यज्ञ चिकित्सा
Yagya Chikitsa

145.00

AUTHOR: Brahmavarchas
SUBJECT: यज्ञ चिकित्सा | Yagya Chikitsa
CATEGORY: Yagya
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2019
PAGES: 368
BINDING: Paper Back
WEIGHT: 475 GM
Description

यदि क्षितायुर्यदि वा परेतो यदि मृत्योरन्तिकं नीतएव ।
तमा हरामि निर्ऋतेरुपस्थादस्पार्शमेनं शतशारदाय ॥
– अथर्ववेद काण्ड-३ सूक्त-११ मंत्र-२

अर्थात यदि रोगग्रस्त मनुष्य मृत्यु को प्राप्त होने वाला हो या उसकी आयु क्षीण हो गई हो, तो भी मैं विनाश के समीप से उसे वापस लाता हूँ और सौ वर्ष की पूर्ण आयु तक के लिए सुरक्षित करता हूँ।

 

यज्ञ चिकित्सा भूमिका

प्राचीन भारतीय संस्कृति में वैदिक दिनचर्या का शुभारंभ हवन, यज्ञ, अग्निहोत्र आदि से होता था। तपस्वी ऋषि-मनीषियों से लेकर सद्‌गृहस्थों, बटुक-ब्रह्मचारियों तक नित्य प्रति प्रातः सायं यज्ञ करके जहाँ संसार के विविध विधि रोगों का निवारण किया करते थे। दूसरों को लाभान्वित करने के विचार से उत्तम पदार्थ, घृत, मिष्ठान्न, रोगनिवारक व बलवर्धक वनौषधि याँ इत्यादि हवन में डालकर अपने भीतर परोपकार की सप्रवृत्ति को जागृत कर संसार में सुख, शांति फैलाते थे, वहीं वैज्ञानिक नियमों के आधार पर स्वयं भी शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ प्राप्त करते थे।

दीर्घायुष्यप्राप्ति, रोगनिवारण, स्वास्थ्य संवर्धन, सुसंतति की प्राप्ति, साम्राज्य की प्राप्ति, प्रजा व पशु संवर्धन, शत्रुदमन व युद्ध में विजय, व्यक्तित्व विकास, आध्यात्मिक विकास एवं आत्मोत्कर्ष, प्राणपर्जन्य की अभिवृद्धि व वर्षा, वृष्टि नियंत्रण, जलवायु का शुद्धिकरण, पर्यावरण संशोधन, ऋतुचक्रनियमन, प्रकृति अनुकूलन, पोषक तत्त्वों से परिपूर्ण वृक्ष-वनस्पतियों की अभिवृद्धि आदि सभी कार्य यज्ञों द्वारा सम्पन्न होते थे।

जिस प्रकार भारतीय तत्वज्ञान का अजस्त्र स्रोत गायत्री महामंत्र रहा है, उसी प्रकार विज्ञान का उद्‌गमस्त्रोत यज्ञ रहा है। तब गायत्री महाशक्ति और यज्ञ महाविज्ञान द्वारा मनुष्य की कठिन से कठिन आपत्तियों, आपदाओं, समस्याओं का हल सहज ही कर लिया जाता था तथा अनेक प्रकार की ऋद्धि-सिद्धियाँ, सुख-सुविधायें हस्तगत करना संभव था। ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में इन दोनों की शक्ति और सामर्थ्य और भी महान है।

प्रस्तुत यज्ञ अनुसंधान वैज्ञानिक अध्यात्मवाद की ही एक शोध शाखा है। यज्ञ चिकित्सा उसी की एक कड़ी है, जो कि अतिप्राचीन काल से ही एक समग्र चिकित्सा पद्धति रही है। वैदिक काल से ही ऋषि, मनीषियों ने इसके सर्वतोमुखी लाभों से जनसामान्य को लाभान्वित कराने की दृष्टि से अपना समग्र जीवन ही नित नये अनुसंधानों में लगा दिया और जो निष्कर्ष निकले, उन्हें सूत्रबद्ध किया। उन्होंने बताया कि आयुर्वेद में जिस रोग के शमन के लिए जिन औषधियों का वर्णन किया गया है, उन्हीं रोगों के शमनार्थ उन औषधियों का हवन करना चाहिए-

आयुर्वेदेषु यत्प्रोक्तं यस्य रोगस्य भेषजम्।
तस्य रोगस्य शान्त्यर्थं तेन तेनैव होमयेत ।।
– श्रीमत्प्रपंचसारसारसंग्रहः उत्तरभागः त्रिंशपटलः

सूक्ष्मीकरण के सिद्धांत पर आधारित यज्ञ चिकित्सा की यह विशेषता है कि इसमें रोगानुसार निर्धारित औषधियों को खाने के साथ ही हविर्द्रव्य के रूप में विविध समिधाओं के साथ नित्य हवन किया जाता रहे, तो कम समय में अधिक लाभ मिलता है। नियत समय में मंत्रोच्चार के साथ किये गये हवन से एक विशिष्ट प्रकार की धूम्रीकृत प्रचंड ऊर्जा का निर्माण होता है, जो नासिकाछिद्रों एवं रोमकूपों द्वारा प्रयोक्ता के शरीर के सूक्ष्म से सूक्ष्म संरचना में प्रवेश कर जाती है और शरीर व मन में जड़ जमाकर बैठी हुई आधि-व्याधियों को समूल नष्ट करने में सफल होती है।

