करने वाली होती है। जो ज्ञानवान्, जितेन्द्रिय व योग में तत्पर रहता है, उसे रोग कभी नहीं सताते हैं।
इस प्रकार हितकर आहार-विहार का आयुर्वेदीय ग्रन्थों में विस्तार से वर्णन मिलता है। प्रस्तुत ग्रन्थ के रचयिता आयुर्वेद-विशेषज्ञ पण्डित रघुनाथ सूरि ने आयुर्वेद के विशाल वाङ्मय में व्याप्त आहार-विषयक जानकारी को बड़े व्यवस्थित रूप में प्रस्तुत किया है।
इसमें चरकसंहिता, सुश्रुतसंहिता, अष्टाङ्गहृदय, अष्टाङ्गसंग्रह, धन्वन्तरि- निघण्टु, सुषेण-निघण्टु, कैयदेव निघण्टु, भावप्रकाश-निघण्टु, राजनिघण्टु आदि बहुत से प्रसिद्ध ग्रन्थों से अपेक्षित सामग्री संकलित की है, जो बहुत ही उपयोगी है। आयुर्वेदीय परम्परा के अनुसार भोजन से सम्बन्धित इतनी व्यापक व विविधतापूर्ण सामग्री को देखकर लगता है कि रघुनाथ सूरि ने यह भोजन विषयक विश्वकोष ही बना दिया है।
इस प्रकार श्रीरघुनाथ सूरि द्वारा अनेक स्रोतों के आधार पर संगृहीत १८०० से अधिक श्लोकों वाला ‘भोजन-कुतूहल’ नामक यह ग्रन्थ अत्यन्त दुर्लभ व उपयोगी सामग्री से विभूषित है। ग्रन्थ का नामकरण भी बड़ा ही सटीक है, क्योंकि यह भोज्य पदार्थों की गुणवत्ता, उनके शोधन, बनाने, पकाने की विधि की विस्तृत जानकारी देता है। यह सम्पूर्ण ग्रन्थ तीन परिच्छेदों (भागों) में रचा गया है, परन्तु भोजन-विषयक आयुर्वेदीय विवेचन प्रथम परिच्छेद में ही है।
अतः प्रथम परिच्छेद ही हिन्दी अनुवाद सहित प्रस्तुत किया जा रहा है। इस परिच्छेद में विभिन्न प्रकार के धान्यों (अनाजों) एवं भोज्य द्रव्यों जैसे गेहूँ, धान, दूध, दही, दाल, शाक आदि के गुणों का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त विभिन्न व्यञ्जनों के बनाने की विधि, उनके गुण एवं पाक प्रभावों का भी विवेचन किया है। इस ग्रन्थ के शेष दो परिच्छेद अभी तक अप्रकाशित ही हैं।
उनमें भोजन-विषयक धर्मशास्त्रीय विवेचना है अर्थात् धर्मशास्त्र के अनुसार भक्ष्याभक्ष्य नियमों का वर्णन है। ग्रन्थकार ने इस संग्रहात्मक ग्रन्थ की सामग्री प्राचीन संहिताओं, निघण्टुओं एवं अन्य आयुर्वेदीय ग्रन्थों से ली है, ऐसा वे स्वयं कहते हैं –
इत्यं विमध्य गुणपाठसुधाम्बुराशिं वा परामृतरसं सुरसं च तस्मात् ।
निर्मायि भोजनकुतूहलमीश्वराणां तोषाय तेन परितुष्यतु शेषशायी ।।
इति विविधनिबन्धाधीनगाथान् विगाह्य
प्रबलगुरुसमीक्षानौकया निर्विशेषम् ।
रुचिरतरललामग्राममासाद्य तत्तद्
विहितविधि विधेयं सम्भृतं भूतयेऽस्तु ।।
रचयिता का परिचय-
प्रस्तुत ग्रन्थ की पुष्पिका एवं एक अन्य पद्य से पता चलता है कि ग्रन्थ की रचना करने वाले पण्डित रघुनाथ सूरि हैं। लेखक द्वारा रचित एक अन्य ग्रन्थ ‘प्रयोगरत्नभूषा’ की पुष्पिका से ज्ञात होता है कि रघुनाथ सूरि गणेशभट्ट के पुत्र, रघुनाथ के पौत्र तथा हरिहरभट्ट के प्रपौत्र थे। ग्रन्थकार की कृतियों में अनेक स्थलों पर इस बात का संकेत मिलता है कि वे अनन्तदेव से सम्बन्ध रखते थे।
