मनुस्मृति का पुनर्मूल्यांकन
Manusmariti Ka Punarmulyankan

400.00

  • By :Dr. Surendera Kumar
  • Subject :Study about Manusmriit
  • Category :Comparative Study
  • Edition :1st
  • Publishing Year :2015
  • SKU# :N/A
  • ISBN# :9788171105014
  • Packing :N/A
  • Pages :304
  • Binding :Hard Cover
  • Dimentions :8.5 INCH X 5.5 INCH
  • Weight :510 GRMS
Description

प्रस्तुत पुस्तक में मनु और मनुस्मृति विषयक पूर्व स्थापित उन एकांगी, समीक्षाओं, भ्रमों और भ्रान्तियों पर विचार करके पुनर्मूल्यांकन प्रस्तुत किया गया है। विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि प्रमाणाधारित
पुनर्मूल्यांकन तटस्थ पाठकों को स्वीकार्य प्रतीत होंगे और पूर्वाग्रह-गृहीत पाठकों को भी इसके निर्णय पुनर्विचार के लिए बाध्य करेंगे।

पुस्तक परिचयः मनुस्मृति का पुनर्मूल्यांकन

(प्रक्षेपानुसन्धान हेतु नवप्रवर्तित साहित्यिक मानदण्डों पर आधारित विश्लेषण)

लेखक:- डा. सुरेन्द्र कुमार

भूमिका

भारतीय साहित्य का दुर्भाग्य और उसका दुष्प्रभाव

भारतीय प्राचीन संस्कृत साहित्य में समय – समय पर किये गये प्रक्षेपों के अनुसन्धान के लिए साहित्यिक सात मानदण्डों पर आधारित शोध – प्रविधि का नवप्रवर्तन एवं प्रस्तुतीकरण मैने सन् १ ९ ७५ में किया था , जो कुछ वर्षों बाद आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट , ४५५ खारी बावली दिल्ली -६ से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘ दयानन्द सन्देश ‘ के विशेषांक के रूप में प्रकाशित भी हो गया था । पुनः उन स्थापित मानदण्डों के आधार पर मैंने मनुस्मृति के प्रक्षेपों का अनुसन्धान किया और स्वकृत भाष्य में उनको समीक्षा सहित पृथक् – पृथक् दर्शाकर यह बताया कि उपलब्ध मनुस्मृति के २६८५ श्लोकों में से १२१४ मौलिक तथा १४७१ प्रक्षिप्त सिद्ध होते हैं । इस मनुस्मृति भाष्य का प्रथम संस्करण उक्त प्रकाशक द्वारा सन् १ ९ ८१ में प्रकाशित हुआ था । आज उसके सात संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं ।

पाठकों की मांग पर प्रक्षिप्त श्लोकों से रहित ‘ विशुद्ध मनुस्मृति ‘ नामक संस्करण भी तैयार किया गया । उसके भी सात संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं । उसी शोध – प्रविधि को विस्तृतरूप में अब ‘ मनुस्मृति का पुनर्मूल्यांकन ‘ पुस्तक के स्वरूप में प्रस्तुत किया जा रहा है । यह सर्वविदित और सिद्ध तथ्य है कि प्राचीन संस्कृत साहित्य के अनेक ग्रन्थों में समय – समय पर प्रक्षेप होते रहे हैं । मनुस्मृति , वाल्मीकीय रामायण , महाभारत , निरुक्त , चरक संहिता , पुराण आदि इसके प्रमाणसिद्ध उदाहरण हैं ।

प्राचीन ग्रन्थों में प्रक्षेप होने के अनेक कारण रहे हैं । उनमें से एक कारण यह भी है कि उस ग्रन्थ – विशेष की परम्परा के अर्वाचीन व्यक्ति अपने स्वतन्त्र ग्रन्थ न लिखकर उस परम्परा के प्रचलित प्रसिद्ध ग्रन्थ में ही परिवर्तन – परिवर्धन , निष्कासन – प्रक्षेपण करते रहे हैं । चीनी साहित्य के एक उल्लेख में मनुस्मृति में ६८० श्लोक बतलाये हैं , जबकि वर्तमान में उपलब्ध मनुस्मृति में २६८५ श्लोक मिलते हैं ।

