प्रकाशकीय वक्तव्य
महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपनी वसीयत के द्वारा अन्तिम इच्छा प्रकट की थी कि उनके ग्रन्थों की विस्तृत व्याख्या की जाय। ११० वर्ष बाद तपोनिष्ठ मूर्धन्य विद्वान् स्वामी विद्यानन्द सरस्वती ने “अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि” मन्त्र द्वारा व्रत धारण किया तथा ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को विस्तृत व्याख्या करने में समर्पित हो गये। फलस्वरूप ऋषि के प्रस्थानत्रयी में प्रथम ‘ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका’ ग्रन्थ की विस्तृत व्याख्या “भूमिकाभास्कर” के रूप में दो खण्डों में सम्पूर्ण की।
आर्य जगत के सभी प्रकाण्ड विद्वानों ने इसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की तथा स्वाध्यायशील सभी आर्य पुरुषों ने इसका हार्दिक स्वागत किया। इसी शृङ्खला में स्वामीजी महाराज ने महपि दयानन्द के अमर ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’ की विस्तृत व्याख्या २००० पृष्ठों के दो खण्डों में “सत्यार्थभास्कर” के रूप में की है। अब तक जितने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश पर लिखे गये, वे केवल विरोधियों द्वारा उठाई गई आपत्तियों का उत्तर देकर, उनका मुंह बन्द करने के लिये लिखे गये थे। शास्त्रीय पद्धति में जिसे भाष्य कहा जाता है
जिसमें एक-एक वाक्य और एक-एक शब्द में घुसकर उसपर विचार किया जाता है, अब तक. एक भी ग्रन्थ नहीं लिखा गया। एक बार सार्वदेशिक सभा ने एक-एक समुल्लास के लिए एक-एक विद्वान् को नियुक्त करके इस कार्य को सम्पन्न कराने का प्रयास किया। पर वह भी असफल रहा। ऐसी विषम स्थिति में स्वामी विद्यानन्दजी ने अनिश घोर तप करके यह अनुपम-कालजयी ग्रन्थ लिखा है। वस्तुतः यह स्वामीजी महाराज की वर्षों की निष्ठा एवं साधना का परिणाम है। इसमें ऋषि दयानन्द के एक-एक शब्द के भीतर प्रवेश कर उनकी सम्पुष्टि में प्रमाण-पुरःसर युक्तियों की झड़ी लगा दी है।
चारों वेद, ब्राह्मण ग्रन्थ, अष्टाध्यायी, महाभाष्य, षड्दर्शन, उपनिषद्, सूत्रग्रन्थ, रामायण, महाभारत, पुराण, स्मृतिग्रन्थ आदि वेद-वेदाङ्ग साहित्य के प्रमाण इस सत्यार्थभास्कर में मिलेंगे । पाश्चात्य विद्वानों तथा समसामयिक पत्र-पत्रिकाओं के उद्धरण भी पदे-पदे प्रमाणों के रूप में मिलेंगे ।
न जाने कितना अगाध ज्ञान स्वामींजी ने इस विशाल ग्रन्थ में भर दिया है। मानो वेद-वेदाङ्ग के समग्र साहित्य का यह सर्वतोमुखी ज्ञान भण्डार (ऐन्साइक्लोपीडिया = Encyclopaedia) बन गया हो। यह सब कठिन कार्य वृद्धावस्था में किस अस्वस्थ दशा में स्वामीजी ने पूर्ण किया, यह उनके उनके अपने शब्दों में मिलता है। १८-८-६२ के पत्र में वे लिखते हैं- ‘एक वर्ष दो मास तक आधी आँख से दो आँखों का काम लेता रहा।’ पुनः २४-७-६३ के पत्र में लिखते है, “परसों मुझे एनजाइना का पुनः झटका लगा – इस बार कुछ जोर का….. अब यह उतार-चढ़ाव तो चलते ही रहेंगे और इन्हीं के रहते काम करते रहना पड़ेगा।
” धन्य है स्वामीजी का यह दृढ़ मनोबल और धन्य है उनको ऋषिभक्ति। एक ही आँख कुछ काम करती है, हृदय के एनजाइना रोग के झटके आते रहते हैं, फिर भो अब प्रस्थानत्रयी के तीसरे ग्रन्थ ‘संस्कारविधि’ पर भी महाभाष्य लिख रहे हैं। किंन शब्दों में आपका गुणगान करें, आपका आभार प्रकट करें। आपने इन अद्वितीय अनुपम ग्रन्थों के प्रकाशन का शुभ अवसर हमें प्रदान किया। प्रभुदेव आपको ‘भूयश्च शरदः शतात्’ का प्रसाद प्रदान करें, हमारी यही प्रार्थना है- “शृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा आ ये धामानि दिव्यानि तस्थुः”
अमृतस्वरूप भगवान् ने इस पवित्र मन्त्र द्वारा कहा है कि ऐ विश्व के अमृत पुत्रो ! सुनो ! मैंने तुम्हारे लिए इस संसार में सुखरूप दिव्यधाम बनाये हैं। आओ उनको प्राप्त कर मोक्षसुख के भागी बनो ।
इन दिव्यधामों को प्राप्त करने के लिए सत्यार्थभास्कर की घर-घर में कथा हो, जिसके श्रवण, मनन तथा धारण से मानवमात्र अपने जीवन को सफल करें। इसी में हम इस प्रकाशन के प्रयास की सफलता की कामना करते हैं।
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