स्वराज्य – दान Swarajya Dan ” भूल जाना मनुष्यता की बात नहीं । मनुष्यों में और अन्य प्राणियों में स्मरण शक्ति का ही अन्तर है । मनुष्य तो उन्नति कर रहा है किन्तु अन्य प्राणी उन्नति नहीं कर रहे । इसका कारण स्मरण शक्ति ही है । पूर्व अनुभवों का मनन करके ही विचारों को आगे ले जाया जा सकता है । अन्य प्राणी अपने अनुभवों को भूल जाते है , इससे वे अपनी भुलों को सुधार नहीं सकते । मनुष्य अपनी देखी – गुनी , अनुभव अथवा विचार की हुई बातों का स्मरण करके ही उन्नति के मार्ग पर चलता आ रहा है । लिखने की विद्या का आविष्कार भी तो स्मरण किया को और अधिक स्थायी करने के लिए ही किया गया है । ” यह सब जानते हुए भी आप मुझे क्यों कहते हैं कि जो अन्याय और अत्या चार मुझ पर अथवा मेरे भाई – बन्धुओं पर हुए हैं , मैं उनको भूल जाऊँ ? भुल जाऊँगा तो फिर उनकी पुनरावृत्ति कैसे रोकी जा सकेगी ? ” यह वार्तालाप नई दिल्ली में कर्जन रोड पर एक कोठी के ड्राइंग रूम में , एक गद्देदार आराम – कुर्सी पर बैठे हुए अधेड़ आयु के पुरुष और उसके सामने खड़े हुए एक युवक में हो रहा था । युवक की आयु लगभग पच्चीस वर्ष की प्रतीत होती थी । युवक ने यह बात उस अधेड़ आयु के पुरुष के इस कथन के उत्तर में कही थी ” नरेन्द्र , देखो , तुम्हारी माता का देहान्त हो चुका है । तुम दो वर्ष के थे जब तुम्हारे पिता मारे गए थे । तब से तुम्हारी माता ने बहुत धैर्य और परिश्रम से तुम्हारा पालन – पोषण कर तुम्हें इतना बड़ा किया है । यह बीस – बाईस वर्ष की तपस्या किसलिए की गई थी ? इसलिए ही न कि तुम पढ़ – लिखकर बड़े हो जाओ , विवाह करो और अपने पिता का वंश चलाओ । तुम्हारे लिए यही अवसर है कि तुम अपनी माँ की इच्छा पूर्ण कर उसकी पवित्र स्मृति को चिरस्थायी बनाओ । मैंने तुम्हारे लिए एक बहुत अच्छी लड़की ढूंढ़ी है । वह पढ़ी – लिखी है , सुन्दर है , सुशील है , सुघड़ है और अति मीठा बोलने वाली है । एक बार चलकर लड़की को देख लो । देखो , मां के परिश्रम का स्वाभाविक फल यही है । वह बेचारी जीती होती तो बहू लाने की बात सुनकर कितना आनन्द अनुभव करती । ”
२ युवक का कहना था , ” बाबा जी , आप नहीं जानते कि माताजी ने मुझे पढ़ाया – लिखाया क्यों है । आप समझते हैं कि पिताजी के वंश को चलाना ही उनके इस प्रयास का ध्येय था । यह तो बहुत ही छोटी बात है । वे इस प्रकार के छोटे विचारों की स्त्री नहीं थी । मैं आपको बताता हूँ । मैंने मैट्रिक पास करने के पश्चात् एक बार उनसे कहा था , ‘ माँ , तुम्हें मेरे लिए बहुत गरीबी सहन करनी पड़ रही है । यदि तुम कहो तो मैं कहीं नौकरी कर लूँ । अब कहीं – न – कहीं तो नौकरी मिल ही जाएगी । ‘ ” माता जी ने मेरी बात सुन , माथे पर त्योरी चढ़ाकर कहा था , ‘ देखो , नरेन्द्र , तुम्हारे चाचा जो कुछ भेजते हैं उससे तो तुम्हारी फीस और किताबों का खर्च भी नहीं चलता । घर और तुम्हारी शेष आवश्यकताओं के लिए मुझे कपड़े सीने का काम करना पड़ता है । तुम्हें अखाड़े से कसरत करके आने पर बादाम और दूध देने तथा तुम्हारे कपड़े और अन्य आवश्यक बातों के लिए मैं जो दिन – रात मेहनत कर रही हूँ वह क्या केवल तुम्हें तीस रुपये मासिक का क्लर्क बनाने के लिए है ? तुम्हारे खाने , पहनने , पुस्तकों और स्कूल इत्यादि की फीस के लिए , रात – रात भर बैठकर लोगों के कपड़े सी – सीकर , मैं अपनी आँखें इसलिए खराब नहीं कर रही कि तुम