जैसे कि अनन्तदेवीय, अनन्तदेवोदय, अनन्तदेवदयोदय, अनन्तदेवदयात्मज इत्यादि विशेषणों से सूचित होता है। ‘अनन्तदेवदयात्मज’ शब्द से प्रतीत होता है कि कवि के पिता अनन्तदेव थे, परन्तु यह कथन पूर्वलिखित तथ्य से विरुद्ध जाता है। वस्तुतः कवि ने अनन्तदेव को अपने गुरु के रूप में वर्णित किया है, जो कि अप्पदेव के पुत्र तथा अनन्तदेव के पौत्र थे। अतः अनन्तदेव लेखक के पिता नहीं हो सकते, प्रत्युत वे ग्रन्थकार के गुरु ही प्रतीत होते हैं। अनेक स्थलों पर लेखक के कथनों से अनन्तदेव के प्रति अतिशय आदर भाव अभिव्यक्त होता है। यह तथ्य भी सूचित करता है कि अनन्तदेव रघुनाथ सूरि के गुरु ही थे।
शिवाजी के गुरु तथा महाराष्ट्र के प्रसिद्ध सन्त समर्थ गुरु रामदास ने रघुनाथ सूरि को कुछ पत्र लिखे थे। उनसे स्पष्ट होता है कि लेखक का ‘वसिष्ठ’ गोत्र था, जो मराठों में ‘करड़े’ गोत्र से सम्बद्ध है। रघुनाथ सूरि का पारिवारिक नाम नवहस्त था। ये वैष्णव थे, अतः विष्णु को अपने आराध्य देव के रूप में स्वीकार किया है। इनके गुरु अनन्तदेव का काल १६२५ ई. से १६७५ ई. के बीच माना जाता है। अनन्तदेव बड़े ही उच्च कोटि के विद्वान् लेखक थे तथा मराठा सन्त एकनाथ के वंशज थे। अनन्तदेव के पिता अप्पदेव ‘मीमांसान्यायप्रकाश’ नामक विख्यात ग्रन्थ के रचयिता थे। रघुनाथ सूरि की समर्थ गुरु रामदास से निकटता व मैत्री थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि १६७८ ई. में इकोजी द्वारा मराठा साम्राज्य की स्थापना करने के उपरान्त लेखक ने तंजौर में निवास करना आरम्भ कर दिया था; क्योंकि उन्होंने अपने मराठी भाषा में रचे ग्रन्थ ‘नरक-वर्णन’ में इकोजी की महारानी दीपाम्बिका को अपनी आश्रयदात्री के रूप में बताया है भोजनकुतूहल के अतिरिक्त रघुनाथ सूरि ने मराठी एवं संस्कृत में अनेक ग्रन्थ लिखे हैं। इनके संस्कृत ग्रन्थ इस प्रकार हैं-
भोजनकुतूहलम् साहित्यकुतूहलम् प्रायश्चित्त कुतूहलम् जनार्दनमहोदय, काशीमांसा, प्रयोनरत्नभूषण एवं चातुर्मास्यप्रयोगः मराठीइब्ध- नरकवर्णन, गोवर्धनोद्धरण, स्त्रीधर्म नरकवर्णन में इन्होंने प्रयोगभूषा और चातुर्मास्यप्रयोग को छोड़कर अन्य सभी ग्रन्थों का वर्णन किया है। ग्रन्थकार की अपात्र रानी दीपाबाई के पति इकोजी ने १६७६ ई. से १६८३ ई. के मध्य में शासन किया था। ‘धर्मामृत महोदधि’ में इसका रचनाकाल 1.6.23 शक संवत् बताया गया है। इस प्रकार रघुनाथसूरि का ग्रन्थप्रणयनकाल १६५० ई. से १७२५ ई. के मध्य निश्चित होता है।
प्रस्तुत संस्करण
हिन्दी भाषान्तर के साथ ‘भोजन- कुतूहल’ का यह प्रथम प्रकाशन है। इससे पहले इस ग्रन्थ के दो संस्करण निकल चुके हैं, पहला संस्कृत मूलपाठ वाला संस्करण तथा दूसरा अंग्रेजी अनुवाद सहित संस्करण। पहला संस्करण तिरुवनन्तपुरम् (केरल) से अनन्तशयन ग्रन्थमाला में १९५४ ई. में छपा था। दूसरा संस्करण आयुर्वेद से सम्बद्ध संस्था आई.ए.आई.एम. (इन्स्टीट्यूट ऑफ आयुर्वेद एण्ड इण्टरगेटिव मेडिसन) बैंगलोर से २०१२ ई. में छपा है।
