तैतिरीय उपनिषद्
Taitireeya Upanishad

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  • By :Gurudutt
  • Subject :Upanishad
  • Category :Upanishad

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Description

तैत्तिरीय उपनिषद् में तीन बल्लियाँ है । प्रथम वल्ली ‘ शीक्षा ‘ शिक्षा से सम्बन्धित है और निःसन्देह अद्वितीय है । इस वली में प्रक्षर ज्ञान से प्रारम्भ कर शिक्षा के अन्तिम लक्ष्य गृहस्थ पालन तक की शिक्षा का उल्लेख है । सबसे महत्व पूर्ण बात यह है कि इसमें प्रध्यात्म शिक्षा का भी , गुहय की दीक्षा देने से पूर्व कथन किया गया है । उच्च शिक्षा को पाँच संगतियों में विभक्त किया गया है । संगतियों का अभिप्राय है विषयों का संयोग ( Combinations ) । यह यत्न किया गया है कि इन पांच संगतियों में पूर्ण ज्ञान को बाँध दिया जाये । जहाँ तक शिक्षा का सम्बन्ध है , हम समझते हैं , सब कुछ जो इसके प्रदर्गत धाना चाहिये था गया है ।

परन्तु इसमें प्रशिक्षण ( Technology ) नहीं है । उपनिषद् प्रशिक्षण को शिक्षा के प्रतिरिक्त समझता है प्रशिक्षण ज्ञान नहीं है , प्रत्युत शरीर तथा मन को सिधाना है । मन कल्पनाएँ करने का यन्त्र है । इस कारण प्रशिक्षण में मन का प्रशिक्षण भी समझा जाता है । ठीक कल्पना करना अर्थात् अन्वेषण के लिए योजना बनाना मन का गुण है । प्रतः मन को सिधाना भी प्रशिक्षण है । इस विषय में हम केवल इतना ही कहना चाहते हैं कि इस उपनिषद् की प्रथम वल्ली वर्तमान शिक्षा की योजना बनाने वालों के अध्ययन का विषय है । जो बात हम विशेष रूप में यहाँ कहना चाहते हैं , वह यह है कि अध्यात्म विषय भी शिक्षा का ही विषय होना चाहिये ।

भारतीय शिक्षा विशेषज्ञ अध्यात्म को विद्या की पराकाष्ठा मानते थे । वर्तमान शिक्षा विशेषज्ञों के लिए यह अनुकरणीय है । तैत्तिरीय उपनिषद् की द्वितीय तथा तृतीय वल्ली के विषय में हम समझते है कि ये वल्लियाँ त्रुटिपूर्ण हैं , यद्यपि दोषपूर्ण नहीं हैं । त्रुटि से हमारा अभिप्राय है कि इनके कथन में कुछ कमियाँ रह गई हैं । यह कमियाँ प्रायः सभी उपनिषदों में प्रतीत होती हैं । हमारे मत में इसका कारण यह है कि सामान्य योग्यता के मनुष्यों को गूढ़ ज्ञान की बात बताते बताते पूर्ण श्रथवा उत्कृष्ट ज्ञान की बात नहीं कही जा सकी । बात को सरल करते – करते सीमा से अधिक सरल बना दिया गया है और ऐसा करते हुए बहुत – कुछ छोड़ना पड़ गया है।

कदाचित् तत्कालीन भाषा में शब्दों की कमी होने के कारण ऐसा हुआ है अथवा यह भी सम्भव है कि उपनिषद् सुनने वालों के आधारभूत ( basic ) ज्ञान की कमी के कारण ऐसा हो गया है । इसीका परिणाम यह हुआ है कि उपनिषदों के व्याख्याताओं तथा भाष्यकारों ने उन त्रुटियों को उपनिषद् का गुण समझ इन्हें ज्ञान – विज्ञान मान लिया है । यही हमारे विचार में अद्वैतवाद तथा नास्तिक्य के विख्यात होने का कारण है । अतः हमारा उद्देश्य यह होना चाहिये कि सभी उपनिषदों का अध्ययन करते हुए इनमें समन्वय किया जाये तथा प्रत्येक उपनिषद् के कथन की वेदज्ञान से तुलना की जाये ।

वेद शाश्वत एवं ईश्वरीय ज्ञान है तथा किसी भी शास्त्र एवं उपनिषद् की मान्यता उसके वेदानुकूल होने पर ही समझी जा सकती है । इस पर भी हम उपनिषदों को और विशेष रूप में इस ‘ तैत्तिरीय ‘ उपनिषद् को अद्वितीय ( superb ) ही मानते हैं ।

  •                                                                                                                                                                                                                                                              गुरुदत्

 

शाश्वत शाश्वत का अर्थ है सदा रहने वाला , नित्य । जो नित्य है , वह सबके लिए है । किसी जाति अथवा किसी देश – विशेष से इसका एकाकी सम्बन्ध नहीं हो सकता । हम यह मानते हैं कि ज्ञान का मूल स्रोत परमात्मा है और परमात्मा का ज्ञान वेद ज्ञान है । यह ज्ञान प्राणीमात्र के लिए है । जैसे एक वृक्ष , जिसका सम्बन्ध मूल से कट गया हो , कुछ काल तक तो हरा भरा रह सकता है , परन्तु वह शीघ्र ही सूखने और सड़ने लग जाता है , इसी प्रकार मानव – समाज भी , परमात्मा के मूल ज्ञान से विच्छिन्न हो सुख तथा सड़ रहा है । मानव – समाज मानवता – विहीन हो रहा है । इस मानव समाज को पुनः ज्ञान के उस मूल स्रोत वेद से जोड़ने का एक प्रयास ही यह शाश्वत संस्कृति परिषद् है । वेद – ज्ञान पर अगाध श्रद्धा रखते हुए , उस ज्ञान को प्राप्त करने तथा सब जनों को कराने का यह एक प्रयास विज्ञ लेखक ने किया है । विषय का इतना सरल प्रस्तुतीकरण कदाचित् ही सम्भव हो । इसके लिए हम श्री गुरुदत्तजी के अत्यन्त आभारी हैं ।

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वैद्य गुरुदत्त, एक विज्ञान के छात्र और पेशे से वैद्य होने के बाद भी उन्होंने बीसवीं शताब्दी के एक सिद्धहस्त लेखक के रूप में अपना नाम कमाया। उन्होंने लगभग दो सौ उपन्यास, संस्मरण, जीवनचरित्र आदि लिखे थे। उनकी रचनाएं भारतीय इतिहास, धर्म, दर्शन, संस्कृति, विज्ञान, राजनीति और समाजशास्त्र के क्षेत्र में अनेक उल्लेखनीय शोध-कृतियों से भी भरी हुई थीं। तथापि, इतनी विपुल साहित्य रचनाओं के बाद भी, वैद्य गुरुदत्त को न कोई साहित्यिक अलंकरण मिला और न ही उनकी साहित्यिक रचनाओं को विचार-मंथन के लिए महत्व दिया गया। कांग्रेस, जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी के कटु आलोचक होने के कारण शासन-सत्ता ने वैद्य गुरुदत्त को निरंतर घोर उपेक्षा की। छद्म धर्मनिरपेक्ष इतिहासकारों ने भी उनको इतिहासकार ही नहीं माना। फलस्वरूप, आज भी वैद्य गुरुदत्त को जानने और पढ़ने वालों की संख्या काफी कम है
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