यज्ञ मीमांसा
Yagya Mimansa

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  • By :Acharya Dr. Ramnath Vedalankar
  • Subject :Science of Yagya – Hawan
  • Category :Research

 

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Description

ईश्वर स्तुति प्रार्थना उपासना मंत्र व भावार्थ-

१. ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।

यद् भद्रं तन्न आसुव।। यजुर्वेद-३०.३

तू सर्वेश सकल सुखदाता शुद्धस्वरूप विधाता है।

उसके कष्ट नष्ट हो जाते

शरण तेरी जो आता है।।

सारे दुर्गुण दुर्व्यसनों से

हमको नाथ बचा लीजै।

मंगलमय गुण कर्म पदार्थ

प्रेम सिन्धु हमको दीजै

२.ओ३म् हिरण्यगर्भः समवर्त्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-१३.४

तू स्वयं प्रकाशक सुचेतन, सुखस्वरूप त्राता है

सूर्य चन्द्र लोकादिक को तो तू रचता और टिकाता है।।

पहिले था अब भी तू ही है

घट-घट में व्यापक स्वामी।

योग, भक्ति, तप द्वारा तुझको,

पावें हम अन्तर्यामी।।

३.ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः। यस्यच्छायामृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२५.१३

तू आत्मज्ञान बल दाता,

सुयश विज्ञजन गाते हैं।

तेरी चरण-शरण में आकर, भवसागर तर जाते हैं।।

तुझको जपना ही जीवन है,

मरण तुझे विसराने में।

मेरी सारी शक्ति लगे प्रभु,

तुझसे लगन लगाने में।।

४. ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैक इद्राजा जगतो बभूव। य ईशेsअस्य द्विपदश्चतुश्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद-२६.३

तूने अपनी अनुपम माया से

जग ज्योति जगाई है।

मनुज और पशुओं को रचकर

निज महिमा प्रगटाई है।।

अपने हृदय सिंहासन पर

श्रद्धा से तुझे बिठाते हैं।

भक्ति भाव की भेंटें लेकर

शरण तुम्हारी आते हैं।।

५.ओ३म् येन द्यौरुग्रा पृथिवी च दृढा येन स्वः स्तभितं येन नाकः।। योsअन्तरिक्षे रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।।

यजुर्वेद -३२.६

तारे रवि चन्द्रादि रचकर

निज प्रकाश चमकाया है

धरणी को धारण कर तूने

कौशल अलख जगाया है।।

तू ही विश्व-विधाता पोषक,

तेरा ही हम ध्यान धरें।

शुद्ध भाव से भगवन् तेरे

भजनामृत का पान करें।।

६.ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परिता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोsअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ऋग्वेद-१०.१२१.१०

तूझसे बडा न कोई जग में,

सबमें तू ही समाया है।

जड चेतन सब तेरी रचना,

तुझमें आश्रय पाया है।।

हे सर्वोपरि विभो! विश्व का

तूने साज सजाया है।

शक्ति भक्ति भरपूर दूजिए

यही भक्त को भाया है

७.ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा। यत्र देवा अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।।

यजुर्वेद-३२.१०

तू गुरु प्रजेश भी तू है,

पाप-पुण्य फलदाता है।

तू ही सखा बन्धु मम तू ही,

तुझसे ही सब नाता है।।

भक्तों को इस भव-बन्धन से,

तू ही मुक्त कराता है

तू है अज अद्वैत महाप्रभु

सर्वकाल का ज्ञाता है।।

८. ओ३म् अग्ने नय सुपथा राये अस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान्। युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नम उक्तिं विधेम ।। यजुर्वेद -४०.१६

तू स्वयं प्रकाश रूप प्रभो

सबका सिरजनहार तू ही

रसना निश दिन रटे तुम्हीं को,

मन में बसना सदा तू ही।।

कुटिल पाप से हमें बचाना

भगवन् दीजै यही विशद वरदान।।

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