धनुर्वेद
Dhanurveda

600.00

AUTHOR: Swami Devvrat Sarswati
SUBJECT: धनुर्वेद | Dhanurveda
CATEGORY: Upveda
LANGUAGE: Sanaskrit – Hindi
EDITION: 2020
PAGES: 336
PACKING: Hard Cover
WEIGHT: 1060 GRMS

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Description

द्वितीय संस्करण

धनुर्वेद के प्रथम संस्करण को समाप्त हुये अनेक वर्ष हो गये। इस की निरन्तर बढ़ती हुई लोकप्रियता को देखते हुये यह द्वितीय संस्करण नवीन-साजसज्जा के साथ सुन्दर कागज और रंगीन चित्रों सहित राज संस्करण के रूप में प्रकाशित किया जा रहा है। इस संस्करण में प्राचीन युद्ध विद्या और हरिहर चतुरंग से भी आवश्यक प्रकरण लिये गये हैं।

कुछ आवश्यक परिवर्तन और परिवर्धन भी किये गये हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र एवं अग्निपुराणोक्त व्यूह रचना तथा प्रतिव्यूहों को भी चित्रों के माध्यम से सुस्पष्ट किया गया है। धनुर्वेद का विषय इतना विस्तृत है कि इसके विभिन्न अंगों पर शोध होना चाहिये।

कुछ विद्वानों ने प्रथम संस्करण को आधार मानकर शोध प्रबन्ध लिखे भी हैं। चतुरंगिणी सेना व्यूहों में सेना को खड़ा करना, सैनिकों की संख्या, दुर्ग निर्माण, रथ, हाथी, अश्व, पताकादि, कूट युद्ध इत्यादि अनेक अनसुलझे प्रश्न हैं जिन पर शोध करने की महती आवश्यकता है। युक्ति कल्पतरु में खड्ग निर्माण के लिये एक सौ लौह की प्रजातियाँ वर्णित की गई हैं और तत् सम्बन्धी अनेक लौहशास्त्रों का उल्लेख किया है।

इसी भाँति महर्षि भारद्वाज कृत यन्त्र सर्वस्व के वैमानिक प्रकरण में शत्रु विमानों द्वारा आक्रमण किये जाने पर उन्हें ध्वनि तरंगों से उलट देना। अन्धकार का सृजन कर अदृश्य हो जाना, शत्रु द्वारा भूमि में दबाये विस्फोटकों को दम्भोलि वज्र से निष्क्रिय कर देना आदि बहुत से विषय अनुसन्धान की अपेक्षा रखते हैं।

यह अत्यन्त हर्ष का विषय है कि समादरणीय स्वामी रामदेव जी एवं आचार्य बालकृष्ण जी, पतंजलि योगपीठ हरिद्वार ने इस संस्करण को दिव्य प्रकाशन की ओर से प्रकाशित करने का दायित्व सहर्ष स्वीकार किया है। मैं इनका हार्दिक धन्यवाद करता हूँ।

इस संस्करण के अक्षर संयोजन में श्री रवीन्द्र शर्मा फरीदाबाद, चित्रांकन में श्री सोमव्रत आर्य तथा मुद्रण में श्री विनय शर्मा ने जिस आत्मीयता से योगदान किया है. इसके लिये उनका भूरिशः धन्यवाद। मुझे विश्वास है कि यह परिवर्धित संस्करण, जिसमें विषय को स्पष्ट करने के लिये बहुत सारे चित्र भी दिये गये हैं, प्राचीन भारत के गौरव की अभिवृद्धि करने में बहुत ही सहयोगी सिद्ध होगा।

– स्वामी देवव्रत सरस्वती

भूमिका

युद्ध करने एवं लड़ने की प्रवृत्ति प्राणियों में अनादिकाल से ही चली आ रही है। देशकाल एवं परिस्थिति के अनुसार इसका विकास या द्वास होता रहा है। मनुष्येतर प्राणियों में यह प्रवृत्ति नख-दन्त और अन्य उपायों द्वारा अपनी रक्षा करने या उदरपूर्ति तक ही सोमित है, परन्तु मनुष्य प्रहार के इन साधनों से विहीन है।

