सम्पादकीय
बहुत वर्ष पूर्व श्री राजकिशोर, आचार्य गुरुकुल यमुनानगर ने मुझ से पं. शिवशंकर शर्मा काव्यतीर्थ की कृति ‘त्रैतसिद्धान्तादर्श’ (त्रैतवाद-निर्णय यह नाम हस्तलिखित प्रतिलिपि में नहीं है, बाहर वेष्टन पर अंकित है) के बारे में पूछा था। मैंने रामलाल कपूर ट्रस्ट के ‘स्वामी सियाराम वैदिक पुस्कालय’ की पुस्तक- सूची में देखा और श्री राजकिशोर को बता दिया कि इस नाम की कोई पुस्तक पुस्तकालय में नहीं है। कुछ वर्ष पूर्व यमुनानगर निवासी श्री इन्द्रजित् जी ‘देव’ ने जानना चाहा कि क्या श्री युधिष्ठिर जी मीमांसक की पुस्तकों में ‘त्रैतवाद-निर्णय’ नामक पाण्डुलिपि है ? श्री ‘देव’ जी को सम्भवतः स्वर्गीय मीमांसक जी ने ही इस पुस्तक की पाण्डुलिपि अपने पास होने की सूचना दी थी।
मैंने श्री ‘देव’ जी को उत्तर दे दिया कि स्वर्गीय मीमांसक जी ने अपनी पुस्तकें कन्या गुरुकुल लोवा कलां की आचार्या सुश्री शान्तिदेवी को अपने देहावसान से पूर्व प्रदान कर दी थीं। श्री ‘देव’ जी ने लोवाकलां गुरुकुल से जानकारी लेने का प्रयास किया, परन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। पिछले वर्ष ‘स्वामी सियाराम वैदिक पुस्कालय’ में रखी पाण्डुलिपियों को व्यवस्थित करते समय मुझे सहसा ‘त्रैतसिद्धान्तादर्श’ मिल गई। मैंने श्री ‘देव’ जी को सूचित कर दिया। उन्होंने प्राध्यापक राजेन्द्र जिज्ञासु को सूचित किया और दोनों सज्जनों ने पुस्तक को यथाशीघ्र प्रकाशित करने का आग्रह किया। गत वर्ष श्री रामलाल कपूर ट्रस्ट के अधिवेशन में इस पुस्तक को ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित करने का निर्णय किया गया। इस प्रकार पं. शिवशंकर शर्मा की इस विद्वत्तापूर्ण दुर्लभ कृति का प्रकाशन किया जा रहा है। इसका श्रेय श्री इन्द्रजित् ‘देव’ (यमुनानगर) को ही है। उन्होंने ही पं. शिवशंकर शर्मा के जीवनवृत्त और कृतित्व को प्रस्तुत करने वाले तीन विद्वानों के लेखों की व्यवस्था की है।
पाण्डुलिपि का संक्षिप्त विवरण
‘त्रैतसिद्धान्तादर्श’ की पाण्डुलिपि आधुनिक सफेद कागज पर एक ओर नीली स्याही से लिखी गई है। कागज का आकार फुलस्केप है और वह २३ से २५ तक रेखाओं से युक्त है। लेख सुपाठ्य है। पाण्डुलिपि पानी से कुछ क्षतिग्रस्त हुई है। प्रथम पृष्ठ पर श्रद्धेय गुरुवर पं. ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु द्वारा लाल स्याही से ‘त्रैतवाद-निर्णय’ लिखा गया है। पाण्डुलिपि में कहीं भी लिपिकर के द्वारा ‘त्रैतवाद-निर्णय’ शब्द नहीं लिखा गया है। यह पाण्डुलिपि मूल की प्रतिलिपि है
