वैदिक ब्रहाचर्य गीत
Vaidik Brahmacharya Geet

151.00

AUTHOR: Acharya Abhaydev Vidyalankar
SUBJECT: वैदिक ब्रहाचर्य गीत | Vaidik Brahmacharya Geet
CATEGORY: Yoga And Health
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2019
PAGES: 123
BINDING: Paper Back
WEIGHT: 150 g.
Description

ब्रह्मचर्य के दीवानों के प्रति

जो मनुष्य कभी ब्रह्मचर्य के पीछे दीवाना नहीं हुआ है, उसने मेरी समझ में, ब्रह्मचर्य को पूर्ण रूप में अच्छी तरह देखा या समझा नहीं है।

ब्रह्मचर्य ऐसी ही मनमोहिनी वस्तु है पर फिर भी दुनिया में आज ब्रह्मचर्य के दीवाने बहुत थोड़े हैं। भोगवाद का शिकार यह वर्तमान जगत् यद्यपि कभी- कभी कुछ-कुछ संयम की, कुछ न कुछ ब्रह्मचर्य की जरूरत समझता है, उसके लिए कुछ यत्न भी करता है, परन्तु वह असल में भोग से इतना जर्जरित हो चुका है कि उसमें ब्रह्मचर्य की जाज्वल्यमान विभूति को, पूर्ण ब्रह्मचर्य के सूर्य को, एक आँख देख सकने की भी शक्ति नहीं रही है; तो यदि हमने संसार के वर्तमान जीवों के अन्दर ब्रह्मचर्य के ‘महाव्रत’ के लिए तड़प न देखी तो इसमें क्या आश्चर्य है? किन्तु जगत् में आज ब्रह्मचर्य के दीवाने थोड़े हों या बहुत पर ‘गुरुकुल’ ने तो ब्रह्मचर्य का ही गीत गाया है, संसार को वही संदेश सुनाना है, वह यही गा सकता है, यही सुना सकता है, कोई सुने या न सुने।

इसका कारण स्पष्ट है। संसार को आज ब्रह्मचर्य की जरूरत थी, इसीलिए प्रकृतिमाता ने इस युग में दयानन्द नाम के एक महान् ब्रह्मचारी को जन्म दिया। दयानन्द के आर्य समाज का यदि संसार को कोई संदेश हो सकता है तो वह एक शब्द में ब्रह्मचर्य है। इसीलिए महर्षि दयानन्द के सच्चे अनुयायी महात्मा मुन्शीराम ने दयानन्द के एक सच्चे अनुयायी ने, ब्रह्मचर्य के पुनरुत्थान को ही एकमात्र लक्ष्य रखकर हिमालय की उपत्यका में, भागीरथी के तट पर अपनी तपस्या से गुरुकुल की नींव रखी। प्रिय पाठको ! यह गुरुकुल ब्रह्मचर्य के सिवाय और किस वस्तु की भेंट आपके सम्मुख रख सकता है ?

जब मैं गुरुकुल में बालक था तो अपनी श्रेणी के कुछ हम सहाध्यायी आपस में सोचा करते थे कि हम ऋषि दयानन्द की तरह ब्रह्मचारी बनेंगे। यह गुरुकुलीय वायुमण्डल का प्रभाव था। पर ब्रह्मचर्य का क्या अर्थ है, तब हम यह न समझते है। बह्मचर्य कितना कठिन है, यह भी नहीं समझते थे। ज्यों-ज्यों बड़े होते गये, त्यों-त्यों ब्रह्मचर्य की महिमा के साथ-साथ उसकी कठिनता को भी समझते गए।

