१५वें संस्करण का-
प्रकाशकीय
पाठकवृन्द ! आर्यसमाज के प्रवर्त्तक महर्षि दयानन्द ने आपकी सेवा में प्रस्तुत ‘सत्यार्थप्रकाश’ नामक ग्रन्थ की रचना करके मानव जाति का अवर्णनीय उपकार किया है। सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करना ही इस ग्रन्थ का मुख्य उद्देश्य है, और यही सब सुधारों का मूल सूत्र है। अतः महर्षि ने इस ग्रन्थ की भूमिका में लिखा है- “सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।” वह सत्य-उपदेश मनुष्यकृत अनार्ष ग्रन्थों में प्राप्त नहीं होता जिस से मानव जीवन का कल्याण हो सके।
हितकारी, प्रामाणिक एवं महत्त्वपूर्ण विषयों का अति सरलता से प्रतिपादन आर्ष ग्रन्थों में ही उपलब्ध होता है। तृतीय समुल्लास में उल्लिखित आर्ष ग्रन्थों के अध्ययन से लाभ और अनार्ष ग्रन्थों के अध्ययन से हानि पर अवश्य ध्यान देना चाहिए जो जिज्ञासु आर्ष ग्रन्थों में गोता लगाता है। वह अवश्य ही बहुमूल्य मोतियों को प्राप्त करके अपना जीवन सफल बना सकता है।
महर्षि की अनुपम रचना सत्यार्थप्रकाश का संक्षिप्त परिचय निम्न है-
(१) इसी ग्रन्थ में ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त ऋषि-मुनियों के वेद-प्रतिपादित सारभूत विचारों का संग्रह है। अल्प विद्यायुक्त, स्वार्थी, दुराग्रही लोगों ने जो वेदादि सच्छास्त्रों के मिथ्या अर्थ करके उन्हें कलंकित करने का दुःसाहस किया था, उन के मिथ्या अर्थों का खण्डन और सत्यार्थ का प्रकाश अकाट्य युक्तियों और प्रमाणों से इस में किया गया है। किसी नवीन मत की कल्पना इस ग्रन्थ में लेशमात्र नहीं है।
(२) वेदादि सच्छास्त्रों के अध्ययन विना सत्य-ज्ञान की प्राप्ति सम्भव नहीं। उनको समझने के लिए यह ग्रन्थ कुञ्जी का कार्य करता है। इस समय इस ग्रन्थ के अध्ययन किये विना वेदादि सच्छास्त्रों का सत्य-सत्य अर्थ समझना अति कठिन है। इस को पूर्णतया समझे विना बड़े-बड़े उपाधिधारी दिग्गज विद्वान् भी अनेक अनर्थमयी भ्रान्तियों से लिप्त रहते हैं।
(३) जन्म लेकर मृत्यु पर्यन्त मानव जीवन की ऐहलौकिक और पारलौकिक समस्त समस्याओं को सुलझाने के लिए यह ग्रन्थ एकमात्र ज्ञान का भण्डार है। (४) ऋषि दयानन्द से पूर्ववर्ती ऋषियों के काल में संस्कृत का व्यापक रूप में व्यवहार था और वेदों के सत्य अर्थ का ही प्रचार था। उस समय के सभी आर्ष ग्रन्थ संस्कृत भाषा में ही उपलब्ध होते हैं। महाभारत के पश्चात् सत्य वेदार्थ का लोप और संस्कृत का अतिहास हुआ।
विद्वानों ने अल्प विद्या और स्वार्थ के वशीभूत होकर जनता को भ्रम में डाला एवं मतवादियों ने बहुत से आर्ष ग्रन्थ नष्ट करके ऋषि-मुनियों के नाम पर मिथ्या ग्रन्थ बनाये। उन के ग्रन्थों में प्रक्षेप किया जिस से सत्यविज्ञान का लोप हुआ। उस नष्ट हुए विज्ञान को महर्षि ने इस ग्रन्थ में प्रकट किया है। महर्षि ने इस ग्रन्थ में बहुमूल्य मोतियों को चुनचुनकर आर्यभाषा में अभूतपूर्व माला तैयार की जिस से सर्वसाधारण शास्त्रीय सत्य मान्यताओं को जानकर स्वार्थी विद्वानों के चंगुल से बच सकें ।