मूल कहाँ, किसके पास है- यह ज्ञात नहीं है। यह प्रतिलिपि कब, कहाँ, किसने की थी- यह भी ज्ञात नहीं है। सम्भव है, पंजाब आर्यप्रतिनिधि सभा के अधिकारियों ने अवलोकनार्थ मूल प्रति श्रद्धेय पं. ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु को दी हो और उन्होंने उसकी प्रतिलिपि कराकर मूलप्रति वापिस लौटा दी हो? अस्तु, मूल की प्रतिलिपि ट्रस्ट के पुस्तकालय में सुरक्षित है। प्रतिलिपि करने वाले ने अपने नाम, स्थान और काल का उल्लेख कहीं नहीं किया है। प्रतिलिपि १ से २०५ पृष्ठ तक खुले कागजों पर (दो-दो पृष्ठ) लिखी गई है। आगे एक-एक दस्ते (२४ कागजों) के प्रघट्टकों पर लिखी गई है तदनुसार २०६-२५०, २५१- ३००, ३०१-३५०, ३५१-४००, ४०१-४५०, ४५१-५००, ५०१-५४८ सात प्रघट्टक हैं। इनमें से ३०१ से ३५० तक वाले प्रघट्टक से अन्त तक सभी प्रघट्टकों के बाहरी पृष्ठ पर पृष्ठसंख्या का उल्लेख है। अन्तिम प्रघट्टक पर लाल पैंसिल से “आरम्भ २५.९.५० समाप्ति २६.१२.५०” लिखा गया है। यही प्रतिलिपि का काल प्रतीत होता है।
इस पुस्तक की वर्त्तमान प्रतिलिपि का मिलान मूलप्रति से भी किया गया था। आरम्भ में मूलप्रति की पृष्ठसंख्या का निर्देश पूज्य गुरुवर पं. ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु के द्वारा किया गया प्रतीत होता है, परन्तु पश्चात् स्वयं प्रतिलिपि करने वाले के द्वारा किया गया प्रतीत होता है। इस पुस्तक को छापने के उद्देश्य से पूज्य गुरुवर ने टाइपों का निर्देश स्थान-स्थान पर किया है और श्लोकों या वाक्यों पर लाल या नीली स्याही से चिह्न (रखांकन) लगाये हैं। कई स्थानों पर परिवर्तन और परिवर्द्धन भी किये गये हैं जो मूलप्रति से मिलान करके ही सम्भव हैं। ऐसे सभी स्थलों पर हमने वर्त्तमान संस्करण में टिप्पणियाँ दी हैं। पं. शिवशंकर शर्मा ने वर्ण्य विषय को छह विभागों में विभक्त किया है-
१. संज्ञादर्शः – प्रतिलिपि के पृष्ठ १ से १०८ तक अनुष्टुप् छन्द में स्वरचित २४२ संस्कृत श्लोकों और उनकी विस्तृत हिन्दी व्याख्या द्वारा दर्शन सम्बन्धी संज्ञाओं का निरूपण है। अन्त में पुष्पिका है- इति श्री त्रैतसिद्धान्तादर्श श्रीशिवशंकरप्रणीते संज्ञादर्शो नाम प्रथम आदर्शः समाप्तः ।
२. अनुबन्धचतुष्टयादर्शः प्रतिलिपि के पृष्ठ ११० से १६६ तक चार अनुबन्धों का विवरण है और अद्वैतसिद्धान्त में मान्य अनुबन्धों की समीक्षा की गई है। इस विभाग में ग्रन्थकार द्वारा स्वरचित श्लोकों का अभाव है। अगले आदर्शों में भी स्वरचित श्लोकों का अभाव है। अन्त में पुष्पिका है- इति श्रीशिवशंकरकृते १. इस पुस्तक के पृष्ठ ६ पर लिखा है ‘पञ्जाब की श्रीमती आर्य प्रतिनिधि सभा की आज्ञा से इस त्रैतसिद्धान्तादर्श नामक त्रैतदर्शन को लिखता हूँ”।
ग्रन्थ का महत्त्व
पण्डित शिवशंकर शर्मा आर्यसमाज के आरम्भिक युग के प्रौढ विद्वान् एवं शास्त्रार्थ-महारथी थे। उन्होंने जिस प्रकार के प्रौढ सैद्धान्तिक ग्रन्थों की रचना की, उनका जोड़ मिलना कठिन है। उनके मुद्रित ग्रन्थ ओंकार-निर्णय, वैदिक इतिहासार्थ-निर्णय, त्रिदेव-निर्णय आदि को पढ़ने से उनके अगाध पाण्डित्य और सूक्ष्म तार्किक चिन्तन का ज्ञान सहज ही हो जाता है।
