सम्पादकीय
विश्व इतिहास साक्षी है कि समय-समय पर आने वाले महापुरुषों ने मानवता का पथ प्रशस्त किया है। प्रायः इन सभी महापुरुषों के कर्मक्षेत्र भिन्न-भिन्न रहे हैं। अधिकतर महापुरुषों का कर्मक्षेत्र जीवन के किसी एक पक्ष को लेकर उसके सुधार का रहा है। जैसे- राजा राममोहन राय ने सतीप्रथा, महात्मा ज्योतिबा फुले ने तत्कालीन समाजं द्वारा उपेक्षित दलितवर्ग के शिक्षा, कार्लमार्क्स द्वारा श्रमिक वर्ग का हित संरक्षण आदि।
उक्त सृदश अनेक महापुरुषों के उन्नीसवीं सदी में होने के कारण इसे पुनर्जागरण काल कहा जाता है। उन्नीसवीं सदी में ही महर्षि दयानन्द का आगमन हुआ। यद्यपि महापुरुषों की तुलना यहाँ अपेक्षित नहीं है, पुनरपि समकालीन महापुरुषों की अपेक्षा महर्षि दयानन्द ने मनुष्य जीवन के विविध पक्षों को प्रभावित किया है। सामाजिक, धार्मिक एवं राजनैतिक कोई पक्ष ऐसा नहीं है, जिस पर महर्षि ने अपने विचार व्यक्त न किये हों। महर्षि की रचनाओं में उनके चिन्तन की व्यपकता पदे पदे परिलक्षित होती है।
महर्षि का अपने समकालीन धर्माचार्यों, समाजसुधारकों, राजा-महाराजाओं के साथ ही साधारण जिज्ञासुओं तथा प्रत्येक वर्ग के सामान्य जन के साथ पत्र-व्यवहार हुआ है। साथ ही महर्षि ने समय व स्थान की दृष्टि से अपने मन्तव्यों के प्रकटीकरण तथा प्रतिपक्षी मतों के खण्डन में अनेक विज्ञापन भी प्रकाशित करवाये थे। पण्डित लेखराम आर्य मुसाफिर द्वारा सर्वप्रथम महर्षि जीवन चरित की सामग्री संकलन के समय संगृहीत इन पत्रों का जीवन चरित लेखन में उपयोग किया गया था।
महात्मा मुंशीराम (स्वामी श्रद्धानन्द) ने इस पत्रव्यवहार का पृथक् ग्रन्थ रूप में सन् १९१० ई० में सम्पादन / प्रकाशन किया। इसे हिन्दी साहित्य के विख्यात समालोचक डॉ० नगेन्द्र ने हिन्दी साहित्य में पहला प्रकाशित पत्र संग्रह कहा है। इसके पश्चात् पं० चमूपति, पं० भगवद्दत्त तथा पं० युधिष्ठिर मीमांसक ने इन तथा समय-समय पर उपलब्ध नवीन पत्रों का समायोजन करते हुए सम्पादन किया है।
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