महाविद्यालय की ऊँची श्रेणी में पहुँचकर जब मैंने वेद का यह ब्रह्मचर्य-सूक्त पढ़ा और मनन किया तो मेरे ब्रह्मचर्य सम्बन्धी विचारों का वर्णन मैंने इसमें पाया, उससे मेरी दृष्टि खुल गयी। ब्रह्मचर्य के लक्ष्य को सामने रखकर चलने का एक साफ रास्ता मुझे मिल गया। इस सूक्त के अध्ययन से जो सबसे बड़ा प्रभाव मुझ पर पड़ा, वह यह था कि दुनिया में मैं जो यह सुनता रहता था कि सर्वथा अखण्ड ब्रह्मचर्य असम्भव है, वह मेरा भ्रम हट गया। मैं तब से न केवल यह देखने लगा कि पूर्ण बह्मचर्य सम्भव है किन्तु यह भी अनुभव करने लगा कि ब्रह्मचर्य ही स्वाभाविक है, प्राकृतिक है। हम अपनी उच्च प्रकृति से देखें तो यही प्राकृतिक है। मैं यहाँ तक कहने को उद्यत हूँ कि जैसे साधारण लोग आँख के झपकने को स्वाभाविक समझते हैं

परन्तु आश्चर्य आदि की अवस्था के दृष्टांत से जान सकते है कि एक ऐसी अवस्था भी आती है जबकि एकतत्व के देख लेने से स्वभावतः निमेषोन्मेष बन्द हो जाता है, इसकी आवश्यकता ही नहीं रहती, मनुष्य तब ‘अनिमेष’ अथवा ‘देव’ हो जाता है, इसी तरह अपने उच्च स्वरूप को देख लेने पर, पा लेने पर, निर्विकार अवस्था ही स्वाभाविक हो जाती है, विकार का कुछ काम ही नहीं रहता। अस्तु। यहाँ कहने का तात्पर्य इतना ही है कि अथर्ववेद के इस ब्रह्मचर्य सूक्त ने मुझे प्रथम अध्ययन में ही मोहित-सा कर लिया और तब से इस सूक्त को फिर-फिर पढ़ने की इच्छा होती रही और यह इच्छा अभी तक तृप्त नहीं हो पायी है। इसलिए पाठकों के साथ इसे ही एक बार फिर पढ़ने लगा हूँ।

पाठक यह न कहें कि इस सूक्त पर पहले ही कई उत्तम-उत्तम व्यख्याएं वे पढ़ चुके हैं। यदि पढ़ चुके हैं तो क्या हुआ, एक यह भी सही।

आज न जाने छापे-खानों में काले किये जाने वाले कागजों में कितना भाग ब्रह्मचर्य घातक पतनकारी साहित्य से भरा होता है, तो यह पुस्तक बह्मचर्य की चर्चा करें, पुनः पुनः चर्चा करे तो कौन-सा बिगाड़ हो जायेगा, यदि कुछ लाभ न होगा तो कोई हानि भी नहीं होगी और यह ब्रह्मचर्य चर्चा मेरी समझ में कोई नीरस भी नहीं होगी। जब लेखक को उसमें रस आता है, तब ही वह चर्चा करता है, तो कोई और भी ऐसे साथी मिलेंगे जिन्हें इसमें रस आयेगा।

मैं तो स्वीकार किए लेता हूँ कि मैं ब्रह्मचर्य के पीछे दीवाना हूँ, पागल हूँ। पर मैं इसीलिए दीवाना हूँ क्योंकि ब्रह्मचर्य का चमकता हुआ सूर्य मुझे अत्यन्त प्यारा और आकर्षक लगता है और मैं उसमें अपने को बहुत दूर पाता हूँ। जब मैं उसके नजदीक पहुँच जाऊँगा तब मैं शायद ब्रह्मचर्य का दीवाना न रहकर ब्रह्मचर्य का भक्त या उपासक बन जाऊँगा। इसलिए मेरे द्वारा की गई इस ब्रह्मचर्य चर्चा में वे ही रस ले सकेंगे जो कि मेरे जैसे ब्रह्मचर्य-जीवन के पिपासु है। अतः स्पष्ट है कि आगे आने वाले ब्रह्मचर्य सूक्त के मन्त्रों के आधार पर लिखे गये ये वचन उन्हीं भाई-बहनों के प्रति है जो कि ब्रह्मचर्य के दीवाने हैं, जो कि अखण्ड ब्रह्मचर्य में श्रद्धा रखते हैं और जो पूर्ण बह्मचर्य में ही अपने आत्मा का चरम विकास अनुभव करते हैं।

