वैशाली विलय Vaishali Vilay
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- By :Gurudutt
- Subject :Historical Novel
- Category :Historical Novel
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तक्षशिला विश्वविद्यालय में वसंत महोत्सव मनाया जा रहा था । (Vaishali Vilay) फाल्गुन सुदी पञ्चमी से यह उत्सव आरम्भ होकर दस दिन तक चला करता था । विश्वविद्यालय के विद्यार्थी – गण , अध्यापक – वर्ग और देश – विदेशों से आये हुए प्रतिष्ठित दर्शक इस महोत्सव में सरुचि भाग ले रहे थे । धनुष – बाण के करतब , युद्ध व्यूह रचना , दौड़ इत्यादि के खेल , मल्ल – युद्ध रथों की दौड़ , खड्ग तथा भालों के युद्ध इत्यादि शारीरिक व्यायामों में प्रतियोगिता के प्रदर्शन में आठ दिन लग गये । इन सब दिनों में कार्यक्रम इतना रोचक और उत्तेजक रहा कि दर्शक उत्सुकता और उद्वेग से उत्तेजित हो उठते थे । इन खेलों में विद्यार्थी भाग ले रहे थे और अध्यापक , दर्शक तथा अन्य विद्यार्थी देखने वाले थे ।
फिर पढ़ने – लिखने के विषयों में भी प्रतियोगिता हुई । इसमें कवि समारोह , संगीत – सभा , राजनीतिक गोष्ठियाँ इत्यादि कार्यक्रम थे । तक्षशिला विश्वविद्यालय के अधीन एक महिला महाविद्यालय भी था । महिला आश्रम पुरुष गृह से आगे कोस के अन्तर पर था और वहाँ शिक्षिकाएं भी महिलाएं ही थीं । कभी – कभी विशेष उत्सवों पर अथवा अन्य समारोह पर बालक बालिकाएं , पुरुष स्त्रियां अध्यापक अध्यापिकाएं एकत्रित होते थे । परीक्षा के समय भी लड़कियां विश्वविद्यालय के मुख्य भवन में आती थीं । वसन्तोत्सव के समारोह में भी लड़कियां उचित भाग ले रही थीं । कुछ लड़कियों ने धनुष बाण आदि खेलों में भी भाग लिया था । कवि समारोह और संगीत सभा में तो लड़कियों ने विशेष भाग लिया था । फाल्गुन पूर्णिमा को एक वृहत् यज्ञ का आयोजन था । प्रातःकाल से ही यज्ञ मण्डप विद्यार्थियों विद्यार्थिनियों , स्त्री – पुरुष दर्शको और अध्यापक अध्यापिकाओं से भरा हुआ था । यज्ञ मण्डप में एक विशाल ओर उता हुआ चबूतरा था । छत सौ मीटर के बने खम्भों पर खड़ी थी । चबूतरा सौ हाथ लम्बा और अस्सी हाथ चौड़ा था । खम्भे बीस हाथ ऊंचे थे । मण्डप में उत्तर की ओर एक ऊंचा बना हुआ था । यह मंच मण्डप की पूरी चौड़ाई में था और बीस हाथ लंबाई की ओर था । इस ऊँचे मंच पर यज्ञशाला बनी हुई थी । मंडप के दक्षिण की ओर दस हाथ आगे बढ़ी हुई परछत बनी थी यह चबूतरे की भूमि से दस हाथ ऊंचाई पर थी परछत दस हाथ मंडप के भीतर तक आई हुई थी । इसके आगे झरनेदार एक हाथ ऊंचे मुंडेर लगी थी । मंडप तथा परछत्त की भूमि लाल रंग के पत्थर से बनी थी परछत्त पर दरी कालीन और श्वेत बांदनियां बिछी थी और उन पर प्रतिष्ठित दर्शकगण बैठे थे । मण्डप की भूमि पर भी सूती दरिया बिछी थीं । यहां मंच के आगे एक और विद्यार्थिनिया और महिला दर्शक बैठी थीं . दूसरी ओर विद्यार्थी और साधारण दर्शक थे । दोनों के बीच में तीन हाथ चौड़ा मार्ग छोड़ा गया था । इस मार्ग पर दरी के अतिरिक्त लाल रंग का कपड़ा बिछा था । मार्ग मंच से चलकर मंडप के दक्षिण द्वार तक बना था और रूपां तथा पुरुष पृथक पृथक मार्ग के दाहिने बायें बैठे थे । मंच पर एक कुंड बना था और उस कुंड के चारों ओर विश्वविद्यालय के आचार्य अध्यापक तथा अध्यापिकाएं बैठी थी । इनमें सबसे ऊंचा सिर किए एक भव्य मूर्ति बैठी थी , जिसकी दूध समान वेत दाढ़ी मूळे तथा जटाए उसकी दीर्घ आयु का परिचय दे रही थीं । उसकी आंखों की बरोनियां तथा भौहें श्वेत हो रही थीं । इस भव्य मूर्ति के समीप एक वृद्धा , परन्तु अतिमुख वाली बैठी थी ।
