ओ३म्
प्राक्कथन
‘एक स्वनिर्मित जीवन – मास्टर आत्माराम अमृतसरी’ का प्राक्कथन लिखते हुये आज लेखक का हृदय गद्गद हो रहा है। अपनी किसी भी नई पुस्तक का प्राक्कथन लिखते समय प्रत्येक लेखक की मनःस्थिति कुछ ऐसी ही होती है, परन्तु इस पुस्तक का प्राक्कथन लिखना हमारे लिये एक औपचारिकता निभाने वाली बात नहीं है। हमारे मन के उल्लसित होने के भी कुछ विशेष कारण हैं।
इस पुस्तक को लिखने का जो हमें गौरव प्राप्त हुआ है यह भी एक शिक्षाप्रद, रोचक और प्रेरक घटना है। सन् १९६५ में लेखक ने स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी महाराज का विस्तृत व खोजपूर्ण जीवन-चरित्र लिखा। उसके बृहत् तृतीय संस्करण ‘लौह पुरुष स्वामी स्वतन्त्रानन्द’ का पहला प्रूफ़ पढ़कर अभी दो दिन पूर्व ही हमने भेजा है। इसके पहले तीन संस्करणों व तीनों बृहत् संस्करणों में पूज्य स्वामी जी तथा पं. आनन्दप्रिय जी का आत्माराम जी के जीवन-चरित्र लेखन पर एक संवाद की घटना दी गई है। यह संवाद १९४९-१९५० में हुआ और इसे हम ५४ वर्ष से लिखते चले आ रहे हैं।
यह भी कैसा विचित्र कर्मचक्र है कि श्री पं. आनन्दप्रिय जी ने भी हमें श्रद्धेय पं. आत्माराम जी की जीवनी लिखने की लिखित रूप में प्रेरणा दी, परन्तु हम अपनी नई-नई परियोजनाओं के कारण यह कार्य इतना लम्बा समय बीत जाने पर भी न कर सके और अब सन् २०१८ में एक साथ कई परियोजनाओं पर कार्य करते हुये, व्यस्तताओं में डूबे हुये न जाने कैसे सुदूर बैठे हुये एक आर्य बंधु श्रीमान् उमेश राठी जी का एक ही पत्र पाकर हमने तत्काल यह कार्य करने की उन्हें हाँ कर दी।
भाग्य अदृष्ट है – इसी को तो भाग्य कहा जाता है। शास्त्रों में भाग्य के लिये एक विचित्र शब्द का प्रयोग हुआ है। वह शब्द है ‘अदृष्ट’ (invisible)। सचमुच भाग्य या प्रारब्ध अदृष्ट है। यह प्रसंग जो हमने यहाँ दिया है, यह एक ऐसा ही सुन्दर हृदय स्पर्शी शिक्षाप्रद प्रसंग है। विश्व इतिहास ऐसी रोचक घटनाओं से भरा पड़ा है। हमने गत ६८ वर्षों में जी भर कर लिखा है और जो कुछ भी लिखा है या लिखा जा रहा है भक्ति भाव से धर्मभाव से लिखा है। सांसारिक लाभ व -लोभ से आज पर्यन्त एक भी पंक्ति न लिखी है और न ही लिखेंगे।
यह तो सर्वज्ञ न्यायकारी प्रभु ही जानते हैं कि जो कार्य हम आधी शताब्दी से ऊपर समय तक न कर पाये उसे अब उमेश राठी जी का एक ही पत्र पा कर तत्काल करने की कैसे ठान ली? यह हमारा प्रारब्ध था अथवा उमेश राठी जी का अथवा हम दोनों के प्रारब्ध के मेल से यह कार्य अब हो पाया है? इससे बड़ी और अचम्भे की बात तो यह रही कि यह जीवनी हमने अपने जीवन के ८८ वें वर्ष को पार करते हुये ८९वें वर्ष में लिखी है। यह दयालु कृपालु परमात्मा की कृपा का प्रसाद है कि हम इस आयु में नित्यप्रति आठ से दस घण्टे तक अदम्य उत्साह से अपने पठन-पाठन में देते हैं।
