प्रकाशकीय शतपथ के दशपथ (2 खंडों का सेट)
प्राचीन वैदिक साहित्य में यजुर्वेद के व्याख्यान’ शतपथ ब्राह्मण’ का स्थान बड़ा महत्त्वपूर्ण माना जाता है। यह व्याख्यान जटिल याज्ञिक प्रक्रिया पर आधृत है जिसे साधारण जनता समझने में समर्थ नहीं है। परन्तु कर्मकाण्ड के साथ-साथ उस ग्रन्थ में ऐसे तत्त्वों का उल्लेख तथा निर्देश मिलता है जो मानवजीवन के उत्त्थान के लिए परम उपयोगी है। महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में शतपथ ब्राह्मण के महत्त्व को स्वीकार किया है। स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती (पं० बुद्धदेव) ने अपनी महती तर्कणा-शक्ति के बल पर इस ग्रन्थ की हृदय-ग्राही व्याख्या आरम्भ की थी जो किन्हीं कारणों से पूरी नहीं हो सकी थी।
डॉ० वेदपाल सुनीथ युवा मेधावी विद्वान् थे। उन्होंने स्वा० समर्पणानन्द जी के सान्निध्य में शतपथ ब्राह्मण का अध्ययन मनोयोग पूर्वक किया था और स्वतः बीसियों बार इस विशाल ग्रन्थ का पारायण एवं स्वाध्याय किया था। शतपथ ब्राह्मण के प्रति उनकी अगाध भक्ति थी। वे प्रतिभावान् युवक थे और उनकी लेखनी में अद्भुत प्रवाह, ओज तथा माधुर्य था।
उन्होंने शतपथ ब्राह्मण के कुछ प्रेरक प्रसङ्गों की व्याख्या के रूप में रोचक एवं मनोरम प्रवचनों की रचना की थी जो दो खण्डों में ‘शतपथ के दश पथ’ नाम से प्राच्यविद्यानुसन्धान केन्द्र से प्रकाशित की गई थी। वह रचना आर्य जनता में अत्यन्त लोकप्रिय सिद्ध हुई। वह महत्त्वपूर्ण रचना अब दुर्लभ है, अतः ‘रेशमा देवी महादेव प्रसाद ट्रस्ट’ की ओर से उसका पुनः प्रकाशन किया जा रहा है।
मैं अपने भाईयों में कनिष्ठ हूँ। मेरे मझले ज्येष्ठ भ्राता श्री दुर्गाप्रसाद और उनकी धर्मशीला पत्नी श्रीमती नौरङ्गी देवी का वात्सल्य स्नेह मेरे ऊपर बाल्यकाल से जीवन पर्यन्त रहा था। भ्राता दुर्गाप्रसादजी धार्मिक प्रवृत्तिवाले सात्त्विक पुरुष थे। वाराणसी नगर में जब भी कोई रामायण के प्रसिद्ध कथाकार व्यास आते थे, उनके सत्सङ्ग में वे अवश्य उत्साह से सम्मिलित होते थे। घर जाने पर वे मुझे उत्तम मिष्ठान्न और वस्त्र प्रदान करके बड़े सुख-सन्तोष का अनुभव करते थे। वे यद्यपि अल्पपठित थे, तथापि लोकव्यवहार में चतुर, अनुभवी एवं संवेदनशील थे।
सायं काल के समय मुझसे तुलसी कृत रामायण सुनते थे और अर्थ सुनकर आनन्द-विभोर हो जाते थे। मातृतुल्य भाभी जी का स्नेह मुझे सदा प्राप्त होता रहा। माता के समान होने पर भी वे कभी भी उच्च या बराबर आसन पर नहीं बैठती थीं, सदा नीचे आसन पर ही बैठती थीं। अपने उन पूज्य भ्राता और उनकी धर्मपत्नी की पुण्य स्मृति को चिर अक्षुण्ण रखने के लिए मैं इस महत्त्वपूर्ण-कृति ‘शतपथ के दशपथ’ के प्रथम भाग के पुनः प्रकाशन में प्रवृत्त हुआ हूँ। आशा है आर्य जनता इससे यथेष्ठ लाभ उठाएगी।
