दीक्षालोक
Dikshaloka

800.00

AUTHOR: Dr. Vishnudutt Rakesh (डॉ. विष्णुदत्त राकेश)
SUBJECT: दीक्षालोक | Dikshaloka
CATEGORY: Vedic Dharma
PAGES: 708
EDITION: 2012
LANGUAGE: Hindi
BINDING: Hardcover
WEIGHT: 1340 g.
Description

कुलपुत्रों को उपदेश

स्वामी श्रद्धानंद

पुत्रो ! आज मुझे इतनी प्रसन्नता है कि तुम उसका अनुभव नहीं कर सकते। मुझे अपने जीवन में जिस बात के देखने की आशा नहीं थी, उसे मैंने देख लिया। यदि आज मेरे प्राण भी चलने को तैयार हों तो मैं बड़ी खुशी से उन्हें आज्ञा दे सकता हूँ। इस आनंद का कारण मैं बताना निरर्थक समझता हूँ, तुममें से प्रत्येक उसे अनुभव कर रहा है। लोग समझा करते थे कि हम दिमागों को परतंत्र बनाना चाहते हैं, परंतु अब लोग देख रहे हैं कि यदि कोई ऐसा स्थान है जहाँ स्वतंत्रता नहीं रुक सकती तो वह यही स्थान है।

मेरा अपने ब्रह्मचारियों को केवल एक ही उपदेश है; मत देखो कि लोग तुम्हें क्या कहते हैं, सत्य की दृढ़ता को पकड़ो।

सारे संसार का सत्य ही आधार है। यदि तुम्हारा मन, वचन और कर्म सत्यमय है, तो समझो कि तुम्हारा उद्देश्य पूरा हो गया। प्रसिद्धि के पीछे भागकर कोई काम मत करो। प्रसिद्धि के पीछे भागने से किसी की प्रसिद्धि नहीं हुई। अपने सामने एक उद्देश्य रख लो, उसी में लग जाओ, फिर गिरावट असंभव है। उपदेशक बनो या मत बनो. पर एक बात याद रखो, बनावटी मत बनो। सबको परमात्मा वाणी की शक्ति या उपदेश देने की शक्ति नहीं देता। वाणी न हो न सही, किंतु आचरण सत्यमय हो। नट न बनो, न इस संसार को नाट्यशाला बनाओ। स्वच्छ जीवन रक्खो। यति इस प्रकार का स्नातकों का आचरण होगा तो मेरा पूरा संतोष है।

[सन् 1913]

 

कुलपिता का उपदेश

स्वामी श्रद्धानंद

पुत्रो ! आज मैं तुम्हें उन बंधनों से मुक्त करता हूँ, जिनके अनुसार गुरुकुल में चलना तुम्हारे लिए आवश्यक था। पर यह न समझना कि अब तुम्हारे लिए कोई बघन नहीं है। प्राचीन काल से हमारे ऋषियों ने कुछ बंधन बाँध रक्खे हैं, उन्हें मैं आज तुम्हें सुनाना चाहता हूँ। इन बंधनों के पालन करने में किसी का तुम पर दबाव नहीं, इसीलिए ये बंधन और भी कड़े हैं। ये बंधन उन उपनिषद् वाक्यों में वर्णित हैं, जिन्हें आज से हजारों वर्ष पहले इस पवित्र भूमि में प्रत्येक आचार्य अपने स्नातकों को विद्या-समाप्ति के समय सुनाया करता था। उन्हीं पुराने आचार्यों का

प्रतिनिधि होकर मैं तुम्हें वे वाक्य सुनाता हूँ। पुत्रो ! परमात्मा सत्यस्वरूप है। उसके प्यारे बनने के लिए अपने जीवन को सत्यस्वरूप बनाओ। तुम्हारे मन में, तुम्हारी वाणी में, और तुम्हारी क्रिया में सत्य हो।

धर्म-मर्यादा का उल्लंघन मत करो। इस मर्यादा का साक्षी अंतःकरण ही है, बाहर से कोई धर्म बतलानेवाला नहीं है। जो हृदय परमात्मा का आसन है, वही तुम्हें धर्म की मर्यादा बतला देगा। अपने आत्मा की वाणी को सुनो और उसके अनुसार चलो।