इकलौती घटना – छोटी नली (करनाल) के स्वामी सम्पूर्णानन्द जी ने एक बार हमारी एक पुस्तक को पढ़कर यह प्रतिक्रिया दी थी कि आपके प्राक्कथन के बिना यह पठनीय पुस्तक अधूरी लगी। आपका प्राक्कथन पढ़ने योग्य तथा विचारोत्तेजक होता है। इस प्राक्कथन में आधी शताब्दी से अधिक समय तक इस पुस्तक के लेखन कार्य के टलने की रोचक घटना कहानी श्री स्वामी सम्पूर्णानन्द जी तथा प्रत्येक विचारशील पाठक के लिये ज्ञानवर्द्धक तथा आनन्ददायक रहेगी, ऐसा हमारा विश्वास है। यह हमारे लिये भी हमारे जीवन की एक इकलौती घटना है।
इस प्राक्कथन में प्रबुद्ध पाठकों की जानकारी के लिये और भी बहुत कुछ लिखने को है। अति संक्षेप से आगे कुछ निवेदन किया जाता है।
एक प्रखर देशभक्त की जीवनी – आत्माराम जी मूलतः राजस्थानी माहेश्वरी परिवार में जन्मे। जन्म अमृतसर (पंजाब) में हुआ। जवानी देखने से पहले जन्म, जीवन और यौवन सब कुछ देशहित में, परोपकार, दलितोद्धार, समाज-सुधार के लिये गुजरात पर वार दिया। घर-बार, परिवार, सगे सम्बन्धियों, मित्रों का मोह त्याग कर सुदूर बड़ौदा में डेरा डालकर डटकर बैठ गये। वहाँ सब प्रकार का विरोध, अपमान व कष्ट उन्हें सहना पड़ा।
जन्मे पंजाब में, नाम के साथ अमृतसरी अन्त तक लिखा जाता रहा और गुजरात के रंग में रंगकर पक्के गुजराती बन गये। ऐसे प्रखर देशभक्त की जीवनी लिखना बड़े सौभाग्य की बात है।
प्रकाशकीय
मास्टर आत्माराम अमृतसरी आर्यसमाज की स्पृहणीय विमल विभूति थे। उनके व्यक्तित्व में इतने गुणों का समावेश है कि उनके सम्पर्क में आने वाला कोई भी व्यक्ति उनका प्रशंसक बने बिना नहीं रह सकता था।
उदारता, सहृदयता, अनुशासनप्रियता, व्यवहार की शुचिता और सौजन्य की प्रतिमूर्ति मास्टर जी ने अधिकांश जीवन आर्यसमाज के सिद्धान्तों को उपदेशों और शास्त्रार्थों के माध्यम से इस प्रकार प्रकट किया मानों ऋषि दयानन्द की विचारधारा को विश्व में प्रसारित करने के लिए वे एक प्रकाशस्तम्भ बन गये।
सारा आर्यजगत् आपको पञ्जाब का अमृतसरी नाम से ही जानता और मानता था, परन्तु आपने जीवन में कभी भी जातिसूचक माहेश्वरी शब्द का प्रयोग कहीं भी नहीं किया। आपने ज्यों ही आर्यसमाज में प्रवेश किया तो मुनिवर गुरुदत्त जी की प्रेरणा से माहेश्वरी जातिसूचक शब्द का प्रयोग छोड़ दिया।
आर्यजगत् का यह सौभाग्य है कि मास्टर आत्माराम अमृतसरी का जीवन चरित्र ‘एक स्वनिर्मित जीवन’ के शीर्षक से आर्यसमाज के गौरव, इतिहासकेसरी प्रा. राजेन्द्र ‘जिज्ञासु’ जी ने बहुत ही पुरुषार्थ से लिखा है, जो आजकल परोपकारिणी सभा अजमेर के उपप्रधान पद को भी सुशोभित कर रहे हैं। परोपकारिणी सभा का यह सौभाग्य है कि इस महान् चरित-नायक मास्टर आत्माराम अमृतसरी का जीवन चरित्र प्रकाशित किया जा रहा है। मुझे विश्वास है कि उस ईश्वर विश्वासी, ऋषि दयानन्द के परमभक्त, सोच-विचार कर बोलनेवाले, पग-पग पर विरोध सहकर आगे बढ़ने वाले, व्याख्यान-वाचस्पति, शास्त्रार्थ-महारथी, सर्व धर्म सम्मेलन को आयोजित करने वाले, गुरमुखी में सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित करने वाले महामानव के जीवन चरित्र का स्वाध्याय आपके जीवन में उत्साह भरेगा।
Reviews
There are no reviews yet.