वाल्मीकीय रामायण विषय – सूची के अनुसार उसमें छह काण्ड और कुछ हजार ही मौखिक श्लोक होने सिद्ध होते हैं ; और बौद्ध ग्रन्थ ‘ अभिधर्म महाविभाषा ‘ में तो रामायण में बारह हजार श्लोक बतलाये हैं

जबकि आज उपलब्ध संस्करणों में २२०००-२४००० श्लोक मिलते हैं । ‘ महाभारत ‘ में आज एक लाख श्लोक मिलते हैं , जबकि स्वयं महाभारत के आदिपर्व में कहा है कि इससे पूर्व इसका नाम ‘ भारतसंहिता ‘ था , जिसमें २४,००० श्लोक थे , और उससे भी पूर्व इसका मौलिक रूप और नाम ‘ जय ‘ काव्य था , जिसमें ६००० या ८८०० श्लोक ही थे । महाभारत परम्परा के व्यक्ति इसका संवर्धन करते चले गये ।

‘ निरुक्त ‘ और ‘ चरकसंहिता ‘ के अन्तिम अध्याय उस परम्परा के शिष्यों द्वारा लिखकर उसमें संयुक्त किये गये हैं , ऐसा समीक्षक मानते हैं । प्रक्षेप – प्रक्रिया को प्रामाणिक रूप में समझने के लिए ‘ भविष्यपुराण ‘ एक स्पष्टतम उदाहरण है । मूल ‘ भविष्यपुराण ‘ की रचना का अनुमानित समय ५००-३०० ईसापूर्व है ,

किन्तु उसमें परवर्ती और अति अर्वाचीन मुस्लिम राजाओं और अंग्रेजों शासकों का भी वर्णन है । स्पष्ट है कि इस पुराण का वह नवीन भाग क्रमशः मुस्लिम और अंग्रेजी शासनकाल में लिखा गया है । हो सकता है , स्वतन्त्रता के उपरान्त के शासन काल इतिहास भी कुछ वर्षों में चुपचाप जुड़ जाये ! हिन्दी के प्रसिद्ध रामकाव्य ‘ रामचरित मानस ‘ में ‘ लव – कुश काण्ड ‘ भाग नहीं है , किन्तु आज रामचरितमानस ‘ लवकुश काण्ड ‘ सहित मिलने लगा है ।

हमारे देखते – देखते ‘ लवकुशकाण्ड ‘ रामचरितमानस का मूल भाग बन रहा है और समय बीतने पर उसको भी तुलसीदास रचित माना जाने लगेगा ।

ऐसा अनेक ग्रन्थों के साथ हुआ है , और हो रहा है । दूसरों के ग्रन्थों में परिवर्तन परिवर्धन , निष्कासन प्रक्षेपण की यह दुर्भाग्यपूर्ण प्रवृत्ति बहुत हानिकारक रही है ।

इससे तत्कालीन इतिहास , संस्कृति , सभ्यता , परम्परा की विशुद्धता नष्ट होकर उनमें घालमेल उत्पन्न हुआ है । अतीत का सामाजिक , सांस्कृतिक और राजनीतिक इतिहास विकृत हुआ है , व्यक्तियों और ग्रन्थों का कालनिर्णय संदेहग्रस्त हो गया है ।

उनके उचित मूल्यांकन के लिए आवश्यक है कि पहले मौलिक और परवर्तीकालीन प्रक्षेपों को पृथक् किया जाये और फिर इतिहास एवं साहित्य का लेखन किया जाये , अन्यथा हम प्राचीन इतिहास को कभी सही स्वरूप में नहीं जान पायेंगे ।

उनके सम्बन्ध में भ्रम और विवाद बने रहेंगे । प्रक्षेपों के अनुसन्धान के लिए प्रवर्तित वे मानदण्ड हैं

१. परस्परविरोध ( अन्तर्विरोध )

२. अवान्तरविरोध

३. प्रकरणविरोध ( विषयविरोध )

४. प्रसंगविरोध

५. पुनरुक्तियां

६. शैलीविरोध

७. वेदविरोध ( केवल मनुस्मृति हेतु प्रयुक्त ) ये प्रत्येक पूर्वाग्रह से रहित , साहित्यिक और तटस्थ मानदण्ड हैं , जिन्हें किसी भी ग्रन्थ पर कोई भी शोधकर्ता स्वयं चरितार्थ कर सकता है ।

