सम्पादकीय निवेदन चिरप्रतीक्षित ” अद्वैत मीमांसा ” अब आपके सम्मुख है । प्रस्तुत विषय जितना जटिल है उतना ही उपयोगी भी । यही कारण है कि इस विषय पर प्राचीन काल से निरन्तर विवेचनाएँ होती रही हैं । गौडपादाचार्य एवं शंकराचार्य का नाम इस प्रसंग में बहुत प्रयुक्त होता है । अनेक सुधीजन ऐसे भी हैं जो उनके वाक्यों को ‘ ब्रह्म वाक्य मानते हुए उसके इतस्तत : कुछ भी विचार करने के लिए उद्यत नहीं । आप्त पुरुषों के प्रति श्रद्धाभाव हृदयगत विषय है किन्तु मनीषि – जन बुद्धि के प्रयोग को नितरों अस्वीकार नहीं कर सकते । गौडपादाचार्य एवं शंकराचार्य की विवेचनाएँ स्वयं में ही परस्पर विरोधी होने के कारण सुविज्ञ साधकों एवं पाठकों को सर्वतोमाही नहीं हैं । मनीषि – चिन्तक श्री गुरुदत्त जी का यह प्रयास अद्वितीय है । अपने अष्ट दशाब्दों के अनुभव , अध्ययन , मनन , चिन्तन एवं अनुशीलन का जो सार उन्होंने प्रस्तुत किया है । वह प्रचलित परम्परा से परे भले ही हो किन्तु होगा नितान्त उपयोगी । आशा है पाठकगण इसका आद्योपान्त अध्ययन कर इससे लाभान्वित होंगे ।
प्रथम उपन्यास ” स्वाधीनता के पथ पर ” से ही ख्याति की सीढ़ियों पर जो चढ़ने लगे कि फिर रुके नहीं । उपन्यासों में भी शास्त्रों का निचोड़ तो मिलता ही है , रोचकता के विषय में इतना कहना ही पर्याप्त है कि उनका कोई भी उपन्यास पढ़ना आरम्भ करने पर समाप्त किये बिना छोड़ा नहीं जा सकता । विज्ञान की पृष्ठिभूमि पर वेद , उपनिषद् दर्शन इत्यादि शास्त्रों का अध्ययन आरम्भ किया तो उनको ज्ञान का अथाह सागर देख उसी में रम गये । वेद , उपनिषद् तथा दर्शन शास्त्रों की विवेचना एवं अध्ययन अत्यन्त सरल भाषा में प्रस्तुत करना गुरुदत्त की ही विशेषता है ।
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