लेखक का नाम – पुरुषोत्तम नागेश ओक
भारत पर विगत एक हजार वर्ष से अधिक समय तक विदेशियों के निरन्तर शासन ने भारतीय इतिहास ग्रन्थों में अति पवित्र विचारों के रूप में अनेकानेक भयंकर धारणाओं को समाविष्ट कर दिया है।
अनेक शताब्दियों तक सरकारी मान्यता तथा संरक्षण में पुष्ट होते रहने के कारण, समय व्यतीत होने के साथ – साथ, इन भ्रम – जनित धारणाओं को आधिकारिकता की मोहर लग चुकी है।
यदि इतिहास से हमारा अर्थ किसी देश के तथ्यात्मक एवं तिथिक्रमागत सही – सही भूतकालिक वर्णन से हो, तो हमें वर्तमान समय में प्रचलित भारतीय इतिहास को काल्पनिक अरेबियन कहानियों की श्रेणी में रखना होगा।
ऐसे इतिहास का तिरस्कार और पुनर्लेखन होना चाहिए। इस पुस्तक में लेखक ने भारतीय इतिहास – परिशोध की कुछ भयंकर भूलों की ओर इंगित किया है।
जो भूलें यहाँ सूची में आ गयी हैं, केवल वे ही अन्तिम रूप में भूलें नहीं हैं। भारतीय और विश्व इतिहास पर पुनः दृष्टि डालने एवं प्राचीन मान्यताओं का प्रभाव अपने ऊपर न होने देने वाले विद्वानों के लिए अन्वेषण का कितना विशाल क्षेत्र उनकी बाट जोह रहा है, केवल यह दिखाने के लिए ये तो कुछ उदाहरण मात्र हैं।
संक्रामक विष की भाँति भारतीय इतिहास परिशोध की भयंकर भूलों ने अन्य क्षेत्रों में विष – प्रसार किया है। उदाहरण के लिए, वास्तुकला और सिविल इंजीनियरी के छात्रों को बताया जाता है कि वे विश्वास करें कि भारत तथा पश्चिमी एशिया – स्थित मध्यकालीन स्मारक जिहादी वास्तुकला की सृष्टि हैं
यद्यपि आगामी पृष्ठों में स्पष्ट प्रदर्शित किया गया है कि तथ्य रूप में भारतीय जिहादी वास्तुकला का सिद्धान्त केवल एक भ्रम – मात्र है। समस्त मध्यकालीन स्मारक मुस्लिम – पूर्वकाल के राजपूती स्मारक हैं, जिनका श्रेय असत्य में मुस्लिम शासकों को दे दिया गया है।
इसी प्रकार, पश्चिमी एशिया – स्थित स्मारकों के रूपांकनकार और निर्माता भी भारतीय वास्तुकला विशारद और शिल्पकार थे, क्योंकि इन लोगों को आक्रमणकारी लोग तलवार का भय दिखाकर भारतीय सीमाओं से दूर अपनी भूमि पर बलात् ले गये थे।
इस तथाकथित भारतीय जिहादी वास्तुकला के सिद्धान्त के अनेक दुर्बल पक्षों में सभी मध्यकालीन स्मारकों में चरमसीमा तक हिन्दू लक्षणों का विद्यमान होना है।
इसको नियुक्त किये गये हिन्दू कलाकारों की अभिरूचि का परिणाम कहकर स्पष्टीकरण दिया जाता है। इस तर्क में अनेक त्रुटियाँ हैं। सर्वप्रथम उग्र मुस्लिम वर्णनों में उनके स्मारकों के बनाने का श्रेय हिन्दू कारीगरों को भी नहीं दिया गया है। उदाहरण के लिए, ताजमहल के मामले में वे इसका रूपांकन श्रेय किसी विचित्र ईसा अफन्दी को देते है।
यदि वे किसी रूपांकन का श्रेय हिन्दू को दें भी, तो भी मध्यकालीन नृशंसता एवं धर्मान्धता के उन दिनों में कोई भी मुस्लिम इस बात को सहन नहीं कर सकता था कि हिन्दू कलाकार किसी भी मस्जिद या मकबरे में काफिरों के लक्षणों के समाविष्ट कर दे। इस प्रकार यह तर्क भी निरर्थक हो जाता है।
हमें बताया जाता है कि पुरानी दिल्ली की स्थापना 15 वीं शताब्दी में बादशाह शहाजहाँ द्वारा हुई थी। यदि यह बात सत्य होगी, तो गुणवाचक पुरानी संज्ञा न्याय कैसे है? इस प्रकार तो यह भारत में दिल्ली में ब्रिटिश – शासन से पूर्व नवीनतम दिल्ली ही सिद्ध होती है। इसीलिए, यह तो कालगणना की दृष्टि से लन्दन और न्यूयार्क की श्रेणी में आती है।
दिल्ली में एक पुराना किला अर्थात् प्राचीन दुर्ग नामक स्मारक है। यह मुस्लिम – पूर्व काल का तथा उससे भी पूर्व महाभारत – कालीन विश्वास किया जाता है।
अतः यदि पुराना किला प्राचीनतम दुर्ग का द्योतक है, तो पुरानी दिल्ली लगभग आधुनिक नगरी किसा प्रकार हुई। प्रचलित ऐतिहासिक पुस्तकों में समाविष्ट और उनको भ्रष्ट करने वाली ऐसी ही असंख्य युक्तिहीन बातें हैं जिन पर पुनर्विचार करने की अत्यन्त आवश्यकता है।
तथ्यों को तोड़ – मरोड़कर और असंगतियों के अतिरिक्त भारतीय इतिहास को बुरी तरह से विकलांग कर दिया है। इसके महत्त्वपूर्ण अध्यायों में से अनेक अध्याय पूर्ण रूप से लुप्त हो गये हैं।
प्रस्तुत पुस्तक में भारत के सत्य इतिहास को प्रदर्शित करने का प्रयास किया गया है। इसमें भारतवर्ष के विशाल साम्राज्य – प्रभुत्व के चिह्न इस पुस्तक के कुछ अध्यायों में प्रकट किये गये हैं।
आशा है कि प्रस्तुत पुस्तक भारतीय इतिहास परिशोध में प्रविष्ट कुछ भयंकर त्रुटियों को सम्मुख लाने में सहायक होगी तथा अन्वेषण का मार्ग प्रशस्त करेगी।
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