प्रस्तुत पुस्तक ‘ मनुस्मृति का पुनर्मूल्यांकन ‘ में उक्त सभी मानदण्डों का सोदाहरण परिचय दिया गया है , जिनको चरितार्थ करने से हमें मनुस्मृति में समय – समय पर किये गये प्रक्षिप्त श्लोकों का ज्ञान होता है और उसका मौलिक स्वरूप उभर कर सामने आता है ।

हम जानते हैं कि प्रक्षिप्त श्लोकयुक्त मनुस्मृति को आधार बनाकर जो आज समीक्षाएँ उपलब्ध हैं , उनसे राजर्षि मनु और मनुस्मृति की छवि धूमिल हुई है , उनके विषय में भ्रम और भ्रान्तियां फैली हैं । उन समीक्षाओं के कारण प्राचीन भारत के अतीत का ऐतिहासिक स्वरूप भी विद्रूप हुआ है और गौरव भी नष्ट है ।

आश्चर्य है कि प्रचलित मनुस्मृति में परस्परविरोधी , प्रसंगविरोधी , प्रकरण – विरोधी विधान विद्यमान होते हुए भी समीक्षकों ने इस विरोध पर चिन्तन नहीं किया कि किसी विषयविशेषज्ञ राजर्षि के शास्त्र में ये बातें क्यों हैं ? और क्या मनु जैसे परम विद्वान् के ग्रन्थ में इन विरोधी बातों का होना स्वीकार्य माना जा सकता है ? इस तथ्य को तो समीक्षकों ने सोचा ही नहीं , ऊपर से उनकी समीक्षा में एक विडम्बना यह मिलती है कि उन्होंने गौरववर्धक मौलिक श्लोकों को उपेक्षित किया है और प्रक्षिप्त नवीन से नवीन श्लोकों को अपने निर्णयों का आधार बनाया है । उनको अपनी समीक्षा में इस प्रश्न का उत्तर देना चाहिए था कि उन्होंने एकपक्षीय श्लोकों को आधार मानकर समीक्षा की प्रस्तुति क्यों की ? ऐसा करके निश्चय ही उन्होंने समीक्षा – धर्म के साथ न्याय नहीं किया ।

उस अन्याय का इतिहास और समाज पर गहरा तथा व्यापक दुष्प्रभाव हुआ है । उसको भारत आज अनेक समस्याओं के रूप में भोग रहा है ।

इस पुस्तक में मनु और मनुस्मृति विषयक पूर्व स्थापित उन एकांगी , समीक्षाओं , भ्रमों और भ्रान्तियों पर विचार करके उनका पुनर्मूल्यांकन प्रस्तुत किया है । विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि प्रमाणाधारित पुनर्मूल्यांकन तटस्थ पाठकों को स्वीकार्य प्रतीत होंगे और पूर्वाग्रह – गृहीत पाठकों को भी इसके निर्णय पुनर्विचार के लिए बाध्य करेंगे ।

आशा है पाठक तटस्थ भाव से इस पुस्तक को पढ़ेंगे । प्रो . ज्ञान प्रकाश शास्त्री , अध्यक्ष स्वामी श्रद्धानन्द वैदिक शोधसंस्थान , गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार ने इस पुस्तक की साजसज्जा और अशुद्धि निवारण में पर्याप्त सहयोग किया है , एतदर्थ मैं उनका हृदय से धन्यवाद करता हूँ ।

परिमल पब्लिकेशन के अधिष्ठाता श्री परिमल जोशी ने इस ग्रन्थ के प्रकाशन का दायित्व सहर्ष स्वीकार किया है । उनके इस प्रकाशन से मनुस्मृति के भ्रान्ति निवारण अभियान में योगदान मिलेगा ।

इस प्रकाशन के कारण साहित्य जगत् में उन्हें बहुश : उद्धृत किया जायेगा । अतः मैं परिमल प्रकाशन के स्वामी श्री परिमल जोशी का हार्दिक धन्यवाद करता हूँ ।

विनीतः

डॉ . सुरेन्द्रकुमार

कुलपति

गुरुकुल काँगड़ी विश्वविद्यालय हरिद्वार

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