संस्कृतवाक्यप्रबोधः Sanskrit Vakya Prabodha
₹45.00
- By :Swami Dayanand Sarswati
- Subject :Sanskrit Sentences
- Category :Sanskrit Grammer
- Edition :N/A
- Publishing Year :N/A
- SKU# :N/A
- ISBN# :N/A
- Packing :N/A
- Pages :94
- Binding :Paperback
- Dimentions :21cm X 13cm
- Weight :100 GRMS
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भूमिका
मैंने इस ” संस्कृतवाक्यप्रबोध ” पुस्तक को बनाना अवश्य इसलिये समझा है कि शिक्षा को पढ़ के कुछ – कुछ संस्कृत भाषण का आना विद्यार्थियों को उत्साह का कारण है । जब वे व्याकरण के सन्धिविषयादि पुस्तकों को पढ़ लेंगे , तब तो उनको स्वतः ही संस्कृत बोलने का बोध हो जायगा , परन्तु यह जो संस्कृत बोलने का अभ्यास प्रथम किया जाता है , वह भी आगे – आगे संस्कृत पढ़ने में बहुत सहाय करेगा ।
जो कोई व्याकरणादि ग्रन्थ पढ़े विना भी संस्कृत बोलने में उत्साह करते हैं , वे भी इसको पढ़के व्यवहारसम्बन्धी संस्कृत भाषा को बोल और दूसरे का सुनके भी कुछ – कुछ समझ सकेंगे । जब बाल्यावस्था से संस्कृत बोलने का अभ्यास होगा तो उसको आगे – आगे संस्कृत बोलने का अभ्यास अधिक अधिक ही होता जायगा । और जब बालक भी आपस में संस्कृत भाषण करेंगे तो उनको देख कर जवान और वृद्ध मनुष्य भी संस्कृत बोलने में रुचि अवश्य करेंगे । जहां कहीं संस्कृत के नहीं जानने वाले मनुष्यों सामने दूसरे को अपना गुप्त अभिप्राय समझाना चाहें तो वहां भी संस्कृत भाषण काम आता है ।
जब इसके पढ़ाने वाले विद्यार्थियों को ग्रन्थस्थ वाक्यों को पढ़ावें उस समय दूसरे वैसे ही नवीन वाक्य बना कर सुनाते जावें , जिससे पढ़ने वालों की बुद्धि बाहर के वाक्यों में भी फैल जाय । और पढ़ने वाले भी एक वाक्य को पढ़के उसके सदृश अन्य वाक्यों की रचना भी करें कि जिससे बहुत शीघ्र बोध हो जाय , परन्तु वाक्य के बोलने में स्पष्ट अक्षर , शुद्धोच्चारण , सार्थकता , देश और काल वस्तु के अनुकूल जो पद जहां बोलना उचित हो वहीं बोलना और दूसरे के वाक्यों पर ध्यान देकर सुनके समझना ।
प्रसन्नमुख , धैर्य , निरभिमान और गम्भीरतादि गुणों को धारण करके क्रोध , चपलता , अभिमान और तुच्छतादि दोषों से दूर रहकर अपने वा किसी के सत्य वाक्य का खण्डन और अपने अथवा किसी के असत्य का मण्डन कभी न करें और सर्वदा सत्य का ग्रहण करते रहें । इस ग्रन्थ में संस्कृत वाक्य प्रथम और उसके सामने भाषार्थ इसलिये लिखा है कि पढ़ने वालों को सुगमता हो और संस्कृत की भाषा और भाषा का संस्कृत भी यथायोग्य बना सकें ।
दयानन्द सरस्वती
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