(५) महर्षि दयानन्द कृत ग्रन्थों में सत्यार्थप्रकाश प्रधान ग्रन्थ है। इस में उनके सभी ग्रन्थों का सारांश आ जाता है।
(६) यह ही एक ऐसा ग्रन्थ है जो पाठकों को इस ग्रन्थ में प्रतिपादित सर्वतन्त्र, सार्वजनीन, सनातन मान्यताओं के परीक्षण के लिए आह्वान देता है।
(७) इसके पढ़े विना कोई भी आर्य ऋषि के मन्तव्यों और उनके कार्यक्रमों को भली प्रकार नहीं समझ सकता एवम् अन्यों के उपदेशों में प्रतिपादित मिथ्या सिद्धान्तों को नहीं पहचान सकता। जिससे अनेक भ्रान्त धारणाएं मस्तिष्क में बैठ जाती हैं जिनके निराकरण के लिए इस ग्रन्थ का अनेक बार अध्ययन सर्वथा अनिवार्य है।
(८) इसके प्रारम्भ में ‘त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि’ इत्यादि से जो प्रतिज्ञा की है उसी के अनुसार सम्पूर्ण ग्रन्थ में सत्यार्थ का प्रकाश करते हुए अन्त में प्रतिज्ञा का उपसंहार किया है।
(९) अत्यन्त समृद्धिशाली, सर्वदेशशिरोमणि भारत देश का पतन किस कारण से हुआ एवम् उत्थान किस प्रकार हो सकता है, इस विषय पर इस ग्रन्थ में पूर्ण प्रकाश डाला गया है।
(१०) इस में आर्यसमाज और मत-मतान्तरों के अन्तर को अनेक स्थानों पर एवम् एकादश समुल्लास में विशेष रूप से खोलकर समझाया गया है। (११) मानव जाति के पतन का कारण मतवादियों की मिथ्या धारणाएं
हैं जिनका खण्डन भी प्रमाण और युक्तिपूर्वक इस में किया गया है। (१२) इसमें मूल दार्शनिक सिद्धान्तों को ऐसी सरल रीति से समझाया गया है कि जिसे पढ़कर साधारण शिक्षित व्यक्ति भी एक अच्छा दार्शनिक बन सकता है। जिस ने इस ग्रन्थ को न पढ़कर नव्य महाकाव्य अनार्ष ग्रन्थों के आधार पर दार्शनिक सिद्धान्तों को पढ़ा है उस की मिथ्या धारणाओं का खण्डन और सत्य मान्यताओं का मण्डन इस ग्रन्थ का अध्ययन करने वाला सरलता से कर सकता है।
(१३) ऋषि के मन्तव्यों पर इस ग्रन्थ को पढ़ने से पूर्व जितनी भी शंकाएं किसी को होती हैं। वे सब इस के पढ़ने से समूल नष्ट हो जाती हैं क्योंकि उन सब शंकाओं का समाधान इसमें विद्यमान है।
(१४) वर्तमान में बने राजनीतिक दल पक्षपात से पूर्ण होने के कारण स्वयं सम्प्रदाय हैं। मतवादियों और उन में शब्दमात्र का भेद है, तत्त्वतः अभेद है। उनके द्वारा साम्प्रदायिकता की बहुत वृद्धि हुई है। इस ग्रन्थ में साम्प्रदायिकता के स्वरूप और उसकी हानियों का यथार्थ दिग्दर्शन है। साम्प्रदायिकता को समूल नष्ट करने के उपाय भी इस ग्रन्थ में बताये गये हैं किन्तु खेद है कि दल (सम्प्रदाय) पक्षपात-रहित, मानव के कल्याणकारक ऋषि के पूर्ण सत्य मन्तव्यों को भी साम्प्रदायिक कह कर सम्प्रदाय शब्द के अज्ञानतापूर्ण दूषित अर्थ का प्रचार कर नास्तिकता का प्रचार कर रहे हैं और ‘उलटा चोर कोतवाल को दण्डे’ वाली कहावत को चरितार्थ कर रहे हैं।
यह बहुत आश्चर्य है कि आर्यसमाज के नेता भी ऐसे दलों के सदस्य हैं जो मतवादियों और आर्यसमाज में कोई भेद नहीं मानते। एकमात्र ऋषि दयानन्द ने ही इस ग्रन्थ में सब सम्प्रदायों को समाप्त कर एक सत्य-मतस्थ करने की प्रतिज्ञा की है और उसके उपाय भी बताये हैं।
