वैदिक साहित्य में जलतत्त्व और उसके प्रकार Vedic Sahitya men Jaltattva aur Uske Prakar
₹400.00
AUTHOR: | Pro. Gyan Prakash Shastri(प्रो. ज्ञान प्रकाश शास्त्री) |
SUBJECT: | वैदिक साहित्य में जलतत्त्व और उसके प्रकार | Vedic Sahitya men Jaltattva aur Uske Prakar |
CATEGORY: | Research |
PAGES: | 400 |
EDITION: | 2019 |
LANGUAGE: | Hindi |
BINDING: | Hardcover |
WEIGHT: | 284 g. |
पुस्तक परिचय
भारतीय साहित्य, विशेषरूप से प्राचीन वैदिक साहित्य में एक तथ्य विशेषरूप से अपनी ओर ध्यान आकर्षित करता है कि जहाँ अंग्रेजी आदि भाषाओं में जलवाचक पद एक या दो से अधिक नहीं मिलते हैं, वहीं वैदिक संस्कृतभाषा के प्राचीनतम कोष ‘निघण्टु’ में इनकी सङ्ख्या १०० बतायी है, और वैदिक साहित्य के अन्वेषण के आधार पर उक्तकोष में १०१ जलवाचक पदों का परिगणन किया गया है।
पञ्चमहाभूतों में से जल चतुर्थ महाभूत माना जाता है, जहाँ यह उदक जीवन के लिये उपयोगी और अनिवार्य है, वहीं समस्त प्रकार की प्रगति का यह संवाहक भी है। जिस प्रकार शरीर का ८० प्रतिशत भाग जलमय है, उसी प्रकार वैदिक साहित्य का न्यूनतम ५० प्रतिशत भाग जलतत्त्व का किसी न किसी रूप में उल्लेख करता है। पृथिवी पर रहने वाले सभी प्राणी जलचर हैं और वैदिक साहित्य भी जलतत्त्व के आसपास ही घूमता है, इन दोनों के बीच किसी घनिष्ठ सम्बन्ध होने की सम्भावना को अस्वीकार नहीं किया जा सकता।
निघण्टु में उक्त विषय को सूचीबद्ध करने का महनीय प्रयास किया गया है। निघण्टु के सम्यक् अनुशीलन से न केवल जलतत्त्व के स्वरूप का ज्ञान सम्भव है, अपितु उसके प्रकार और प्रयोग भी स्पष्ट हो जाते हैं।
प्रस्तुत ग्रन्थ में पर्यायवाची शब्दों में अर्थभिन्नता का पता लगाने के लिये त्रिविध उपायों को अङ्गीकार किया गया है, प्रथम- धातु और उससे सम्बन्धित व्युत्पत्तियों एवं निर्वचनों का आश्रय लिया गया है। द्वितीय- तुलनात्मक भाषाविज्ञान का आश्रय लेते हुए प्राचीनतम रूप और अर्थ को अन्वेषित करने का प्रयत्न किया गया है। तथा तृतीय- वैदिक उद्धरणों का अध्ययन करके यह ज्ञात करने का अध्यवसाय किया गया है कि किस विशिष्ट सन्दर्भ में उस शब्द का प्रयोग होता रहा है।
वैदिक साहित्य में जलतत्त्व और उसके प्रकार
निघण्टुकोष के प्रथम अध्याय में निघण्टुकार ने १०१ उदकवाचक नामपदों का परिगणन किया है, लेकिन ये सभी पद उदकवाचक न होकर मूलतः तरल पदार्थ के वाचक प्रतीत होते हैं। ये पद ऐसे पदार्थ का अभिधान करते हैं, जो स्वभाव से द्रवरूप है। यह निघण्टुकार की शैली है कि वह हिरण्यवाचक कहकर केवल हिरण्यवाचक पदों का परिगणन नहीं करता, प्रत्युत जितने भी अन्य धातुएँ हैं, जैसे- अयस्, लोह, चन्द्र आदि का भी उसमें परिगणन करता है।
इसी प्रकार उक्त प्रकरण में भी निघण्टुकार ने केवल जलवाचक पदों का परिगणन नहीं किया है, वरन् जिनमें जलतत्त्व समाहित है और जो तरलरूप हैं, उन सबका इस गण में उसने समाहार करने का प्रयास किया है। इस प्रकार निष्कर्ष में कह सकते हैं कि निघण्टुकार जल से तरल पदार्थ का ग्रहण करते हैं। इसलिये प्रस्तुत प्रकरण का अध्ययन करते समय उक्त तथ्य का स्मरण रखना चाहिये। अब हम यहाँ उदकवाचक गण में परिगणित पदों का क्रमशः विवेचन करने जा रहे हैं।
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