आर्योद्देश्यरत्नमाला प्रकाश Aryoddeshyaratnamala Prakash
₹120.00
AUTHOR: | Kanchan Arya (कञ्चन आर्या) |
SUBJECT: | Aryoddeshyaratnamala Prakash | आर्योद्देश्यरत्नमाला प्रकाश |
CATEGORY: | Vedic Dharma |
LANGUAGE: | Hindi |
EDITION: | 2023 |
PAGES: | 120 |
PACKING: |
Paperback
|
WEIGHT: | 150 GRMS |
निवेदन
भारत के प्राचीन इतिहास की ओर जब दृष्टिपात करते हैं, तो मध्य काल हर प्रकार से अन्धकारमय ही दिखाई देता है। इस काल में देश पर अनेकों विदेशी आक्रमण हुए और देश परतन्त्रता की बेड़ियों में जकड़ा गया। शक, हूण, मुगल, अंग्रेज आदि अनेक विदेशी सत्ताओं ने भारत पर शासन करने में सफलता प्राप्त की। आपसी फूट के अतिरिक्त अनेक अन्य कारण भी इसमें सहयोगी रहे। उन कारणों में भी अधिक प्रमुख थे- तथाकथित ब्राह्मणों का वर्चस्व, समाज में फैली धर्मसम्बन्धी भ्रान्त व गलत धारणायें एवं अन्धविश्वास।
वेदों के आविर्भाव, विभिन्न शास्त्रों तथा अनेकानेक महापुरुषों की जन्मभूमि होने के कारण धर्म, दर्शन एवं अध्यात्म-सम्बन्धी अनेकों पारिभाषिक व तकनीकी शब्दों का प्रचलन आम जनता के दैनिक जीवन व व्यवहार में भी घर कर चुका था। परन्तु विकृत और भ्रान्त अर्थों के कारण पूरे अध्यात्म का स्वरूप पाखण्डयुक्त और अन्धकारमय हो चुका था। परिणामतः सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ-साथ राजनैतिक व्यवस्था भी अस्त-व्यस्त होती गई। इस प्रकार अज्ञानतिमिर से आच्छादित युग चलता रहा। तत्पश्चात् ईश्वरीय व्यवस्था से आधुनिक युग यानि 18वीं शताब्दी मे अनेक समाजसुधारकों का इस धरा पर आविर्भाव हुआ, जिन्होंने अपने-अपने ज्ञान एवं सामर्थ्य के अनुसार आध्यात्मिक और सामाजिक क्षेत्रों में सुधार का प्रयास किया।
इसी कड़ी में सन् 1824 ई. में मूलशंकर नामक बालक ने गुजरात के एक पौराणिक ब्राह्मण परिवार में जन्म लिया। जीवन में घटित होने वाली कुछ अप्रत्याशित घटनाओं ने इस प्रबुद्ध बालक की भावनाओं को झकझोर कर रख दिया। परिणामस्वरूप पौराणिक मान्यताओं में पले-बड़े इस किशोर युवा के जीवन ने क्रान्तिकारी मोड़ लिया और शुद्ध सत्य का खोजी यह युवक गृहत्याग के पश्चात् स्वामी दयानन्द सरस्वती नामक युवा संन्यासी के रूप में प्रकट हुआ। समाज की कुरीतियों, अन्धविश्वासों, पाखण्डों तथा देश की निर्धनता और पराधीनता ने इन्हें अन्दर तक आन्दोलित कर दिया था। इस रोग के मूल को खोजते- खोजते वे पुराणों एवं अनार्ष ग्रन्थों की तह तक पहुँचे और उनके बहिष्कार का बिगुल बजा दिया।
सत्य ज्ञान के प्रकाशक वेद और आर्ष ग्रन्थों की शरण लेते हुए ‘वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है,’ यह घोषणा की। यह कार्य नदी की एक ओर बहती तीव्र धारा को विपरीत दिशा में मोड़ने से कम नहीं था। सारा संसार और मत-मतांतर विपक्ष के रूप में एक ओर तथा दयानन्द दूसरी ओर। इन विपक्षी द्वन्द्वों की परवाह किये बिना दयानन्द आम जनता के सामने सत्य को उजागर करने में जुट गये।