महर्षि के ग्रन्थों की महिमा का पूर्ण परिज्ञान तो उनके बार-बार अध्ययन, मनन एवम् उसके अनुसार आचरण करने से ही हो सकता है। यहां तो केवल उस के विषय में यथासम्भव दिग्दर्शन मात्र ही कराया गया है।
आर्ष साहित्य में भाषा सरल एवं भाव गम्भीर होते हैं। उन के गम्भीर भावों को जानने के लिए उनका बार-बार अध्ययन करना चाहिए। श्री पं० गुरुदत्त विद्यार्थी ने जो अत्यन्त मेधावी थे, सत्यार्थप्रकाश को चौदह बार पढ़कर यह लिखा था कि जब-जब मैं इस ग्रन्थ को पढ़ता हूं तब-तब नई-नई बातें ही मुझ को मिलती हैं। इस में कुछ भी सन्देह नहीं कि इस आर्ष ग्रन्थ के अध्ययन से पाठकों को पं० गुरुदत्त जी के समान अमूल्य रत्न मिलेंगे।
ऋषि ने अपने समय में वर्तमान किसी भी अनार्ष साहित्य को पठन-पाठन में नहीं रखा। उन की इस पद्धति का अनुसरण किये विना सत्य ज्ञान की प्राप्ति दुर्लभ है। महर्षि की मान्यताओं पर श्रद्धा रखने वाले भी ‘लेकिन शब्द का सहारा लेकर तदनुसार नहीं चलते। अतः वे अनार्ष ग्रन्थों से बहुत सी भ्रान्त धारणाएं प्राप्त कर सन्देहयुक्त ही रहते हैं। भ्रान्त संस्कार सत्यज्ञान की प्राप्ति में बराबर बाधक बने रहते हैं। गुरुवर विरजानन्द जी का यह कहना सर्वथा यथार्थ था कि “पहले अनार्ष ग्रन्थों को यमुना में डाल आओ फिर मेरे पास पढ़ने के लिए आना।”
ऋषि ने आर्ष ग्रन्थों के गुणों का कथन एवम् अपने समय में विद्यमान बहुत से अनार्ष ग्रन्थों को नामनिर्देश पूर्वक दोषयुक्त बताया तथा कतिपय वेदविरुद्ध ग्रन्थों के वचनों की अपने ग्रन्थों में समीक्षा भी की। उन्होंने जिन दोषों का कथन किया है वे दोष आज तक के समस्त अनार्ष साहित्य में भी विद्यमान हैं।
ऋषि का यह वचन भी ध्यान देने योग्य है कि जितना ज्ञान आवश्यक है वह वेदादि सच्छास्त्रों में उपलब्ध है। उनके ग्रहण में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है। उन के अतिरिक्त विचार तो तदनुकूल होने से ही प्रामाणिक हैं। प्रथम आर्ष साहित्य पढ़े विना तदनुकूलता का ज्ञान कैसे हो सकता है ? अतः सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए प्रथम आर्ष ग्रन्थ ही पढ़ने चाहिए; यह निश्चित तथ्य है।
अभी तक दोषपूर्ण ग्रन्थों का तथा उनकी मान्यताओं का बराबर प्रचार हो रहा है, उसको रोकना परम आवश्यक है। यह महर्षि दयानन्द तथा प्राचीन आर्ष ग्रन्थों के गम्भीर अध्ययन तथा उसके प्रचार एवं प्रसार से ही सम्भव है। सत्यार्थप्रकाश द्वारा वैदिक धर्म का प्रचार सब से अधिक हुआ है, अतः ‘आर्ष साहित्य-प्रचार ट्रस्ट’ ने इस ग्रन्थ का प्रचार करना अपना मुख्य उद्देश्य निश्चित किया है। ट्रस्ट इस ग्रन्थ का सुन्दर प्रकाशन करके लागतमात्र से भी न्यून मूल्य में विक्रय करता है।