पूर्व संस्करणों में संस्कृत मूलपाठ में अनेक दोष रह गये हैं। पाठदोषों के कारण बहुत से स्थानों पर अर्थ भी विसंगतिपूर्ण हो गया है। प्रस्तुत संस्करण में मूलपाठ-शोधन पर विशेष ध्यान दिया गया है। उपलब्ध हस्तलिखित प्रतियों का अवधानपूर्वक अवलोकन कर यथासम्भव शुद्ध पाठ रखा गया है। आवश्यकतानुसार अनेक स्थानों पर पाठशोधन विषयक महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ भी दी गई हैं। इस संस्करण में एक वैशिष्ट्य यह है कि अधिकांश उद्धरणों का अन्वेषण कर उनके मूल स्थल का निर्देश कोष्ठक में कर दिया गया है। कुछ उद्धरणों का मूल स्थल अभी भी अन्वेष्टव्य है।
इसे यथासम्भव आगामी संस्करण में पूरा किया जायेगा। पाठशोधन के क्रम में पूर्व संस्करणों के अनेक गम्भीर पाठदोषों का निराकरण कर दिया गया है। जैसे कि ‘ताम्बूलविधि’ के अनन्तरवर्ती तथा ‘सुषेणोक्त भोजनविधि से पूर्ववर्ती प्रकरण का शीर्षक पूर्व प्रकाशित दोनों संस्करणों में- ‘अथ मर्दनप्रतीकार:’ लिखा है, जबकि इसका शुद्ध पाठ है- ‘अथ पर्दनप्रतीकार:’, अर्थात् विकृत अपानवायु के निराकरण से सम्बन्धित प्रकरण। इस प्रकार के अन्य भी बहुत-से पाठदोषों का इस संस्करण में निराकरण कर दिया गया है।
अन्त में पाठकों की सुविधा के लिए विशिष्ट शब्दसूची (अर्थ सहित) व पद्यानुक्रमणिका भी दी है। पाठान्तर -प्रदर्शन में आनन्दाश्रम, पूना से प्राप्त भोजन- कुतूहल की तीन हस्तलिखित प्रतियों (एस- २९१०, एस-२९११, एस-२९१२) को क्रमश:- आ. १, आ. २, आ. ३ के रूप में संकेतित किया है।
हिन्दी भाषान्तर को यथासम्भव सुगम रूप में प्रस्तुत किया है, जिससे अधिकाधिक पाठक लाभ उठा सकें। सामान्य पाठकों के लिए नवीन या कठिन प्रतीत होने वाले शब्दों का अर्थ कोष्ठक में रखा है। अर्थ की स्पष्टता के लिए अनेक स्थानों पर महत्त्वपूर्ण टिप्पणियाँ दी गई हैं। औषधि वनस्पतियों के परिचय हेतु आवश्यक चित्र भी यथास्थान प्रस्तुत किये हैं। आशा है यह संस्करण पाठकों के लिए विशेष रूप से उपादेय होगा। इससे पाठक जन आयुर्वेदीय ग्रन्थों में वर्णित भोजन-विषयक आवश्यक जानकारी प्राप्त कर अपने स्वास्थ्य की रक्षा करने में समर्थ हो सकेंगे।
– आचार्य बालकृष्ण
द्वितीय संस्करण
‘भोजन-कुतूहलम्’ एक सर्वजनोपयोगी प्राचीन आयुर्वेदीय रचना है। इसके प्रथम संस्करण को पाठकों ने बहुत रुचि एवं कुतूहल के साथ अपनाया है। अतः इसकी दस हजार प्रतियाँ पाठकों तक पहुँच चुकी हैं और पुस्तक की मांग निरन्तर बनी हुई है। अतः अब इस ग्रन्थ का द्वितीय संस्करण आवश्यक संशोधन एवं परिष्कार के साथ पाठकों की सेवा में प्रस्तुत किया जा रहा है।
