अष्टांगयोग की विषयसामग्री का प्रारम्भ शिष्य की जिज्ञासा से होता है
चर्चा का विषय है संयम । उनके दृष्टिकोण से संयम के बिना संसार की कोई भी ( प्रत्येक ) वस्तु निरर्थक है । मनुष्य को प्रत्येक क्षेत्र में उसकी सीमा का ज्ञान आवश्यक है । आहार संयम की आधारशिला है ।
इसलिये वे कहते हैं “प्रथम सूक्षम भोजन खावे , क्षुधा मिटे नहिं आलस आवे” आदि , तथा मन के क्षेत्र में :-
” काम क्रोध मद लोभ अरु राखे ना अभिमान ।
रहै दीनताई लिये लगे न माया बान “
कह कर उन्होंने संयम का प्रभाव दोनों स्तर पर बताया है मानसिक एवं शारीरिक ।
इसके बाद यम – नियम आदि की विस्तार से चर्चा है ।
यम के उन्होंने दस अंग माने हैं । जिसमें स्पष्ट है कि उन्होंने वसिष्ठसंहिता का अनुसरण किया है , पतंजलि का नहीं । उनके अनुसार अंहिसा का प्रभाव व उपयोग मानसिक व शारीरिक दोनों ही स्तर पर संयम की तरह होना चाहिये । यही बात नियम के बारे में भी लागू होती है ।
आसन के बारे में वे कहते हैं
“चौरासी लख आसन जानो , योनिन की बैठक पहिचानो , तिन में चौरासी चुग लीन्हें दुरलभ भेद सुगम सो कीन्हें , ‘तिनमें दोय अधिक परधान’ ।
अतः स्पष्ट है कि वे पद्मासन और सिद्धासन को आधिक महत्व देते हैं । उन के अनुसार शेष आसन निरोगी शरीर रखने के लिये हैं , और उपर्युक्त दो ही आसन योग साधने के लिये हैं । “अरु आसन सब रोग भजावें । ये दो आसन योग सधावै ”आसन के बाद उन्होंने दस वायु का वर्णन किया है तथा यह बताया है कि उनका स्थान कहां – कहां है तथा उनके क्या – क्या कार्य हैं ।
तत्पश्चात् शरीर में स्थित भिन्न – भिन्न चक्रों का वर्णन है । यह बड़े ही विशद् रूप से है , जो हठप्रदीपिका या घेरण्डसंहिता में नहीं मिलता है । चक्रों के साथ ही नाडी तथा प्रणव के बारे में बताते हुए प्राणायाम करते समय मात्रा के रूप में उसका उपयोग बताया है ।
इन्होंने प्राणायाम के आठ प्रकार बताये हैं और तत्पश्चात् प्रत्याहार का वर्णन किया है । वे कहते हैं
“विषय ओर इन्द्री जो जावे अपने स्वादन को ललचावे ।
तिनकी और न जाने देई प्रत्याहार कहावे सोई” ।।
वे यह मानते हैं कि प्रत्याहार , प्राणायाम की सफलता पर निर्भर करता है ।
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