वैदिक दर्शन
Vedic Darshan

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वेद आर्यजाति के प्राण हैं । ये मानवमात्र के लिए प्रकाश – स्तम्भ हैं । विश्व को संस्कृति और सभ्यता का ज्ञान देने का श्रेय वेदों को है । वेद ही विश्व – बन्धुत्व , विश्व कल्याण और विश्व शान्ति के प्रथम उद्घोषक हैं । वेदों से ही आर्य – संस्कृति का विकास हुआ है , जो विश्व को धर्म , ज्ञान , विज्ञान , आचार – विचार और सुख – शान्ति की शिक्षा देकर उसकी समुन्नति का मार्ग प्रशस्त करती है । वेदों के विषय में मनु महाराज का यह कथन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है कि ‘ सर्वज्ञानमयो हि सः ‘ ( मनु ० २.७ ) अर्थात् वेदों में सभी विद्याओं के सूत्र विद्यमान हैं । वेदों में जहाँ धर्म , विज्ञान , दर्शन , आचारशास्त्र , नीतिशास्त्र , आयुर्वेद , राजनीतिशास्त्र , समाजशास्त्र , अर्थशास्त्र आदि से संबद्ध सामग्री प्रचुर मात्रा में मिलती है , वहीं दर्शनशास्त्र और अध्यात्म से संबद्ध सामग्री भी सैकड़ों मंत्रों में प्राप्य है । प्रस्तुत ग्रन्थ में इसका ही विवेचन और विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है । धर्म , दर्शन और अध्यात्म – विज्ञान का आदि – प्रवर्तक भारतवर्ष ही है । भारतवर्ष से ही इन विषयों का विस्तार विश्व भर में हुआ है । दर्शन और अध्यात्म ज्ञान के लिए सारा विश्व भारत का ऋणी है । इन विषयों का जितना गम्भीर मनन और चिन्तन भारत में हुआ है , उतना अन्यत्र नहीं । दर्शनशास्त्र विश्व की अमूल्य निधि है । वेदो में दर्शन और अध्यात्म से संबद्ध सामग्री बहुत बिखरी हुई है । उसका विषयानुसार क्रमबद्ध संकलन अंतिक्लिष्ट कार्य है । मैंने प्रयत्न किया है कि दर्शनशास्त्र से संबद्ध समस्त सामग्री क्रमबद्ध रूप में एकत्र करके प्रस्तुत की जाए । विषय से संबद्ध कोई सामग्री छूटने न पावे ।

विषय की दृष्टि से समस्त सामग्री को १३ अध्यायों में बांटा गया है । इनमें इन विषयों का विवेचन है

अध्याय १- भूमिका में दर्शनशास्त्र के उद्भव और विकास का विवरण दिया गया है । साथ ही भारतीय दर्शनों की विशेषताएं और प्रमुख आचार्यों का विवरण है ।

अध्याय २ – इसमें विराट् और पुरुष का स्वरूप , विविध रूप , सर्वदेवमयत्व एवं उसकी प्राप्ति के उपायों का वर्णन है ।

अध्याय ३ – इसमें ब्रह्म का स्वरूप , ब्रह्म के विविध रूप और उसकी प्राप्ति के साधनों का विवेचन है ।

अध्याय ४- इसमें ब्रह्म के स्कम्भ , उच्छिष्ट , रोहित , अनड्वान् और व्रात्य आदि रूपों का विस्तृत विवेचन है ।

अध्याय ५ – इसमें ईश्वर का स्वरूप , सृष्टि – कर्तृत्व , हंस , माया और अविद्या आदि का वर्णन है ।

अध्याय ६- इसमें ईश्वर और जीवात्मा का संबन्ध , जीवात्मा का स्वरूप , जीवात्मा के गुण – कर्म , पुनर्जन्म सिद्धान्त और कर्म – मीमांसा का विवेचन है ।

अध्याय ७ इसमें प्रकृति का स्वरूप , प्रकृति के गुण – धर्म , सूक्ष्म शरीर आदि का वर्णन है ।

अध्याय ८ – इसमें एकेश्वरवाद और त्रैतवाद तथा एकदेवतावाद और बहुदेवतावाद का वर्णन है । साथ ही देवों का स्वरूप , देवों के भेद , देवों के निवास स्थान एवं देवों की संख्या आदि का विस्तृत विवेचन है ।

अध्याय ९ इसमें मन का स्वरूप , मन के गुण – कर्म , मन और बुद्धि का समन्वय , शिवसंकल्प , पाप के कारण आदि का विवेचन है ।

अध्याय १० इसमें कर्ममीमांसा , वाक्तत्त्व , काल का महत्त्व , श्रेय और प्रेय आदि दार्शनिक विचारों का विवेचन है ।

अध्याय ११ – इसमें मधुविद्या प्राणविद्या , ब्रह्मविद्या , ब्रह्मौदन , पंचौदन आदि आध्यात्मिक विद्याओं का वर्णन है ।

अध्याय १२ इसमें सृष्टि – उत्पत्ति का वर्णन है ।

अध्याय १३ – इसमें ईश्वर प्राप्ति के विभिन्न साधनों का वर्णन है ।

मैंने प्रयत्न किया है कि दर्शनशास्त्र जैसे गूढ़ विषय को अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत किया जाए । आवश्यक सभी संदर्भ पूर्ण विवरण के साथ पाद – टिप्पणी में दिये गये हैं । उपयोगिता की दृष्टि से ग्रन्थ के अन्त में विस्तृत निर्देशिका ( हों ) भी दी गई है । मैंने मन्त्रार्थ के विषय में महर्षि पतंजलि के इस वैज्ञानिक मन्तव्य को अपनाया है । कि ‘ यच्छब्द आह तदस्माकं प्रमाणम् ‘ ( महाभाष्य , आह्निक १ ) अर्थात् जो शब्द कहता है , वह हमारे लिए प्रमाण है । मंत्र के पाठ से जो अर्थ स्वयं प्रस्फुटित होता है , उस अर्थ को ही अपनाया गया है । आशा है यह ग्रन्थ वेदप्रेमी पाठकों एवं प्रबुद्ध जनों को रूचिकर होगा । ग्रन्थ के विषय में आवश्यक संशोधन आदि के परामर्श सधन्यवाद स्वीकार किये जायेंगे

डॉ ० कपिलदेव द्विवेदी

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