भारतीय शिक्षा विशेषज्ञ अध्यात्म को विद्या की पराकाष्ठा मानते थे । वर्तमान शिक्षा विशेषज्ञों के लिए यह अनुकरणीय है । तैत्तिरीय उपनिषद् की द्वितीय तथा तृतीय वल्ली के विषय में हम समझते है कि ये वल्लियाँ त्रुटिपूर्ण हैं , यद्यपि दोषपूर्ण नहीं हैं । त्रुटि से हमारा अभिप्राय है कि इनके कथन में कुछ कमियाँ रह गई हैं । यह कमियाँ प्रायः सभी उपनिषदों में प्रतीत होती हैं । हमारे मत में इसका कारण यह है कि सामान्य योग्यता के मनुष्यों को गूढ़ ज्ञान की बात बताते बताते पूर्ण श्रथवा उत्कृष्ट ज्ञान की बात नहीं कही जा सकी । बात को सरल करते – करते सीमा से अधिक सरल बना दिया गया है और ऐसा करते हुए बहुत – कुछ छोड़ना पड़ गया है।
शाश्वत शाश्वत का अर्थ है सदा रहने वाला , नित्य । जो नित्य है , वह सबके लिए है । किसी जाति अथवा किसी देश – विशेष से इसका एकाकी सम्बन्ध नहीं हो सकता । हम यह मानते हैं कि ज्ञान का मूल स्रोत परमात्मा है और परमात्मा का ज्ञान वेद ज्ञान है । यह ज्ञान प्राणीमात्र के लिए है । जैसे एक वृक्ष , जिसका सम्बन्ध मूल से कट गया हो , कुछ काल तक तो हरा भरा रह सकता है , परन्तु वह शीघ्र ही सूखने और सड़ने लग जाता है , इसी प्रकार मानव – समाज भी , परमात्मा के मूल ज्ञान से विच्छिन्न हो सुख तथा सड़ रहा है । मानव – समाज मानवता – विहीन हो रहा है । इस मानव समाज को पुनः ज्ञान के उस मूल स्रोत वेद से जोड़ने का एक प्रयास ही यह शाश्वत संस्कृति परिषद् है । वेद – ज्ञान पर अगाध श्रद्धा रखते हुए , उस ज्ञान को प्राप्त करने तथा सब जनों को कराने का यह एक प्रयास विज्ञ लेखक ने किया है । विषय का इतना सरल प्रस्तुतीकरण कदाचित् ही सम्भव हो । इसके लिए हम श्री गुरुदत्तजी के अत्यन्त आभारी हैं ।
Reviews
There are no reviews yet.