भारतीय संस्कृति का प्रवाह
Bhartiya Sanskriti Ka Pravah

175.00

AUTHOR: Pandit Indra Vidyavachaspati
SUBJECT: Bhartiya Sanskriti Ka Pravah
CATEGORY: History
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2019
PAGES: 254
BINDING: Paperback
WEIGHT: 275 GRMS

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Description

प्रस्तावना

उर्दू के महाकवि इकबाल ने अपनी ‘सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा’ वाली कविता में कहा था-

यूनानो मिस्रो रोमां सब मिट गये जहाँ से,

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी

सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमां हमारा।।

यद्यपि सदियों से काल चक्र हमारा शत्रु रहा है, तो भी हमारी हस्ती नहीं मिटी, इसकी तह में भी कोई बात है। वह बात क्या है? मैंने इस पुस्तक में इस प्रश्न का उत्तर देने का यत्न किया है। भारत का भूगोल उसका शरीर है-वह परवश होता रहा है परंतु संस्कृति उसकी अन्तरात्मा है-वह आघात पर आघात पाकर भी बची रही है। यही कारण है कि हम काल की चोटों को निरन्तर सहकर भी बने हुए हैं।

यूनान आज भी है परन्तु जो यूनान यूरोप का मुकुट मणि था. वह कभी का समाप्त हो चुका। रोम का नाम अब भी विद्यमान है, परन्तु सप्तद्वीपा वसुमती का भाग्यविधाता रोम कभी का काल की गाल में विलीन हो गया। यही पुराने मिस्र की भी दशा हुई।

वह मिस्र जो कभी अफ्रीका की सभ्यता और राज्य शक्ति का केन्द्र था केवल उन पिरामिडों के रूप में अवशिष्ट है, जो पुरातत्वान्वेषकों के अनुसंधान की सामग्री मात्र रह गये हैं। परन्तु भारत युग-युगान्तरों के परिवर्तनों, क्रान्तियों और तूफानों में से निकलकर ‘आज भी उसी संस्कृति का वेष धारण किये विरोधी शक्तियों की चुनौतियों का करारा उत्तर दे रहा है।

इसका मुख्य कारण यह है कि भारत की संस्कृति का प्रवाह अपनी मुख्य नदी गंगा के प्रवाह की भाँति अक्षुण्ण रहा है। दायें-बायें से जो नदी-नाले आये वे गंगा में विलीन हो गये। उन्होंने गंगा जल के रंग पर कुछ अस्थायी प्रभाव तो डाला, परन्तु न तो वे उसके स्वरूप में परिवर्तन कर सके और न प्रवाह को बदल सके। इस्लाम और ईसाइयत के झोंकों ने थोड़ी देर तक उसके सिर को झुकाया तो सही

परन्तु जहाँ उन झोंकों का जोर कम हुआ कि भारतीय संस्कृति का सिर फिर आकाश में उठा हुआ दिखाई देने लगा।

इस पुस्तक भारतीय संस्कृति का प्रवाह में मैंने भारत की संस्कृति के अब तक के जीवन की गाथा सुनाने का यत्न किया है। यदि व्यतीत का अनुभव भविष्य का सूचक हो सकता है तो हमें आशा रखनी चाहिए कि भविष्य में पश्चिम और पूर्व से जिन अंधड़ों के आने की आशंकायें हैं वे भी हमारी संस्कृति की हस्ती को न मिटा सकेंगे। शुभमस्तु।

-इन्द्र विद्यावाचस्पति

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