ब्रह्मचर्य के दीवानों के प्रति
जो मनुष्य कभी ब्रह्मचर्य के पीछे दीवाना नहीं हुआ है, उसने मेरी समझ में, ब्रह्मचर्य को पूर्ण रूप में अच्छी तरह देखा या समझा नहीं है।
ब्रह्मचर्य ऐसी ही मनमोहिनी वस्तु है पर फिर भी दुनिया में आज ब्रह्मचर्य के दीवाने बहुत थोड़े हैं। भोगवाद का शिकार यह वर्तमान जगत् यद्यपि कभी- कभी कुछ-कुछ संयम की, कुछ न कुछ ब्रह्मचर्य की जरूरत समझता है, उसके लिए कुछ यत्न भी करता है, परन्तु वह असल में भोग से इतना जर्जरित हो चुका है कि उसमें ब्रह्मचर्य की जाज्वल्यमान विभूति को, पूर्ण ब्रह्मचर्य के सूर्य को, एक आँख देख सकने की भी शक्ति नहीं रही है; तो यदि हमने संसार के वर्तमान जीवों के अन्दर ब्रह्मचर्य के ‘महाव्रत’ के लिए तड़प न देखी तो इसमें क्या आश्चर्य है? किन्तु जगत् में आज ब्रह्मचर्य के दीवाने थोड़े हों या बहुत पर ‘गुरुकुल’ ने तो ब्रह्मचर्य का ही गीत गाया है, संसार को वही संदेश सुनाना है, वह यही गा सकता है, यही सुना सकता है, कोई सुने या न सुने।
इसका कारण स्पष्ट है। संसार को आज ब्रह्मचर्य की जरूरत थी, इसीलिए प्रकृतिमाता ने इस युग में दयानन्द नाम के एक महान् ब्रह्मचारी को जन्म दिया। दयानन्द के आर्य समाज का यदि संसार को कोई संदेश हो सकता है तो वह एक शब्द में ब्रह्मचर्य है। इसीलिए महर्षि दयानन्द के सच्चे अनुयायी महात्मा मुन्शीराम ने दयानन्द के एक सच्चे अनुयायी ने, ब्रह्मचर्य के पुनरुत्थान को ही एकमात्र लक्ष्य रखकर हिमालय की उपत्यका में, भागीरथी के तट पर अपनी तपस्या से गुरुकुल की नींव रखी। प्रिय पाठको ! यह गुरुकुल ब्रह्मचर्य के सिवाय और किस वस्तु की भेंट आपके सम्मुख रख सकता है ?
जब मैं गुरुकुल में बालक था तो अपनी श्रेणी के कुछ हम सहाध्यायी आपस में सोचा करते थे कि हम ऋषि दयानन्द की तरह ब्रह्मचारी बनेंगे। यह गुरुकुलीय वायुमण्डल का प्रभाव था। पर ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ है, तब हम यह न समझते है। बह्मचर्य कितना कठिन है, यह भी नहीं समझते थे। ज्यों-ज्यों बड़े होते गये, त्यों-त्यों ब्रह्मचर्य की महिमा के साथ-साथ उसकी कठिनता को भी समझते गए।
महाविद्यालय की ऊँची श्रेणी में पहुँचकर जब मैंने वेद का यह ब्रह्मचर्य-सूक्त पढ़ा और मनन किया तो मेरे ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विचारों का वर्णन मैंने इसमें पाया, उससे मेरी दृष्टि खुल गयी। ब्रह्मचर्य के लक्ष्य को सामने रखकर चलने का एक साफ रास्ता मुझे मिल गया। इस सूक्त के अध्ययन से जो सबसे बड़ा प्रभाव मुझ पर पड़ा, वह यह था कि दुनिया में मैं जो यह सुनता रहता था कि सर्वथा अखण्ड ब्रह्मचर्य असम्भव है, वह मेरा भ्रम हट गया। मैं तब से न केवल यह देखने लगा कि पूर्ण बह्मचर्य सम्भव है किन्तु यह भी अनुभव करने लगा कि ब्रह्मचर्य ही स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। हम अपनी उच्च प्रकृति से देखें तो यही प्राकृतिक है। मैं यहाँ तक कहने को उद्यत हूँ कि जैसे साधारण लोग आँख के झपकने को स्वाभाविक समझते हैं