ऋषि के जीवनकाल में छपे द्वितीय संस्करणानुसार सम्पादन कराके विशुद्ध मूलरूप प्रस्तुत किया गया है। ऋषि के मूल ग्रन्थ में कोष्ठक देने तथा ऋषि की इच्छा के विरुद्ध अपने नाम से टिप्पणी चढ़ाने एवं पाठ-परिवर्तन करने के पक्ष में हम नहीं हैं। किसी लेखक ने अपने मूल ग्रन्थ में किसी अन्य को पाठपरिवर्तन तथा टिप्पणियों में पाठ के विरुद्ध उल्लेख करने का अधिकार आज तक नहीं दिया तो फिर ऋषि दयानन्द के निर्वाण के पश्चात् उन की अनुपस्थिति में इस प्रकार की अनधिकार चेष्टा करना क्या आत्मविरुद्ध आचरण नहीं है। क्या ऐसे व्यक्ति वेद की “असुर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। तांस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।।”
इस व्यवस्था से बच सकेंगे? बारह वर्ष से आर्ष साहित्य-प्रचार ट्रस्ट ऋषि के सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि, ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों में सम्पादकों द्वारा किये गये पाठ-परिवर्तनों एवम् ग्रन्थों में पाठ-विरुद्ध दी गई शतशः टिप्पणियों की बराबर अपने द्वारा सम्पादित इन ग्रन्थों के सम्पादकीय में युक्तिप्रमाण सहित सविस्तार समीक्षा कर रहा है। किन्तु संशोधक आक्षेपों का उत्तर ही नहीं देते। वे लेख, पत्र-व्यवहार अथवा परस्पर मिलकर किसी भी रूप में सत्यनिर्णय के लिए तैयार नहीं हुए।
एक स्थान से संक्षिप्त उत्तर इस प्रकार का मिला कि मैं अपनी कहता रहूं तुम अपनी कहते रहो। जब कि हमारे ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित संस्कारविधि और ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों में टिप्पणियों की सविस्तार समालोचना की गई थी जिस का आज तक उत्तर नहीं मिला है। तब तीसरे ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश का भी उन्हीं के द्वारा भ्रामक एवम् अशुद्ध टिप्पणियों सहित सम्पादन किया गया है। यह उनका हठ, दुराग्रह और मिथ्याभिमान नहीं तो और क्या है ? इन पाठ-विरुद्ध अशुद्ध टिप्पणियों द्वारा सम्पादक दक ने पाठकों में संशय और भ्रान्त धारणा ही उत्पन्न की है। क्योंकि तत्सम्बन्धी भावों का स्पष्टतः कथन वहां नहीं होता।
टिप्पणियां भिन्न स्थानों पर बहुत दूर-दूर होती हैं। टिप्पणियों की समीक्षा उसी प्रकार के भिन्न-भिन्न स्थानों पर तो की ही नहीं जा सकती। अतः पाठ-विरुद्ध टिप्पणियों का एक स्थान पर उत्तर देने के लिए हम को अत्यधिक श्रम करना पड़ा, फिर भी टिप्पणीकार से समीक्षा का उत्तर नहीं मिला। यदि सम्पादक को ऋषिकृत ग्रन्थों की समालोचना करनी ही इष्ट है तो उसके भावों को पृथक् पुस्तक के रूप में दे समीक्षा करनी योग्य है। ऋषि दयानन्द के वचन टिप्पणीकार के समान अप्रामाणिक नहीं हैं। उन की पूरी परीक्षा की जा सकती है। किसी ग्रन्थ के विरुद्ध लिखने का यह टिप्पणी वाला प्रकार निन्दनीय है। मूल ग्रन्थ में टिप्पणीकारों का यह पाठ-विरुद्ध दुःसाहसिक कार्य अन्यत्र नहीं देखा गया।
एक संस्थान प्रचार-संस्करण के नाम से इस ग्रन्थ को छाप रहा है जिस में मूल ग्रन्थ के शीर्षकों को निकाल कर उन के स्थान पर अपनी ओर से अधूरे, अशुद्ध विषय लिख दिये हैं। एवं ग्रन्थ के मध्य में अपनी ओर से यत्र-तत्र अनेक स्थानों पर नये शीर्षक बढ़ाये हैं। इनमें बहुत स्थानों पर अशुद्धियां भी हैं। बढ़ाये हुए शीर्षकों पर कोई चिह्न भी नहीं लगाया गया है। सब स्थानों पर इस प्रकार के छोटे-छोटे समस्त शीर्षक नहीं दिये हैं जिससे उपयोगिता समाप्त हो गई है और पाठकों को भ्रान्ति में डाला गया है।