स्वाध्याय से कभी मुख न मोड़ो। वह तुम्हें प्रमाद से बचाएगा।

जिस आचार्य ने तुम्हारी इतने दिनों तक रक्षा की, उसके प्रति तुम्हारा जो कर्तव्य है, उसे अपने हृदय से पूछो। यह कुल तुम्हारा आचार्य है। मैं नहीं जानता कि तुम इसे क्या दक्षिणा देना चाहते हो। मैं तुमसे केवल एक ही दक्षिणा माँगता हूँ। मैं चाहता हूँ कि तुम्हारा ऐसा कोई काम न हो. जिससे तुम्हें अपने आत्मा और परमात्मा के सामने लज्जित होना पड़े।

तुममें से अब कई गृहस्थ में प्रवेश करेंगे। उनसे मैं कहता हूँ कि पाँचों यज्ञों के करने में कभी प्रमाद न करना। माता-पिता, आचार्य और अतिथि, ये तुम्हारे देवता हैं, इनकी सदा शुश्रूषा करना धर्म समझो ।

पुराने ऋषि बड़े उदार और निरभिमान थे। वे कभी पूर्ण या दोषरहित होने का दावा नहीं करते थे। उन्हीं का प्रतिनिधि होकर मैं तुम्हें कहता हूँ कि हमारे अच्छे गुणों का अनुकरण करो, और दोषों को छोड़ दो। इस संसार की अँधियारी में किसी को अपना ज्योति-स्तम्भ बनाओ। पढ़ा-पढ़ाया कुछ अंश तक पथ-दर्शक होता है, पर सच्चे पथ-दर्शक वे ही महापुरुष होते हैं, जो अपना नाम संसार में छोड़ जाते हैं। वे जीवन-समुद्र में ज्योतिः स्तंभ का काम देते हैं। ऐसे आत्मत्यागी-सत्यवादी और पक्षपातरहित महापुरुषों के, चाहे वे जीवित हों या ऐतिहासिक, पीछे चलो।

लेना तो सभी संसार जानता है, तुम इस योग्य हुए हो कि अपनी बुद्धि और विद्या में से कुछ दे सको। जो तुम्हारे पास है, उसे उदारता से फैलाओ। हाथ खुला रक्खो, मुट्ठी को बंद न होने दो। जो सरोवर भरता है वह फैलाता है, यह स्वाभाविक नियम है।

जिस भूमि की मिट्टी से तुम्हारा देह बना है, जिसकी गंगा का तुमने निर्मल जल पिया है, और जिसके गौरव के सामने संसार का कोई देश ठहर नहीं सकता, उस पवित्र भारत-भूमि में रहते हुए तुम उसके यश को उज्ज्वल करोगे, यह मुझे पूरी आशा है। इसके साथ ही जिस सरस्वती की कोख से तुमने दूसरा जन्म लिया है. उसे मत भूलना। किसी भी काम को करते हुए सावित्री माता की उपासना से विमुख न होना।

यह मैंने संक्षेप से उन वाक्यों का सारांश सुना दिया है, जो कि सहस्रों वर्षों से इस पवित्र भूमि में गूँजते रहे हैं। इन्हें गुरु-मंत्र समझो और अपना पथ-दर्शक बनाओ।

इसके अतिरिक्त मेरा भी तुम्हारे साथ कई वर्षों का संबंध रहा है। मैं तुमसे गुरुदक्षिणा नहीं माँगता। गुरु-दक्षिणा देना तुम्हारा धर्म है, माँगना मेरा धर्म नहीं। मैं तुमसे यह भी नहीं पूछता कि तुम्हारे राजनैतिक, सामाजिक या मानसिक विचार क्या-क्या हैं। मैं केवल तुमसे यही पूछता हूँ कि क्या तुम्हारे सब काम सत्य पर आश्रित हैं, या नहीं। स्मरण रक्खो, यह संसार सत्य पर आश्रित है। सत्य के बिना राजनीति धिक्कारने योग्य है, सत्य के बिना समाज के नियम पददलित करने योग्य हैं। यदि सत्य तुम्हारे जीवन का अवलंबन है तो मुझे न कोई चिंता है और नाहीं कुछ माँगना है।

[सन् 1914]

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