मंडप में डेढ़ सहस्र विश्वविद्यालय के विद्यार्थी – विद्यार्थिनियां और पांच सौ से ऊपर दर्शक गण विद्यमान थे । मंडप , यज्ञ में सम्मिलित होने वालों से खचाखच भरा हुआ था और सब लोग श्रद्धा तथा रुचि से हवन होते देख रहे थे । हवन सूर्योदय से पूर्व * ओं भूर्भवः स्वर्द्यौरिव भूम्नापृथिवीव व्यरिग्णा … इत्यादि मंत्रों से आरम्भ हुआ और दो मुहूर्तभर हवन होने के उपरांत ही ओं द्यौः शांतिरन्तरिक्ष इत्यादि से समाप्त हुआ । इस दिन हवन के पश्चात् पठन में उत्तीर्ण हो विश्वविद्यालय से जाने वाले विद्यार्थियों को उपाधि वितरण का आयोजन भी था । इस समय तक मंडप , हवन में सुगंधित तथा पोष्टिक पदार्थों के होम से , सुगंध से भरपूर हो रहा था । उपाधि वितरण का कार्यक्रम आरम्भ होने से पूर्व यजुर्वेद से मंत्र पाठ हुआ । उपरांत वह भव्य मूर्ति मंडप की भूमि पर तथा मंडप की परछत्त पर बैठे लोगों की ओर मुख करके बैठ गयी । इससे पूर्ण श्रोतागण दत्त वित्त होकर सुनने लगे । सबके मन में विश्वविद्यालय के कुलपति वैवस्वत के लिए भारी श्रद्धा थी । किंवदंती थी कि मुनि वैवस्वत वेद – वेदांग तथा दर्शन- पुराण का ज्ञाता और आयु में दो सौ वर्ष से ऊपर था । ऐसे लोग दर्शकों में थे , जिनके पितामह आचार्य से पढ़े थे । इस कारण जब आचार्य ने श्रोताओं की ओर मुख किया तो सब दत्त – चित्त शांत हो गये । मंडप में पूर्ण निस्तब्धता विराजमान हो गयी । आचार्य ने दाहिना हाथ उठा उपस्थित समाज को कहना आरम्भ किया . ” सभ्यगण हमारे विश्वविद्यालय को कार्य करते हुए एक सहस्र वर्ष के लगभग हो रहा है । ऋषि भलन्दन ने उस समय इसे एक साधारण विद्यालय के रूप में स्थापित किया था । जब में इस विद्यालय में विद्यार्थी बनकर आया था , तो यह पूर्ण रूप से विकसित होकर एक विश्वविद्यालय बन चुका था । पश्चात् में इसमें आचार्य बना और एक सी तीस वर्षों से यहां कुल पति के रूप में माता सरस्वती की आराधना कर रहा हूं । ” लगभग एक सहस्र वर्षों से देश – देशांतर के बालक – बालिकाएं यहां शिक्षा ग्रहण कर रहे हैं । उनको विद्यादान निःशुल्क दिया जाता है । विद्या दान के लिए शुल्क लेना भारत के नाम को कलंकित करना है । देश के धनी मानी तथा राजा – महाराजाओ की उदारता से हम महायज्ञ सम्पन्न करते चले आ रहे है । प्रतिवर्ष वसन्तोत्सव के अवसर पर उपाधि वितरण का कार्य हुआ करता है । उन विद्यार्थियों को जो शिक्षा समाप्त कर विश्वविद्यालय को छोड़ते हैं , इस बात का प्रमाण पत्र दिया जाता है । इस वर्ष जाने वाले विद्यार्थियों की संख्या दो सो पच्चीस हे पे राजनीति , न्याय , संगीत – कला , पुद्धकला , गृह निर्माण कला , आयुर्वेद , धर्मशास्त , पुराण और वेद वेदांग इत्यादि विषयों में निपुणता प्राप्त करके जा रहे हैं । इन सवा दो सो खातकों में पांच ऐसे जातक भी हैं जो अपने अपने विषय में सर्वोत्तम प्रतिभा प्रकट करते रहे हैं । उनको प्रमाण पत्रों के अतिरिक्त विशेष प्रतिष्ठा प्रमाणाशास्वनिश संशक उत्तरी कोशय प्रदान किये
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