प्रकृत ‘त्रैतसिद्धान्तादर्श’ भी उनके गम्भीर पाण्डित्य एवं विस्तृत अध्ययन का परिचायक है। इस ग्रन्थ के संज्ञादर्श प्रकरण में विद्वान् लेखक ने भारतीय दर्शन शास्त्रों में प्रयुक्त होने वाली सैकड़ों संज्ञाओं तथा पारिभाषिक शब्दों की व्याख्या प्रस्तुत की है। एकविध-द्वि- विध-त्रिविध आदि के क्रम से षोडशविध तक अनेक भेद-प्रभेदपूर्वक पारिभाषिक शब्दों का विवरण प्रस्तुत करना पं. शिवशंकर के बहुश्रुत ज्ञान को व्यक्त करता है। आरम्भ में इन संज्ञाओं का निरूपण होने के कारण आगे आने वाले शास्त्रीय विवेचन को समझना सरल हो जाता है। मध्यकाल के दार्शिनक व्याख्याकारों ने व्याख्येय ग्रन्थ के अधिकारी-विषय-प्रयोजन-सम्बन्ध इन चार अनुबन्धों पर अवश्य विचार किया है। पं. शिवशंकर जी ने अपने इस ग्रन्थ से सम्बद्ध इन अनुबन्धों पर दूसरे अनुबन्धचतुष्टयादर्श नामक प्रकरण में विचार किया है, साथ ही अद्वैत-मान्य अनुबन्धों की समीक्षा भी की है। अगले तीन आदर्शों में विद्वान् लेखक ने ईश्वर-जीव-प्रकृति के स्वरूप और तटस्थ लक्षणों की व्याख्या विशद रूप से प्रस्तुत की है। अन्तिम आदर्श समन्वय के रूप में रखा है जिसमें ईश्वर के औपनिषदिक नामों की व्याख्या और वेदान्त के अनेक प्रकरणों की समीक्षा की गई है।
पं. शिवशंकर शर्मा ने इस ग्रन्थ में अनेक आचार्यों, ग्रन्थों और मतों का उल्लेख नामनिर्देश पूर्वक किया है। रामानुज, विष्णुस्वामी, मध्व, निम्बार्क, यादव- भास्कर, नीलकण्ठ, वल्लभ, विद्यारण्य स्वामी, निश्चलदास, शंकर, भास्कर, विज्ञानेन्द्र भिक्षु, वाचस्पति मिश्र, कारुणिक सिद्धान्ती, कापालिक, विश्वनाथ पञ्चानन, वात्स्यायन – आदि आचार्यों, सर्वदर्शनसंग्रह, वेदार्थसंग्रह, अद्वैतसिद्धि, विचारसागर, भामती, तत्त्वकौमुदी, न्यायसिद्धान्तमुक्तावली, वेदान्तपरिभाषा, प्रकटार्थविवरण, तत्त्वविवेक, संक्षेपशारीरक, पञ्चदशी आदि ग्रन्थों और शांकर, रामानुजमत, विज्ञानवाद, शून्यवाद, प्राभाकर, भाट्ट, अद्वैत, दृष्टिसृष्टिवाद, सृष्टिदृष्टिवाद, द्वैत, आभासवाद, वेदान्तवाद, पाशुपत, भागवत, सात्त्वत, पञ्चरात्र, शाण्डिल्य, चार्वाक, न्याय, सत्कार्यवाद- आदि मतों को यथावसर प्रस्तुत करके समीक्षा करना पं. शिवशंकर जैसे शास्त्रनिष्णात विद्वान् के लिये ही सम्भव है। प्रसंगतः आपने स्वरचित ग्रन्थ ‘त्रिदेवनिर्णय’ का उल्लेख भी किया है और भावी ग्रन्थ ‘अश्वमेध’ की सूचना भी दी है। हमें यह ज्ञात नहीं है कि उन्होंने ‘अश्वमेध’ का प्रणयन किया था या नहीं।
हमें प्रसन्नता है कि वैदिक सिद्धान्त का यह चिरप्रतीक्षित ग्रन्थ प्रकाशित हो रहा है। इसके लिए प्रमुख प्रेरक श्री इन्द्रजित् ‘देव’ (यमुनानगर) का हार्दिक धन्यवाद है। अपने सहयोगी श्री प्रदीप कुमार शास्त्री और श्री वेदव्रत के सक्रिय सहयोग के लिये शुभ आशीर्वाद। पुस्तक के मुद्रण-जिल्द आदि की समुचित व्यवस्था के लिये श्री जीवनराम जी और राधा प्रेस के सञ्चालक के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त किया जाता है।
विरजानन्दाश्रम रेवली ५.४.२००३
विजयपाल विद्यावारिधि
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