यदि संशोधकों के ये दुष्कृत्य नहीं रोके गये तो भविष्य में महर्षि के ग्रन्थों में अन्य आर्ष ग्रन्थों की भांति प्रक्षेपों का पता लगाना दुष्कर ही हो जायेगा। जिससे भविष्य में ऋषि के ग्रन्थों में असंशोधित पाठों में भी सन्देह होने लगेगा। महर्षि के ग्रन्थों में मिलावट अथवा सभी प्रकार की बढ़ती हुई मनोवांछित टिप्पणियों की बाढ़ को ट्रस्ट सर्वथा समाप्त करना चाहता है। ट्रस्ट ने इस दूषित मनोवृत्ति को रोकने के लिए ऋषि के जीवनकाल में छपे सत्यार्थप्रकाश, संस्कारविधि और
ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ग्रन्थों को फोटो-प्रिण्ट से छपवा दिया है। सम्पादकों को उन मूल ग्रन्थों के अनुसार ही सम्पादन करना चाहिए। प्रेस-अशुद्धियां ठीक करने और पाठ-संशोधन करने में महान् अन्तर होता है। छपने-छपाने की अशुद्धियां तो ठीक करनी ही चाहिए।
इस संस्करण में सभी प्रमाणों के पते द्वितीय संस्करणानुसार ही दिये हैं। प्रायः सम्पादक ऋषि के ग्रन्थों में जहां प्रमाणों के पते नहीं दिये गये हैं वहां अपनी ओर से प्रमाणों के पते देना अच्छा समझते हैं। महर्षि के ग्रन्थों में मनुस्मृति के बहुत प्रमाण दिये गये हैं, किन्तु उन के पते नहीं दिये गये हैं, जिस से महर्षि का दृष्टिकोण यह प्रतीत होता है कि मनुस्मृति में प्रक्षेप भी हैं। यदि कभी मनुस्मृति का शुद्ध संस्करण उपलब्ध हो जाये तो सब दिये पते अशुद्ध होंगे। एवं महर्षि द्वारा दिये प्रमाणों के पतों को देखने से यह सिद्ध होता है कि ऋषि ने प्रमाणों एवं पतों को बहुधा स्मृतिबल से लिखवाया है, ग्रन्थ सामने रखकर नहीं।
ऋषि के ग्रन्थों में अपनी इच्छा से प्रमाणों के पते देकर उक्त तथ्य को समाप्त कर दिया गया है। यह तथ्य सुरक्षित रहना चाहिए तथा मूल को नहीं बदलना चाहिए। मूल ग्रन्थ में प्रमाणों के पते पते देने से मूल ग्रन्थ में अनेक दोष उत्पन्न हुए हैं। विस्तार भय से यहां उनका उल्लेख नहीं दिया जा सकता। सम्पादकों ने जो पते दिये हैं उन में सब की एकरूपता नहीं पाई जाती।
अतः हम ने प्रमाणों के पतों को भी द्वितीय संस्करणानुसार ही रखा है। मूल में अल्पविराम, अर्द्धविराम, पूर्णविराम आदि चिह्न तथा प्रकरण के अनुसार सन्दर्भों की रचना अपनी ओर से की गई है। जिस से पाठक मूल के तात्पर्य एवं प्रकरण को सरलता से ग्रहण कर सकें। बढ़िया कागज तथा सुन्दर छपाई से ग्रन्थ की उपयोगिता और भी बढ़ गई है। ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित यह पञ्चदश संस्करण है। इस संस्करण के अतिरिक्त ट्रस्ट अब तक १,०३,६०० सत्यार्थप्रकाश प्रकाशित कर चुका है।
इस का सम्पादन धर्मपाल व्याकरणाचार्य ने अत्यन्त पुरुषार्थ और योग्यता से किया है।
दिसम्बर, १९७७
ऋषिचरणों का अनुचर दीपचन्द आर्य
प्रधान, आर्ष साहित्य-प्रचार ट्रस्ट
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