ऋषि दयानन्द सिद्धान्त और जीवन दर्शन
Rishi Dayanand Siddhant Aur Jeevan Darshan

200.00

  • By :Dr. Bhavanilal Bharatiya
  • Subject :About Rishi Dayanand’s Life And Philosophy
  • Category :Research
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पुस्तक परिचय:

इस ग्रन्थ (ऋषि दयानन्द : सिद्धान्त और जीवन दर्शन) के लेखक श्री भवानीलाल भारतीय जी ने अपने जीवन का बहुलांश ऋषि दयानन्द के जीवन, कर्तृत्व, विचार और उनके अवदान पर पढने, चिन्तन करने तथा लिखने में लगाया है. साथ ही उनके सम्बन्ध में लगभग साठ ग्रन्थों का प्रणयन किया है जो उनके मौलिक जीवनचरित लेखन, विगत में छपे स्वामी जी के अन्य जीवनचरितों के सम्पादन, विभिन्न नगरों में उनके प्रवास विवरणों का लेखन, उनके द्वारा रचित कतिपय ग्रन्थों के सम्पादन तथा उनके वैचारिक पक्ष का मूल्यांकन करने से सम्बन्धित है.

सन् १९८३ में श्री भारतीय जी ने स्वामी दयानन्द जी की निधन शताब्दी के अवसर पर स्वामी जी का एक बृहद्, शोधपूर्ण जीवनचरित “नवजागरण के पुरोधा: स्वामी दयानन्द” लिखा था, तो प्रस्तुत ग्रन्थ (ऋषि दयानन्द : सिद्धान्त और जीवन दर्शन) स्वामी जी के वैचारिक पक्ष की समग्र विवेचना में लिखा गया है. इस ग्रन्थ में सुयोग्य लेखक ने ऋषि दयानन्द के सिद्धान्तों, मान्यताओं तथा उनके वैचारिक पक्ष पर एक सर्वांग़ीण विस्तृत विवेचना प्रस्तुत की है, जिस में ऋषि दयानन्द के जीवनदर्शन का समग्रता में आकलन किया गया है. एक प्रकार से यह ग्रन्थ उक्त बृहद्, शोधपूर्ण जीवनचरित “नवजागरण के पुरोधा: स्वामी दयानन्द” का पूरक है.

प्रस्तुत ग्रन्थ की विशेषता यह है कि इसमें स्वामी दयानन्द जी के सिद्धान्तों और जीवनदर्शन की एक सुस्पष्ट रूपरेखा प्रस्तुत की गई है. इसे समग्र तथा सर्वांगीण बनाना लेखक का प्रमुख ध्येय रहा है. फलतः इस ग्रन्थ में भारत में यूरोपीय शक्तियों के आगमन तथा स्वामी दयानन्द के युग की तत्कालीन परिस्थितियों के आकलन के पश्चात् नवजागरण आन्दोलन की एक संक्षिप्त रूपरेखा प्रस्तुत की गई है. स्वामी दयानन्द के उनसठ वर्षीय जीवनक्रम को प्रस्तुत करने के पश्चात् धर्म, दर्शन, संस्कृति, प्रशासन तथा राजधर्म जैसे विषयों पर उनके सटीक विचारों को उन्हीं के जीवन एवं ग्रन्थों के आधार पर विवेचित किया गया है.

अपने-अपने पूर्वाग्रहों तथा स्वनिर्मित संकुचित और भ्रामक धारणाओं के कारण अनेक लेखक / विवेचक स्वामी दयानन्द के उस उदार और मानवतावादी चरित्र को स्फुट नहीं कर पाये है जो उनके जीवन तथा लेखन में पदे-पदे दिखाई पडता है. स्वामी दयानन्द की इस उदार और मानवतावादी छवि को पहचानना साधारणतया इसलिए भी कठिन हो जाता है क्योंकि मत-मतान्तरों के अन्धविश्वासों, रुढियों तथा सम्प्रदायगत संकीर्णताओं की आलोचना करनें में स्वामी दयानन्द ने कहीं नरमी नहीं दिखाई है. फलतः असावधान लेखक या आलोचक स्वामी दयानन्द को असहिष्णु तथा कठोर खण्डन करने वाला मान बैठता है. वैसे भी खण्डन-मण्डन में स्वामी दयानन्द की हार्दिक शुद्ध भावना और ईमानदारी को समझना इन आलोचकों के वश की बात नहीं है. सुयोग्य लेखक ने स्वामी दयानन्द के विचारों तथा चिन्तन में सर्वत्र उभरे उनके मानवतावादी स्वर को इस ग्रन्थ में यथास्थान विवेचित किया है.

इस ग्रन्थ में २१ अध्याय हैं, जो इस प्रकार हैं –

1. पूर्व-पीठिका
2. ऋषि दयानंद के आविर्भाव के पूर्व का काल तथा समसामयिक परिस्थितियाँ
3. उन्नीसवीं शताब्दी का पुनर्जागरण
4. ऋषि दयानंद: उनसठ साल की जिंदगी के विभिन्न पड़ाव
5. ऋषि दयानंद का धर्मं-चिंतन
6. ऋषि दयानंद प्रतिपादित वैदिक धर्म
7. वैदिक धर्म में आई विकृति – ऋषि दयानंद का पर्यवेक्षण
8. ऋषि दयानंद की दार्शनिक दृष्टि
9. ऋषि दयानंद की तत्त्व-मीमांसा
10. ऋषि दयानंद की आचार-मीमांसा
11. ऋषि दयानंद के सामाजिक सरोकार
12. कुछ सांस्कृतिक प्रश्न – जिनसे ऋषि दयानंद को रूबरू होना पडा
13. ऋषि दयानंद प्रतिपादित राजधर्म
14. ऋषि दयानंद की राष्ट्रीय भावना
15. ऋषि दयानंद का आर्थिक चिंतन
16. ऋषि दयानंद के चिंतन में मानवतावादी स्वर
17. दयानंदीय चिंतन के कुछ स्वर्णिम सूत्र
18. ऋषि दयानंद का रचना संसार
19. ऋषि दयानंद के प्रति कुछ देशी-विदेशी मनीषियों के उद्गार
20. उपसंहार
21. सहायक एवं सन्दर्भ ग्रन्थ-सूचि

ग्रन्थ सभी प्रकार से उत्तम और आकर्षक है. जिज्ञासु लोग प्रकाशक / वितरक का संपर्क कर इस ग्रन्थ को मंगाकर पढ़ सकते हैं. इसे पढ़ने से ऋषि दयानन्द का सही मूल्यांकन करने में पाठक को सुविधा रहेगी.

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