आपका बन्धु
अभय

सम्पादकीय

वेद मानव सभ्यता का प्राचीनतम साहित्य होने के साथ ही ज्ञान- विज्ञान की अनेक विद्याओं का जनक है। इसलिए ऋषियों ने वेद को ईश्वरप्रणीत या अपौरुषेय कहा है। वेद में मानवोपयोगी समस्त ज्ञान- विधाओं का मूल ही नहीं अपितु उनका विस्तार भी प्रचुरता से प्राप्त होता है। इनमें ब्रह्म विद्या के उपरान्त समाजशास्त्र सबसे विशाल विधा है। वेद में मनुष्य को ब्रह्माण्ड की एक ईकाई स्वीकार किया गया है।

इसका अर्थ यह कि मनुष्य की शारीरिक, आत्मिक, सामाजिक उन्नति अर्थात् परिवार, समाज, राष्ट्र और ब्रह्माण्ड के सर्वदिक् विकास की बात वेद में की गई है। वेद में मनुष्य मात्र की सर्वांङ्गीण उन्नति से सम्बन्धित सैकड़ों मन्त्र और सूक्त हैं। इन्हीं में से एक सूक्त है अथर्ववेद के ग्यारहवें काण्ड का पाँचवा सूक्त जो कि ‘ब्रह्मचर्य सूक्त’ के नाम से प्रसिद्ध है।

वैदिक जीवन अर्थात् वेदानुसार आचरण और ब्रह्मचर्य एक दूसरे का पर्याय हैं। वैदिक आश्रम व्यवस्था के ब्रह्मचर्याश्रम को देखकर कतिपय लोगों को भ्रम रहता है कि ब्रह्मचर्य २५ वर्ष की आयु तक ही रहता है। ऐसा विचार रखने वाले ब्रह्मचर्य के वास्तविक अर्थ से परिचित नहीं हैं। ‘ब्रह्मचर्य’ शब्द ‘ब्रह्म’ और ‘चर्य’ दो शब्दों से बना है। ब्रह्म शब्द के तीन अर्थ हैं- ईश्वर, वेद और वीर्य। ‘चर्य’ शब्द चिन्तन, अध्ययन और रक्षण का वाचक है।

अतः ‘ईश्वर का चिन्तन’, ‘वेद का अध्ययन’ और ‘वीर्य का रक्षण’ इन तीनों का ब्रह्मचर्य से अभिप्रेत हैं। वेदानुसार जीवन के किसी भी काल (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास) में त्याग नहीं किया जा सकता। इसी कारण वैदिक संस्कृति में ब्रह्मचर्य का अपार गायन किया गया है। इस सूक्त के प्रत्येक मन्त्र पर सरल प्रवाही, बोधगम्य भाषा में विस्तृत व्याख्या वैदिक जगत् के मूर्धन्य विद्वान आचार्य अभयदेव ने लिखी है।

वैदिक जगत् में आचार्य जी की सर्वाधिक लोकप्रिय पुस्तक ‘वैदिक विनय’ के कारण ख्याति है जिसमें वर्ष भर के ३६६ दिनों के लिए प्रतिदिवस एक वेदमन्त्र का स्वाध्याय करने के लिए वेदमन्त्र और उस पर हृदयग्राही आध्यात्मिक व्याख्या लिखी है।