परन्तु आश्चर्य आदि की अवस्था के दृष्टांत से जान सकते है कि एक ऐसी अवस्था भी आती है जबकि एकतत्व के देख लेने से स्वभावतः निमेषोन्मेष बन्द हो जाता है, इसकी आवश्यकता ही नहीं रहती, मनुष्य तब ‘अनिमेष’ अथवा ‘देव’ हो जाता है, इसी तरह अपने उच्च स्वरूप को देख लेने पर, पा लेने पर, निर्विकार अवस्था ही स्वाभाविक हो जाती है, विकार का कुछ काम ही नहीं रहता। अस्तु। यहाँ कहने का तात्पर्य इतना ही है कि अथर्ववेद के इस ब्रह्मचर्य सूक्त ने मुझे प्रथम अध्ययन में ही मोहित-सा कर लिया और तब से इस सूक्त को फिर-फिर पढ़ने की इच्छा होती रही और यह इच्छा अभी तक तृप्त नहीं हो पायी है। इसलिए पाठकों के साथ इसे ही एक बार फिर पढ़ने लगा हूँ।
पाठक यह न कहें कि इस सूक्त पर पहले ही कई उत्तम-उत्तम व्यख्याएं वे पढ़ चुके हैं। यदि पढ़ चुके हैं तो क्या हुआ, एक यह भी सही।
आज न जाने छापे-खानों में काले किये जाने वाले कागजों में कितना भाग ब्रह्मचर्य घातक पतनकारी साहित्य से भरा होता है, तो यह पुस्तक बह्मचर्य की चर्चा करें, पुनः पुनः चर्चा करे तो कौन-सा बिगाड़ हो जायेगा, यदि कुछ लाभ न होगा तो कोई हानि भी नहीं होगी और यह ब्रह्मचर्य चर्चा मेरी समझ में कोई नीरस भी नहीं होगी। जब लेखक को उसमें रस आता है, तब ही वह चर्चा करता है, तो कोई और भी ऐसे साथी मिलेंगे जिन्हें इसमें रस आयेगा।
मैं तो स्वीकार किए लेता हूँ कि मैं ब्रह्मचर्य के पीछे दीवाना हूँ, पागल हूँ। पर मैं इसीलिए दीवाना हूँ क्योंकि ब्रह्मचर्य का चमकता हुआ सूर्य मुझे अत्यन्त प्यारा और आकर्षक लगता है और मैं उसमें अपने को बहुत दूर पाता हूँ। जब मैं उसके नजदीक पहुँच जाऊँगा तब मैं शायद ब्रह्मचर्य का दीवाना न रहकर ब्रह्मचर्य का भक्त या उपासक बन जाऊँगा। इसलिए मेरे द्वारा की गई इस ब्रह्मचर्य चर्चा में वे ही रस ले सकेंगे जो कि मेरे जैसे ब्रह्मचर्य-जीवन के पिपासु है। अतः स्पष्ट है कि आगे आने वाले ब्रह्मचर्य सूक्त के मन्त्रों के आधार पर लिखे गये ये वचन उन्हीं भाई-बहनों के प्रति है जो कि ब्रह्मचर्य के दीवाने हैं, जो कि अखण्ड ब्रह्मचर्य में श्रद्धा रखते हैं और जो पूर्ण बह्मचर्य में ही अपने आत्मा का चरम विकास अनुभव करते हैं।
आपका बन्धु
अभय
Reviews
There are no reviews yet.