भूमिका
धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप पुरुषार्थ चतुष्टय का आधार स्वस्थ शरीर ही है। व्यक्ति के यश एवं जीवन को हरनेवाले तथा मनुष्यों की जीवनयात्रा में विघ्नकारक विविध रोगरूप अन्तराय प्रकट हुए हैं।’ योगदर्शन में भी चित्त को विक्षिप्त करनेवाले अन्तरायों में सर्वप्रथम व्याधि को ही कहा है। आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ सुश्रुत में स्वस्थ व्यक्ति की बहुत ही सुन्दर परिभाषा की है-
समदोष: समाग्निश्च समधातुमलक्रियः ।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते ॥
जिनके तीनों दोष-वात, पित्त और कफ सम हों, जठराग्नि न तीक्ष्ण न मन्द, शरीर को धारण करनेवाले सात धातु-रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य सम अनुपात में हों, मल-मूत्र की सम्यक् प्रवृत्ति तथा दश इन्द्रियाँ, मन एवं इनका स्वामी आत्मा भी प्रसन्न हो तो ऐसे व्यक्ति को स्वस्थ कहा जाता है। स्वास्थ्य की ऐसी हृदयग्राही एवं व्यवस्थित परिभाषा अन्यत्र मिलनी दुर्लभ है।
दुर्बल या रोगी व्यक्ति को परमात्मा के दर्शन नहीं होते, (नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः मुण्डकोपनिषत्) । भवसागर से पार उतरने के लिए शरीररूपी नौका को सुदृढ़ तथा छिद्ररहित बनाकर ब्रह्म-प्राप्ति का लक्ष्य ही मनुष्य जन्म का चरम उद्देश्य है (अयं तु परमो धर्मो यद्योगेनात्मदर्शनम् ) । मनुष्य का शरीर जल में स्थित कच्चे घड़े के समान है। योगाग्नि में तपाकर इसे सुदृढ़ बना लेना चाहिए।
षट्कर्म (नेति, धौति से शरीर शुद्धि, आसन से रोग-निवारण और दृढ़ता, प्राणायाम से लाघव-शरीर में हलकापन, मुद्राभ्यास से स्थिरता, प्रत्याहार से धैर्य (मन का स्थिर होना), ध्यान से आत्मदर्शन और समाधि से मुक्ति प्राप्ति करने का सभी को प्रयत्न करना चाहिए। प्रस्तुत पुस्तक अष्टांग योग में योग के आठों अगों का क्रियात्मक अभ्यास कैसे किया जाये इसका विस्तार से वर्णन किया है। योग के क्षेत्र में हमारे प्राचीन ऋषि, मुनि और सिद्ध पुरुषों ने इतने व्यापक रूप में अनुसन्धान किया है कि कोई भी पक्ष अछूता नहीं रहा। उनके अनुभव रूपी मोतियों को विभिन्न स्थानों से चुन कर धारणा ध्यान की इस मालिका का निर्माण किया है।
यद्यपि आप्त लोगों का कथन स्वयं प्रमाण होता है परन्तु फिर भी चयन करने से पहले स्वयं इन्हें अभ्यास की कसौटी पर परखा गया है और उपयोगी जान बहुजन हिताय बहुजन सुखाय की भावना से जनता जनार्दन की सेवा में यह माला समर्पित की है जिसे धारण कर वे भी इसका रसास्वादन कर सकें। योगसाधना में पदे पदे अनुभवी गुरु के मार्गदर्शन की अपेक्षा रहती है
परन्तु आज योग का व्यावसायिकरण हो जाने से बगुला भगत और नीर-क्षीर का विवेक करने वाले राजहंस की पहचान करना भी कठिन हो गया है। ऐसी परिस्थिति में अपने पूर्वजों के द्वारा प्रदर्शित मार्ग का अवलम्बन करना ही श्रेष्ठ जान धारणा-ध्यान की अनेक पद्धतियों का क्रियात्मक विवरण दशवें अध्याय में दिया गया है जिसका अभ्यास अपनी रुचि के अनुसार किया जा सकता है।
जिन आप्त पुरुषों ने योगविद्या के रहस्यों को ग्रन्थों के माध्यम से हम तक पहुँचाने के लिये श्रम किया है उन सबको मैं हृदय से नमन करता हूँ।
शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने के लिए तुलनात्मक दृष्टि से अन्य कोई व्यायाम पद्धति ऐसी सर्वांगीण एवं उपयुक्त नहीं है जो योगासन, प्राणायाम, ध्यानादि के समक्ष टिक सके जिसे सभी व्यक्ति सहजभाव में अपना सकें तथा स्त्री-पुरुष, बालक, युवा एवं वृद्ध सभी के लिए सुगम, सरल एवं उपादेय हो और जिससे शारीरिक विकास, मानसिक शान्ति एवं आत्मिक उन्नति हो सके। यही कारण है कि भौतिक उन्नति तथा प्रकृति उपासना से अतृप्त और विक्षुब्ध जनमानस योग की ओर आकर्षित हो रहा है।
यद्यपि आसन-प्राणायाम अष्टाङ्गयोग के अंग हैं तथापि इनका मुख्य ध्येय साधक को अगली भूमियों (प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि) का सामर्थ्य प्रदान करना ही है। योगदर्शन के रचयिता महर्षि पतञ्जलि को यही अभीष्ट है, परन्तु बाद की परम्परा में ध्यान के आसनों के अतिरिक्त शरीर संवर्धनात्मक आसनों (Cultural Postures) का भी विकास हुआ जिनके द्वारा ध्यान के समय शरीर के विभिन्न तन्त्र-रक्त-सञ्चरण श्वास-प्रश्वास, अन्नपचन, मल-मूत्र विसर्जन इत्यादि में आया व्यवधान दूर हो सके।
यह भी अनुभवगम्य है कि साधक के लिए अन्य व्यायाम रजोगुण को बढ़ानेवाले, चित्त- विक्षेपक तथा बाह्य प्रवृत्तिकारक हैं जबकि आसनों के अभ्यास से विक्षिप्त चित्त भी शान्त हो जाता है परन्तु जिमनास्टिक की भाँति मञ्च पर आसनों का प्रदर्शन, जिसमें शरीर को अनावश्यक रूप में तोड़ा मरोड़ा जाये, लाभ के स्थान पर हानिकारक भी हो सकता है।
योग एवं आयुर्वेद का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये दोनों शास्त्र स्वस्थ का लक्षण एक जैसा ही कर रहे हैं। द्रष्टा जीवात्मा का अपने स्वरूप में स्थित होना योग का लक्ष्य है तो शरीर के दोष, अग्नि, धातु की समावस्था एवं मन, इन्द्रिय और आत्मा का प्रसन्न रहना आयुर्वेद ने स्वास्थ्य का लक्षण बतलाया है। इसलिए यौगिक चिकित्सा में भी आयुर्वेद की पूर्णतया उपेक्षा नहीं की जा सकती, भले ही कुछ प्रचलित जड़ी बूटियों का ही प्रयोग किया जाए।
लोग एलोपैथी की चिकित्सा से परेशान होकर आयुर्वेद की ओर आकर्षित हो रहे हैं। स्वयं हठ प्रदीपिका के अन्तिम श्लोकों में ‘वैद्यशास्त्रोक्त विधिना कार्य कुर्यादशेषतः । कुर्याद् योग चिकित्सां च’ लिखकर आयुर्वेद का समर्थन किया है। प्राकृतिक चिकित्सा भी आयुर्वेद के पञ्चकर्म का एक अंशमात्र है।
जब किसी वस्तु का मूल्य बढ़ जाता है तो बाज़ार में उसकी जैसी नकली वस्तुएँ भी आ जाती हैं। कौन-सी असली या कौन-सी नकली है, इसका निर्णय सभी नहीं कर सकते। हीरे की पहचान जौहरी ही कर सकता है। आज योग चौराहे पर खड़ा है।
उसे पूर्ण रूप में वैज्ञानिक कसौटी पर कसने की आवश्यकता है तभी उसकी विश्वसनीयता स्थायी रह सकेगी। भारत की इस धरोहर की सुरक्षा और इसे जनोपयोगी बनाने की आवश्यकता है। प्रस्तुत पुस्तक इसी दिशा में एक प्रयास है। सुधिजन इस अनुपम प्रयास का स्वागत करेंगे, इसका मुझे पूर्ण विश्वास है।
स्वामी देवव्रत सरस्वती
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