डॉ० वेदपाल सुनीथ युवक मेधावी विद्वान् थे। उन्होंने स्वामी समर्पणानन्द सरस्वती के सान्निध्य में शतपथ ब्राह्मण का अध्ययन बड़े मनोयोग एवं परिश्रम से किया था। उन्होंने बीसियों बार इस ग्रन्थ रत्न का पारायण किया था। वे शतपथ ब्राह्मण के अनन्य भक्त थे और उसके अनेक जनोपयोगी प्रसङ्गों पर सरस प्रवचन करते थे। उनकी लेखनी में ओज प्रवाह और माधुर्य था। उन्होंने शतपथ ब्राह्मण के कुछ सन्दर्भों को लेकर ‘शतपथ के दशपथ’ नामक पुस्तक की रचना दो खण्डों की थी। वह पुस्तक आर्यजनता में बड़ी लोकप्रिय हुई। उसका प्रथम बार प्रकाशन प्राच्यविद्यानुसन्धान पीठ की ओर से हुआ था।
इस समय वह महत्त्वपूर्ण रचना दुर्लभ है। अतः उसका द्वितीय बार प्रकाशन रेशमा देवी महादेव प्रसाद ट्रस्ट की ओर से किया जा रहा है। मैं अपने छह भाईयों में सबसे छोटा हूँ। मेरे तीसरे बड़े भाई श्री भगवती प्रसाद थे जिनकी पुण्य स्मृति में ‘शतपथ के दशपथ’ नामक महत्त्वपूर्ण रचना के द्वितीय भाग का पुनः प्रकाशन किया जा रहा है। श्री भगवती प्रसाद अत्यन्त सरल स्वभाव के व्यक्ति थे, घर में व्यापार का कार्य करते थे।
द्वितीय विश्वयुद्ध के समय उन्होंने प्रचुर धन कमाया। सरल स्वभाव और उदार थे ही, जिसने धन की याचना की, मुक्तहस्त से दे दिया। उधार माँगने वालों से वापसी की माँग कभी नहीं की। फलतः जो उन्होंने द्रव्य दिया, उनके जीवनकाल में किसी ने उन्हें वापिस नहीं लौटाया। युवा अवस्था में ही उनकी पत्नी दो छोटे-छोटे बच्चों को छोड़कर स्वर्ग सिधार गई थीं। उन्होंने न तो दूसरा विवाह ही किया, न ही कभी दुःख या पश्चात्ताप का अनुभव किया। चूँकि मैं अपने सभी भाइयों में कनिष्ठ हूँ, इसलिए सभी भाईयों का स्नेह-भाजन रहा हूँ। भ्राता भगवती प्रसाद जी मेरे सादे जीवन को पसन्द नहीं करते थे।
उनकी हार्दिक इच्छा रहती थी कि मैं भी आधुनिकता के रंग में रंग जाऊँ जिसे मैंने कभी पसन्द नहीं किया। मेरे सहपाठियों को देखकर वे मुझे भी वैसे ही जीवन के लिए प्रेरित करते थे, परन्तु मैं अन्यमनस्क ही रहता था। कई बार चलचित्र देखने और मित्रों के साथ घूमने-फिरने के लिए प्रेरणा देते और रुपये-पैसे देते रहते थे। परन्तु मैं उन रुपये-पैसों का संग्रह करता रहता था और यथावसर गृह के आवश्यक कार्यों में ही उनका उपयोग करता था। ऐसे भ्राता को खोकर उनकी याद जीवनभर सताती रहेगी। ऐसे देवतुल्य भ्राता को शत-शत नमन ।
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