वे प्रवचनों, शास्त्रार्थों, सर्वधर्मसम्मेलन, पत्रलेखन एवं अन्य अनेक प्रकार की चर्चाओं के अतिरिक्त अहर्निश लेखनकार्य में भी लगे रहे जिससे विद्या की वृद्धि और अविद्या का नाश हो। वेदभाष्य, सत्यार्थ प्रकाश, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, संस्कारविधि जैसे बृहद् ग्रन्थों के साथ-साथ पंचमहायज्ञविधि, भ्रमोच्छेदन, गोकरुणानिधि, आर्योद्देश्यरत्नमाला जैसी अनेक संक्षिप्त लेकिन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना भी की।
प्रस्तुत रचना में हमारा विषय है- ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’। यह सूत्र रूप में एक ऐसा संक्षिप्त और महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है, जिसे भली प्रकार जान व समझ कर अन्धविश्वास और पाखण्ड की बेड़ियों को खोला जा सकता है। समाज में भ्रान्त अर्थों में रूढ़ धर्म एवं अध्यात्म सम्बन्धी अनेक शब्दों में से सौ शब्दों के यथार्थ अर्थों के रत्नों की माला पिरो कर हमारे समक्ष प्रस्तुत कर दी गई है। इस प्रकार ‘आर्योद्देश्यरत्नमाला’ सौ आर्य मान्यताओं और सिद्धान्तों से सम्बद्ध महत्त्वपूर्ण शब्दावली का शुद्ध स्वरूप दर्शाने वाला लघु ग्रन्थ है। इस स्वरूप को समझकर मनघढ़न्त मान्यताओं और अन्धविश्वासों की नींव को ध्वस्त किया जा सकता है।
हम जानते हैं कि हमारे ऋषि सूत्ररूप और संक्षिप्त शैली के माध्यम से ही सारगर्भित विषय को प्रस्तुत करते आये हैं। अतः सामान्य जनता के लिए कहीं-कहीं उनके स्पष्टीकरण की अपेक्षा रहती है। इसी परिप्रेक्ष्य में, इन सौ रत्नों के स्पष्टीकरण की आवश्यकता अनुभव करते हुए इनकी सरल एवं संक्षिप्त व्याख्या प्रस्तुत की जा रही है। दार्शनिक सिद्धान्तों से अनभिज्ञ पाठकों को दृष्टि में रखते हुए कुछ स्थानों पर वैदिक दार्शनिक सिद्धान्तों को भी पृष्ठभूमि के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आशा है इसके माध्यम से सामान्य बुद्धि के लोग भी विषय को यथार्थ रूप में हृदयंगम कर विकृत मानसिकता से छुटकारा पा सकते हैं।
पाठकों की स्पष्टता के लिए मूल ग्रन्थ की पंक्तियों और उनकी व्याख्या एवं टिप्पणी आदि को भिन्न-भिन्न टाइप में दिया जा रहा है। सुस्पष्ट और ग्राह्य बनाने की दृष्टि से विषय को बिन्दुओं की शैली में प्रस्तुत किया गया है। मैं प्रो. सत्यपाल जी शास्त्री की हृदय से ऋणी हूँ, जिनके द्वारा लिखित ‘वैदिक सिद्धांतावली’ से मार्गदर्शन और सहायता प्राप्त हुई। इस लघुकार्य की प्रस्तुति में श्रद्धेय आचार्य आनन्दप्रकाश जी, आचार्य सत्यजित् जी एवं डा. विनय विद्यालंकार जी का प्रोत्साहन विशेष सहयोगी रहा। स्वामी विष्वङ्जी, श्रीमती डा. अर्चना जी एवं श्री राजकुमार आर्य के उपयोगी सुझावों का भी विशिष्ट योगदान रहा।
इन सभी महानुभावों का हृदय से आभार प्रकट करती हूँ। यदि भाई-भाभी व अन्य पारिवारिक जनों की ओर से सुविधा और सहयोग न मिलता, तो भी यह कार्य पूर्ण न हो पाता। अतः सभी पारिवारिक सदस्यों का भी हृदय से धन्यवाद करती हूँ। इन सभी से आशीर्वचनों की कामना करते हुए परमपिता से इन सबके दीर्घायुष्य की प्रार्थना करती हूँ। यदि इस लघु प्रयास से कुछेक पाठक भी लाभान्वित हो पाये तो इस प्रयास को सार्थक समझेंगी।
सरस्वतीरूप परमदेव परमेश्वर एवं सुधी विद्वज्जनों से प्राप्त ज्ञानप्रसाद का यह अंश उन्हीं के चरणों में समर्पित है।
निवेदिका
कञ्चन आर्या
Weight | 150 g |
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