उसने अपने बुद्धि-कौशल से विविध शस्त्रास्त्रों का आविष्कार करके न केवल हिंस्रपाणियों से अपनी सुरक्षा की, अपितु विश्व के समस्त जीव-जन्तु तथा अन्य साधनों पर अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। शस्त्रास्त्र एवं युद्ध सम्बन्धी ज्ञान-विज्ञान का कथन करनेवाले शास्त्र को धनुर्वेद कहा गया है।’

ऋषियों ने सृष्टि के आदि में व्यवहार के लिये सभी वस्तुओं के नाम एवं कर्त्तव्य कमों का निर्धारण वेद से ही किया। संसार के उपलब्ध साहित्य में वेद सबसे प्राचीनतम हैं। इनका ज्ञान चार ऋपियों के हृदय में परम पिता परमात्मा की प्रेरणा से हुआ। इन चारों वेदों के चार उपवेद हैं।

ऋग्वेद का उपवेद आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गान्धर्ववेद और अथर्ववेद का अर्थवेद (शिल्पशास्त्र) सुप्रसिद्ध है। इन उपवेदों में आयुर्वेद के ग्रन्थ चरक, सुश्रुत् प्रभृति, गान्धर्ववेद के भरतनाट्यं इत्यादि और अर्थवेद के मादि द्वारा विरचित शिल्पशास्त्र के ग्रन्थ अश्वशास्त्र, सूपशास्त्र, चौसठ कला इत्यादि के ग्रन्थ अब भी किसी-न-किसी रूप में उपलब्ध है, परन्तु धनुर्वेद-सम्बन्धी मूलग्रन्थ उपलब्ध नहीं है।

यद्यपि विश्वामित्र, जामदग्न्य, शिव, वशिष्ठादि के नामों से युक्त धनुर्वेद की छोटी पुस्तकें मिलती है, परन्तु इनको मूलग्रन्थ स्वीकार करना बहुत हो कठिन है। स्वामी दयानन्द जी ने महर्षि अद्भिराकृत धनुर्वेद का उल्लेख किया है।’

आचार्य द्विजेन्द्रनाथ शास्त्री ने द्रोणाचार्य द्वारा निर्मित ‘धनुष्प्रदीप’ नामक ग्रन्थ का वर्णन किया है जिसमें मात सहस्र श्लोक थे। इसी भाँति वोरवर परशुरामजी द्वारा प्रणीत साठ सहस्र श्लोकवाला धनुश्चन्द्रोदय नामक ग्रन्थ भी विद्यमान था, ऐसी उनकी मान्यता है।

परन्तु इन ग्रन्थों का कहीं अन्यत्र उल्लेख नहीं मिलता। जामदग्न्य धनुर्वेद के नाम से कुछ श्लोकों का सङ्कलन अवश्य उपलब्ध है।

महर्षि वैशम्पायनकृत नीतिप्रकाशिका में धनुर्वेद का आदि प्रवक्ता ब्रह्मा को माना है, जिसने एक लाख अध्यायोंवाले धनुर्वेद का उपदेश वेन-पुत्र महाराज पृथु को दिया।’ इसी का संक्षेप करके रुद्र ने पचास हजार, इन्द्र न बारह, प्राचेतम ने छह और बृहस्पति ने तीन हजार अध्यायों से युक्त धनुर्वेद का प्रवचन किया।

शुक्राचार्य ने उसे और संक्षिप्त करक एक सहस्र अध्यायांवाले नीतिशास्त्र (शुक्रनीति) का निर्माण किया। भारद्वाज मुनि ने सात सी. गीरशिरा ने पाँच मी, महर्षि वेदव्यास ने उसे भी संक्षिप्त करके तीन सौ अध्यायवाले नीतिशास्त्र को बनाया।

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