जीवाणुओं, विषाणुओं का शमन करने और जीवनी शक्ति संवर्धन करने में यज्ञ ऊर्जा से बढ़कर अन्य कोई सरल व सफल साधन नहीं है। शारीरिक रोगों के साथ ही मानसिक रोगों-मनोविकृतियों से उत्पन्न विपन्नता से छुटकारा पाने के लिए यज्ञ चिकित्सा से बढ़कर अन्य कोई उपयुक्त उपाय-उपचार नहीं है, विविध अध्ययन, अनुसंधानों एवं प्रयोग-परीक्षणों द्वारा ऋषि प्रणीत यह तथ्य अब सुनिश्चित होता जा रहा है।

विश्वस्तर पर जिस गंभीरता एवं मनोयोग से मूर्धन्य वैज्ञानिकों, मनीषियों, चिकित्सा विशेषज्ञों द्वारा इस दिशा में शोध प्रयत्न चल रहे हैं और उसके जो सत्परिणाम सामने आये हैं, उसे देखते हुए पूर्णतः विश्वास किया जा सकता है कि अगले दिनों निश्चय ही यज्ञोपचार के रूप में एक ऐसी सर्वांगपूर्ण चिकित्सा पद्धति का विकसित स्वरूप सामने आयेगा, जो सभी प्रकार की बीमारियों से मनुष्य की रक्षा कर सकेगी।

इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है कि कायिक एवं मानसिक रोगों में जिन तत्वों की कमी पड़ जाती है, उन्हें यज्ञीय ऊर्जा से आसानी से श्वास द्वारा खींच लिया जाता है। साथ ही प्रश्वास द्वारा भीतर घुसी हुई अवांछनीयता को, विकृतियों, विषाक्तताओं को बाहर धकेलकर सफाई का आवश्यक प्रयोजन पूरा कर लिया जाता है। बहुमुखी संतुलन बिठाने का यह उपयुक्त एवं सशक्त माध्यम है।

छान्दोग्योपनिषद ४/१६/१ का मंत्र है-

“एष ह वै यज्ञो योऽयं पवत एष ह यन्निद ॐ सर्वं पुनाति ।
यदेष यन्निद थे सर्वं पुनाति तस्मादेष एव यज्ञः……….॥”

अर्थात् पर्यावरण की विषाक्तता के निराकरण का सर्वोत्तम उपाय व साधन यज्ञ है। यह समस्त विषाक्तताओं, अशुद्धियों, विकृतियों अर्थात प्रदूषण को दूर करके वायुमंडल एवं वातावरण को शुद्ध व पवित्र बनाता है। यज्ञ में पर्यावरण परिशोधन एवं प्राणपर्जन्य के परिपोषण का सर्वाधिक महत्वपूर्ण गुण है। इसके द्वारा वातावरण शुद्ध, सुगंधमय, जीवाणु-विषाणु रहित, प्रसन्नतादायक व प्रीतिदायक बनता है। इससे मनुष्य का मन व भावनायें, बुद्धि, स्मृति निर्मल बनती है, बल-पौरुष की अभिवृद्धि होती है।

रोगों का नाश होता है तथा इम्यूनसिस्टम अर्थात प्रतिरक्षा प्रणाली मजबूत बनती है। गोघृत में योगवाही एवं विस्तृत या विशद गुण होने के कारण हविर्द्रव्य भी इसके संयोग से हवन द्वारा वायुभूत होकर या प्राणरूप होकर वायुमंडल में वृहत् आयतन धारण कर लेते हैं और यजनकर्ता के साथ ही वृक्ष-वनस्पतियों से लेकर समूचे प्राणिजगत के लिए लाभदायक सिद्ध होते हैं। पृथ्वी की उर्वराशक्ति बढ़ाने से लेकर प्रकृतिचक्र को संतुलित बनाने में यज्ञ की महत्वपूर्ण भूमिका होती है।

यज्ञ चिकित्सा विज्ञान का उद्देश्य विश्वमानवता को समग्र स्वास्थ्य उपलब्ध कराना है। यज्ञ की सर्वोपरि महिमा-महत्ता को समझाने एवं उससे मिलने वाले प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लाभों के प्रति जनसामान्य में अभिरुचि उत्पन्न करने तथा उससे लाभान्वित करने की दृष्टि से छः दशक से अधिक लम्बी अवधि तक सतत किये गये गहन वैज्ञानिक अध्ययन, अनुसंधान एवं प्रयोग – परीक्षणों के उपरान्त मिले बहुआयामी सत्परिणामों के बाद यह पुस्तक प्रस्तुत की गयी है। इसमें यज्ञ चिकित्सा का सामान्य विधि-विधान, रोगानुसार हवनोपचार आदि विषयों को उचित विस्तार, आवश्यक जानकारी एवं प्रमाणों के साथ प्रस्तुत किया गया है।

यज्ञ विज्ञान के विविध अंगों पर शोध-अनुसंधान निरंतर जारी है। हमें पूर्ण विश्वास है कि यज्ञ चिकित्सा विज्ञान का परीक्षित और प्रामाणिक स्वरूप सबके सामने आ जाने से न केवल भारतीय धर्म और संस्कृति के जनक ‘यज्ञ’ की प्रतिष्ठा, उपयोगिता एवं गरिमा सर्व स्वीकार्य होगी, वरन् इसके आधार पर अनुसंधानकर्ताओं, चिकित्सा विज्ञानियों को शारीरिक, मानसिक व आध्यात्मिक उपचार के नये आयाम विकसित करने में सहायता मिलेगी और विभिन्न प्रकार की आधि-व्याधियों से छुटकारा पाने वाला जनसमाज भी ऋषिप्रणीत इस उपलब्धि को अपने युग का सर्वोपरि वरदान मानेगा।

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