धर्म और विज्ञान
Dharma Aur Vigyan

80.00

ITEM CODE: NZN951
AUTHOR: DR. SUGRIV BALIRAM KALE
PUBLISHER: VIJAY KUMAR GOVINDRAM HASANAND
LANGUAGE: HINDI
EDITION: 2018
PAGES: 128
COVER: PAPERBACK
OTHER DETAILS 8.50 X 5.50 INCH
WEIGHT 150 GM
Description

आज मानवी जीवन विफलता से ग्रस्त हुआ है । अगणित सम्पदा प्राप्त करने पर भी मानव शाश्वत सुख – शान्ति से वंचित रहा है । साक्षर सुशिक्षित , सभ्य और सुसंस्कृत माने जाने वाले लोग भी यथार्थ ज्ञान के अभाव में व्यर्थ ही भ्रमित हो रहे हैं । ‘धर्म’ और ‘विज्ञान’ इन दो अवधारणाओं के कारण सारे विश्व में भयानक वाद छिड़ गया है

धर्म का सत्य – स्वरूप और विज्ञान की यथार्थता अवगत न होने के कारण मानव – समाज बहुत बड़े दुःख को भुगत रहा है ।

एक ओर तथाकथित धार्मिक लोगों ने धर्म – तत्त्व को अन्धविश्वास में जकड़ दिया है और विज्ञान के सत्य को नकारा है तो दूसरी ओर आधुनिक विज्ञान – वेत्ताओं ने धर्म एवम् अध्यात्म जैसे तत्त्वों को नकारा है । यहीं पर सही मायने में गफलत हुई है ।

‘धर्म’ और ‘विज्ञान’ ये दोनों तत्त्व वास्तव में परस्पर पूरक हैं ।

धर्म के अभाव में विज्ञान एवं विज्ञान के अभाव में धर्म ही ‘ अज्ञान ‘ एवम् ‘ अविद्या है

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने इन दोनों तत्त्वों का सुसंगत समन्वय करके विश्व को मानवता की शिक्षा दी है ।

उन्होंने धर्म के क्षेत्रों में चल रहे गड़बड़ घोटाले को अपने सत्य वैदिक दर्शन के आधार पर रोका है ।

मेरे परम शिष्य श्री डॉ० सुग्रीव बळीराम काळे जी ( ब्रह्ममुनि ) ने दोनों अवधारणाओं का मार्मिक विवेचन ‘धर्म और विज्ञान’ इस पुस्तक में इन किया है ।

सृष्टि में जो गूढ़ विज्ञान छिपा है , उसी का प्रतिपादन वेदादि शास्त्रों ने किया है । यह सत्य इस पुस्तक में दर्शाया गया है । ईश्वर , जीवात्मा , मन , बुद्धि , इन्द्रिय आदि का व्यापक स्वरूप एवं जड़ और चेतन तत्त्वों का विस्तार पूर्वक विवेचन इस पुस्तक में हुआ है । ‘आत्मकल्याण’ ही धर्म है , एतदर्थ हमें प्राप्त संसाधनों का प्रयोग सद् – असद् विवेक बुद्धि से करना चाहिए

वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही सृष्टि के विभिन्न मूलतत्त्वों की एवम् अध्यात्म की मीमांसा करनी चाहिए ।

सदैव विवेक को जाग्रत रख कर सत्य को जानने और उसका अनुभव करने पर निश्चित रूप से शाश्वत सुख प्राप्त होगा ।

इसलिए साधन रूप प्रकृति , साधक – रूप जीवात्मा एवं साध्य – रूप ईश्वर इन तीनों का ज्ञान आत्मसात् करने की अत्यधिक आवश्यकता है ।

डॉ० काले जी ने इन सभी के सन्दर्भ में सानुभव विवेचन इस पुस्तक में किया है ।

इस पुस्तक के पठन से ‘धर्म’ और ‘विज्ञान’ इन दोनों के सम्बन्ध में बहुत – सी गलत कहानियां दूर होकर सत्यार्थ की जानकारी प्राप्त होगी तथा मानव – जीवन को सम्पूर्ण रीति से विकसित होने में सहायता होग  पुस्तक लिखने के अथक परिश्रम के लिए मैं लेखक डॉ० सु० ब० काले जी को अन्तःकरणपूर्वक आशीर्वाद देता हूं ।

आर्यसमाज के संगठन एवं प्रचार कार्य के साथ ही आप अपनी लेखनी के माध्यम से नई दिशा देंगे यही आशा है ।

यह अमूल्य पुस्तक भविष्य की पीढ़ियों को मार्गदर्शन कराये , ऐसी कामना है

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