आर्ष योगप्रदीपिका
Arsh Yogpradeepika

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Description

पातञ्जल योग ही वैदिक योग है कारण कि वैदिक धर्म में ईश्वर , जीव और प्रकृति ये तीन पदार्थ अनादि हैं । ग्राह्यमार्ग द्वारा प्रकृति का ज्ञान , ग्रहणमार्ग द्वारा ‘ अहम् अस्मि – मैं हूं ‘ अपने अस्तित्व का बोध होता है और ग्रहीतृमार्ग में ब्रह्म का साक्षात्कार होता है ।

ग्राह्य ग्रहण , ग्रहीतृरूप मार्ग ही ऋषि – मुनियों का मार्ग है । यही उपनिषदों का मार्ग है , इसे राजयोग मार्ग या राजमार्ग योग कहते हैं ।

इस में भूलने भटकने का अवसर नहीं अतः यही उपादेय है । इस शास्त्र के चार भाग चार पादों के नाम से हैं जिनमें प्रथम समाधिपाद है , दूसरा साधनपाद , तीसरा विभूतिपाद और चौथा कैवल्यपाद है ।

समाधिपाद का प्रयोजन है योग के अन्तिम अंग समाधि के भेदों तथा योग के स्वरूप और सिद्धान्तों का प्रकाश करना और पूर्वजन्म से विशुद्ध एवं स्थिरता के संस्कारों को प्राप्त हुए जन को योगपथ पर चल पड़ने का उपाय दर्शाना ।

दसरे साधनपाद में योग के साधनों का प्रतिपादन और अस्थिरचित्त को समाधि प्राप्ति के योग्य बनाना ।

तीसरे विभूतिपाद में योगी को स्वतः प्राप्त होने वाली एवं साधने योग्य विभूतियों सिद्धियों का वर्णन तथा योग में रुचि दिलाना ।

चौथे कैवल्यपाद में विभूतियों से भी ऊपर कैवल्य सुख परमात्मदर्शन , प्राकृतिक एवं चित्त के सम्पर्क से विमुक्त केवलता को दर्शाना और प्राप्त कराना ।

इस भाष्य में पतञ्जलि ऋषि के सूत्रों एवं व्यास ऋषि के भाष्य का भाषानुवाद किया गया है । योग के सम्बन्ध में केवल ऋषियों के वचनों पर ही लेख होने से इसका नाम ‘ आप योगप्रदीपिका ‘ रखा है । यहां पतञ्जलि के सूत्रों का प्रथम अर्थ और किसी किसी क्लिष्ट सूत्र पर विवरण दिया गया है पुन : व्यास भाष्य का अनुवाद किया गया है ।

क्वचित् क्वचित् उस पर स्पष्टीकरण भी दिया गया है । आशा है स्वाध्यायी और योगविषयक वर्णन के जिज्ञासु जन इसका स्वागत करेंगे । इति ।

-ब्रह्ममुनि परिव्राजक

 

सम्मति

श्री स्वामी ब्रह्ममुनि जी सचमुच ब्रह्मज्ञान के मननकर्ता हैं । वेद और आर्ष ग्रन्थों के स्वाध्याय का स्वाद वे अकेले नहीं लेते , प्रत्युत दूसरों को भी उसमें सम्मिलित करते हैं । इससे पूर्व स्वामी जी महाराज तेंतीस ग्रन्थों द्वारा अपने स्वाध्याय का रसास्वादन जनता को करा चुके हैं । यह चौंतीसवां ग्रन्थ योगविषयक है ।

स्वामी जी स्वयम् एक अभ्यासी विद्वान् हैं । केवल अभ्यासी ही नहीं , और केवल विद्वान् ही नहीं , प्रत्युत विद्वान् अभ्यासी हैं । इससे इनके प्रस्तुत ग्रन्थ का महत्त्व और उपयोग समझा जा सकता है स्वामी जी ने इस ग्रन्थ में महर्षि पतञ्जलि जी के योगसूत्रों का अर्थ और उनकी व्याख्या के साथ , सूत्रों पर सर्वसम्मत प्रामाणिक व्यासकृतभाष्य का भी भाषानुवाद दे दिया है । इस से पूर्व यद्यपि व्यासभाष्य का एकाध भाषानुवाद प्रकाशित हो चुका है , परन्तु उसमें सूत्रव्याख्या की उपेक्षा की गई है ।

स्वामी जी की सूत्रव्याख्या भाष्यार्थ समझने में अच्छी सहायता देती है । यह अनुवाद की एक विशिष्ट । भाष्य का अनुवाद भी कई विशेषताओं से युक्त है , जो पाठकों को स्वयं प्रतीत होगी ।

ऐसे उत्तम ग्रन्थ प्रस्तुत करने के लिए मुनि जी को धन्यवाद ।

  स्वामी वेदानन्दतीर्थ

अध्यक्ष सार्वदेशिक दयानन्द भिक्षुमण्डल ।

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