विदेशी सरकार की नौकरी करने के योग्य हो जाओ । देखो , बेटा , मैं तुम्हें सबल और योग्य इसलिए बना रही हूँ कि तुम अपने पिता और मेरे अपमान का बदला ले सको । मैं आज फिर तुम्हें उस अपमान की कहानी सुनाती हूँ । ‘ सन् १ ९ १ ९ , अप्रैल मास के दिन थे । महात्मा गांधी पंजाब आ रहे थे और पंजाब सरकार ने उन्हें आने से रोक दिया था । जब उन्होंने आने का हठ किया तो सरकार ने उन्हें बन्दी बना लिया । लोगों ने हड़ताल कर दी , जो कई दिन तक रही । उस समय तुम दो वर्ष के थे । तुम्हारे पिता हाल बाजार में बिसाती की दूकान करते थे । वे भी दूकान बन्द करके घर आ बैठे । ‘ वैशाख की संक्रान्ति थी । उनके मन में आया कि ‘ दरबार साहब ‘ में स्नान तथा दर्शन कर आवें । मैं भी साथ जाती , परन्तु तुम्हारी बहन , राधा , पेट में थी । अतएव में और तुम घर पर रहे और वे एक लोटा लेकर दरबार साहब चले गए । उनका विचार था कि अमृतसर के जल का लोटा भरकर मेरे और तुम्हारे लिए लावेंगे । ‘ वे गए और फिर नहीं आए । सायंकाल तक में प्रतीक्षा करती रही । उनके न आने पर में बेचैन हो उठी । मुहल्ले में हल्ला मच गया कि जलियांवाला बाग में • लोग जलसा कर रहे थे कि फौज ने गोली चलाकर सहस्रों लोगों को मौत के घाट उतार दिया । मेरा माथा ठनका । यद्यपि वे कभी ऐसे जलसे – जुलूसों में सम्मिलित नहीं होते थे , फिर भी मुझे विश्वास – सा होने लगा था कि वे वहीं पर मारे गए हैं । मैंने तुम्हें एक पड़ोसन के घर छोड़ा और जलियांवाला बाग को चल पड़ा
मुहल्ले के लोगों ने मना किया , पर मैं उतावली हो रही थी । वे कहते थे कि संध्या होते बाली है और ‘ कर्फ्यू – आर्डर ‘ लगा हुआ है , किसी फौजी ने देख लिया तो वह गोली मार डालेगा । मैं भगवान् के भरोसे पर थी । बाजार गुनसान पड़े थे । कोई पक्षी तक भी फड़क नहीं रहा था । मैं मकानों के साथ – साथ होती हुई चली गई । मेरे मन में मेरे अपने लिए भय नहीं था । मुझे विश्वास सा हो रहा था कि तुम्हारे पिता जीवित नहीं है । जीवित होते तो अवश्य पर लौट आते इस बात का करना मेरे लिए नितान्त आवश्यक था । मैं चलती गई तबतक प्रकाश पर्याप्त था , मैं वहाँ जा पहुंची । ‘ जलियांवाले अहाते में जाने के दो मार्ग है । एक बड़ा फाटा है , और दूसरे को तो केवल खिड़की ही कहना चाहिए । मैं फाटक के मार्ग से भीतर गई थी । सामने हाय – हाय मची हुई थी । हजारों लोगों के मुख से आर्तनाद निकल रहा था । कोई – कोई बिरला उनमें खड़ा अपने किसी सम्बन्धी को पहचान रहा था । ये , अपने सम्बन्धियों को ढूँढ़ने वाले , कभी – कभी शवों को घसीटकर इधर – उधर करते थे । कभी कोई पानी मांगता तो सुनने वाले सिवाय दुःख अनुभव करने के और कुछ नहीं कर सकते थे । सूर्यास्त होने में कुछ मिनट ही रह गए थे और ढ़ने वाले अनुभव कर रहे थे कि शीघ्र ही उनको लौट जाना है । सूर्यास्त के पश्चात् शव ले जाना तो एक तरफ रहा , उनका पर पहुँचना भी भय रहित नहीं रह जावेगा । ‘ मैं इस भयानक दृश्य को देख हतोत्साह हो गई । मेरा दिल बैठने लगा और मैं अपनी टाँगों पर खड़ी भी न रह सकी । जहां में बैठी थी वहाँ समीप ही एक घायल पड़ा था । वह मुझे देखते ही पानी मांगने लगा । मैंने उसकी ओर देखा उसकी जांघ में गोली लगी थी और वह हिल नहीं सकता था । वहाँ न लोटा था , न कुआँ । पानी लाती भी तो कहाँ से ? मेरे आंसू बहने लगे । ‘ जिन ढूंढ़ने वालों को अपने आदमी मिल जाते थे वे उन्हें उठाकर