‘वैदिक ब्रह्मचर्यगीत’ नामक पुस्तक का सर्वप्रथम प्रकाशन सम्वत् २००१ विक्रमी (१९४४ ई०) में अदिति मुद्रणालय, दिल्ली से मुद्रित हुआ था। इसके अन्य ज्ञात संस्करणों में एक श्री अरविन्द निकेतन, चरथावल से श्री सुरेश चन्द्र त्यागी के सम्पादकत्व में गांधी जयन्ती १९८३ को प्रकाशित हुआ और दूसरा वेदप्रचारक मण्डल, करोलबाग, नई दिल्ली से ब्रह्मचारी नन्दकिशोर जी के सम्पादकत्व में प्रकाशित हुआ था (जिसका प्रकाशन वर्ष पुस्तक पर अंकित नहीं है)। श्री अरविन्द निकेतन से प्रकाशित संस्करण के सम्पादकीय में ब्रह्मचर्य सूक्त पर उनके अनुभवों को उदधृत करते हुए किया है कि-

गुरुकुल कांगड़ी में आचार्य जी इस सूक्त का अध्यापन भी करते थे उन्होंने लिखा है कि ‘उस सूक्त का मुझ पर स्पष्ट प्रभाव पड़ा था। उसमें ब्रह्मचर्य का जो उदात्त, व्यापक, विशालरूप वर्णन हुआ है, उसने जहाँ मेरे हृदय, मन, प्राण को विशाल बनाया वहाँ ब्रह्मचर्य के प्रति प्रगाढ़ प्रेम पैदा कर दिया। यह समझ में आ गया कि किसी भी महान् उद्देश्य के लिए ही ब्रह्मचारी रहा जा सकता है। ब्रह्म में चर्या होना ही ब्रह्मचर्य है।

मौलिक बात का अनुभव हुआ था वेद के ब्रह्मचर्य सूक्त का अध्ययन करने से। उससे कुछ ऐसी मिलती थी जो सहज में मुझे तुच्छता से ऊपर उठाती थी। सो मुझ पर पहला विशेष प्रभाव जिसने मुझे (विवाह न करने के) इस निश्चय के लिए विशेष प्रबल प्रेरणा दी, वैदिक ब्रह्मचर्य सूक्त ने। यों कहना चाहिए कि ब्रह्मचर्य के विषय में भी यह सत्य है कि ज्यों-ज्यों हमारा ज्ञान बढ़ता है त्यों-त्यों इसका अर्थ भी हमारे लिए विस्तृत होता जाता है। अथर्ववेद के ब्रह्मचर्य सूक्त में (मेरे अनुभव के अनुसार) यह शक्ति है कि हमारे ज्ञान प्रकाश को बढ़ावा दे सके।

ब्रह्मचर्य की शेष महिमा तो पाठक गणों को पुस्तकाध्ययन से ही पता लगेगी और पूर्ण अनुभूति ब्रह्मचर्य के पालन से होगी। इस संस्करण में मन्त्रों पर स्वरचिन्ह भी दे दिए गए हैं और व्याख्या में आए प्रमाणों की वर्तनीगत त्रुटियों को मूल ग्रन्थों से मिलान कर ठीक कर दिया गया है व सन्दर्भ भी ठीक कर दिए गए है। जहाँ सन्दर्भ नहीं दिया गया था वहाँ दे दिया गया है।

‘ब्रह्मचर्य सूक्त’ से ख्याति प्राप्त अथर्ववेद के सूक्त पर इस प्रकार की सरल, सहज, हृदयग्राही व्याख्या मुझे कहीं भी देखने को नहीं मिली। अपने अध्ययनकाल में गुरुकुल में हमने इसको पढ़ा और गुना था। आज भी यह हमारी मार्गदर्शक है। वैदिक विद्वान और ब्रह्मचारियों की माँग पर, चिरकाल से अप्राप्य इस पुस्तक को प्रथम बार पतञ्जलि योगपीठ, हरिद्वार से प्रकाशित किया जा रहा है। आशा है सोमपायी जिज्ञासुगण महर्षि दयानन्द का कार्य पूरा करेंगे। जो अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता ब्रह्मचारी ऋषिगण हो चुके हैं, वर्तमान में जो ब्रह्मचारी हैं अर्थात् समस्त गुरुकुलों के ब्रह्मचारियों को, जो राष्ट्रयज्ञ में आहूत होने वाले हैं, आचार्य अभयदेव की यह कृति समर्पित है।

आचार्य बालकृष्ण

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