प्राचीन आयुर्वेदीय दृष्टिकोण भोजन-विषयक समग्र आवश्यक जानकारी इस ग्रन्थ में गई है, अत: प्रत्येक आरोग्याभिलाषी के लिये यह ग्रन्थ विशेष रूप से पठनीय है। स्वाध्यायशील पाठको प्रस्तुत की की विपुल संख्या ने इस ग्रन्थ को अपनाया है और वे इसके अध्ययन से स्वास्थ्य-रक्षा एवं उचित आहार के प्रति जागरूक बन रहे हैं- यह हमारे लिए बहुत ही सन्तोष का विषय है।
दिनांक : 05 जनवरी 2018
आचार्य बालकृष्ण
भोजनकुतूहलम्
(भोजन-विषयक सर्वांगीण जानकारी प्रस्तुत करने वाला प्राचीन आयुर्वेदीय ग्रन्थ)
आयुर्वेद में शरीर व मन इन दोनों की चिकित्सा का विधान है, इसमें उचित दिनचर्या, ऋतुचर्या, युक्त आहार-विहार व पथ्य सेवन को शारीरिक विकारों से बचने का मुख्य उपाय बताया है। सदाचार, आस्तिकता, योगनिक्ता, जप-तप व आध्यात्मिक वृति से मानसिक रोगों की चिकित्सा का विधान किया है। इस प्रकार आयुर्वेद एक समग्र चिकित्साशास या कहना चाहिए कि समग्र जीवनदर्शन है, जो मनुष्य को स्वस्थ व प्रसन्न रखते हुए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- इस पुरुषार्थ-चतुष्टय की सिद्धि के लिए समर्थ बनाता है।
आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन है- स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणम् आतुरस्य विकारप्रशमनं च अर्थात्स्वस्थ व्यक्ति के स्वास्थ्य को बनाए रखना व रोग होने पर उसका प्रतिकार करना। इससे स्पष्ट है कि आयुर्वेद में ऐसे आहार-विहार को अधिक महत्त्व दिया है, जिससे रोग होने ही न पाए। इसके लिए हिताहार व मिताहार को स्वास्थ्य का मूल आधार बताया है- हिताशी स्यान्मिताशी स्यात् कालभोजी जितेन्द्रियः पश्यन् रोगान् बहून् कष्टान् बुद्धिमान् विषमाशनात् ।।
अर्थात् हिताहारी, मिताहारी व कालभोजी संयमी व्यक्ति रोगों से बचा रहता है। हितकर आहार की जानकारी के लिए भोज्य पदार्थों के गुणों का वर्णन आयुर्वेद में विस्तार से किया गया है। प्रस्तुत पुस्तक भोजन कुतूहल में प्राचीन आयुर्वेदीय परम्परा के अनुसार भोजन द्रव्यों का सर्वांगीण व विशद विवेचन मिलता है। इसमें ग्रन्थकार ने पुरातन आयुर्वेद- ग्रन्थों से सार संग्रह कर आहार विषयक समग्र जानकारी को एकत्र प्रस्तुत कर दिया है। इससे भोजन विषयक महत्त्वपूर्ण जानकारी मिलती है, जिससे व्यक्ति उचित आहार को अपनाकर जीवन भर रोगो से मुक्त रह सकता है।
यह ग्रन्थ मूलरूप से संस्कृत में रखा गया था। इसकी हस्तलिखित प्रतियों का अन्वेषण कर श्रद्धेय आचार्य श्रीबालकृष्ण जी ने इसे पहली बार सुगम हिन्दी भाषान्तर व सुन्दर सज्जा के साथ प्रस्तुत किया है। मेरा पाठको से अनुरोध है, इसका अध्ययन कर अवश्य लाभान्वित हो। सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामये। सभी के सुखमय आरोग्य की मंगल कामना के साथ
आपका-
स्वामी रामदेव
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