चले जा रहे थे । उनमें से एक आदमी मुझे चुपचाप बैठे और रोते देख बोला , ‘ माई , जल्दी पती जाओ । साढ़े सात बज रहे हैं । ‘ कर्फ्यू आर्डर ‘ का समय हो गया है । इतना कहते कहते वह रुक गया । वह खड़ा हो गया । शायद वह मेरी गर्भावस्था जान गया था और मन में कुछ सोचकर पूछने लगा , ‘ तुम इसे कहाँ से जाना चाहती हो ? ” उसने समीप पड़े घायल को मेरा सम्बन्धी समझ लिया था । ‘ मैंने कहा , ‘ इसे थोड़ा पानी पिला दो । मैं उसे होटों पर जुवान फेरते देख तुम्हारे पिता के विषय में मूल गई थी । वह आदमी विचार में पड़ गया । बोला , ‘ बहन , यहाँ पानी नहीं है । चलो , मैं इसे उठाकर से चलता है । आपको इसे कहाँ ले चलता है ? ‘ ‘ मुझे तुम्हारे पिता की याद आ गई । मैंने कहा , ‘ मैं इसे नहीं जानती , मैं तो किसी और को ढूँढ़ने आई थी । ‘ ‘ वह मिला ? ‘ ‘ नहीं , अभी नहीं । मुझ में यह सब कुछ ढूंढ़ने की हिम्मत नहीं रही । ‘ ‘ वह आपका क्या है ? ‘ ‘ मेरे पति हैं । ‘ उस भले पुरुष के मुख पर दया की झलक दिखाई दे रही थी । वह बोला , ‘ चलो , उसे भी देख लो , बहन ! शायद उसे भी पानी की आवश्यकता हो । ‘ ‘ उसने मुझे आश्रय दे उठाया और हम ढूंढ़ने लगे । अहाते के एक ओर एक दीवार थी और सबसे अधिक लाशें उसी दीवार के समीप थीं । एक स्थान पर लागों का ढेर लगा था । मैं ढूँढ़ती हुई वहाँ पहुँची । उफ ! कितना भयंकर दृश्य था । अब भी स्मरण आता है तो रोंगटे खड़े हो जाते हैं । एक – एक शव को पकड़कर मुख देखती थी और पहचानती थी । जब निश्चय हो जाता था कि तुम्हारे पिता नहीं हैं , तो उसे घसीटकर एक तरफ कर देती थी और फिर दूसरों को देखती थी । सभी लोग इस प्रकार कर रहे थे । इस पर भी यह कार्य इतना कठोरतापूर्ण था कि साधारण परिस्थिति में कोई अति कठोर हृदय भी शायद ही वैसा कर सकता । मुझसे यह कुछ न हो सकता , यदि वह भला पुरुष मेरी सहायता न कर रहा होता । आखिर लाशों के एक ढेर के नीचे से उनका शव भी निकला । उनके सिर में गोली लगी थी और खोपड़ी के दो टुकड़े हो गए थे । उनका मुख पहचाना नहीं जाता था , परन्तु कपड़ों से पहचान गई थी । उनको देख अपनी क्षीण सूत्रवत् आशा , कि शायद वे भी घायल पड़े हों , विलुप्त हुई जान मैं गश खाकर गिर पड़ी । ‘ जब मुझे चेतना हुई तो वही भला पुरुष मेरे मुख पर पानी के छींटे लगा रहा था । अँधेरा पर्याप्त हो चुका था इसलिए पहले तो मैं उसको पहचान भी नहीं सकी । इस समय उसके साथ एक आदमी था । वह हाथ में एक गगरा पानी लिये खड़ा था । जब पहचान गई तो मैंने पूछा , ‘ उसे पानी पिलाया है , भैया ? ” ‘ बहिन , जब तुम बेहोश हो गई थीं , मैं पानी लेने चला गया । मैंने विचार किया था कि तुम्हें सचेत करने के लिए भी तो पानी चाहिए । बाजार में कुआँ तो था पर गगरा नहीं था । एक मकान का दरवाजा खटखटाया और लोटा और गगरा मांगा । उस घर वालों ने एकदम इन्कार कर दिया । कई स्थानों पर यत्न करते करते ये सज्जन मिले । घर पर ये अकेले थे । जब मैंने अपना आशय वर्णन किया , तो दांतों को पीसते हुए गगरा और लोटा ले मेरे साथ चल पड़े । इस सब प्रयत्न में सहायता नहीं कर सकते । ‘ एक घण्टा लग गया है , और इस बीच वह आदमी चल बसा है । अब हम उसकी ‘ मैं पगली – सी इन बातों को सुन रही थी । मुझे न तो अपनी जान का भय रह गया था और न ही उनके भय का अनुमान लगाने की मुझमें शक्ति रह गई थी ।
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