पथिक Pathik
₹150.00
WEIGHT | 450 kg |
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BOOKPAGES | 332 |
AUTHOR NAME | Shri Gurudutt |
BOOK_ID | 5342 |
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युवावस्था से ही राजनीतिज्ञों से सम्पर्क , क्रान्तिकारियों से समीप का सम्बन्ध तथा इतिहास का गहन अध्ययन इन सब की पृष्ठभूमि पर श्री गुरुदत्त ने कुछ उपन्यास लिखे हैं । ‘ स्वाधीनता के पथ पर पथिक ‘ तथा स्वराज्यदान ‘ राजनीतिक उपन्यासों की श्रृंखला में प्रथम तीन कढ़ियां हैं जिन्होंने उपन्यास जगत् में धूम मचा दी थी । श्री गुरुदत्त चोटी के उपन्यासकार माने जाने लगे ।
पथिक (Pathik) श्रापित मंदिर
हिमालय की तराई में , ठीक जहाँ से पर्वत श्रृङ्खला आरम्भ होती है , एक छोटा – सा गाँव है । गाँव का नाम देवा है । यह गाँव स्वच्छ , निर्मल जल वाली नदी के किनारे बसा है । नदी को वहां के लोग पद्मा के नाम से जानते हैं । नदी के किनारे पर एक आम की बगिया है और बगिया में एक मकान है जो बाहर से देखने पर मन्दिर प्रतीत होता है । परन्तु इसमें किसी देवता की मूर्ति स्थापित नहीं की गई है । इस बगिया अथवा मकान में कोई नहीं रहता । न ही इसमें कोई जाता है । गाँव के लोगों की धारणा है कि इसमें भूत रहते हैं । बगिया और वह मकान दोनों ही श्रापित है । इस बगिया और मन्दिर को देवा गाँव और इस इलाके के जमींदार के एक पुरखा ने बनवाया था । उनका नाम लेते हुए भी लोगों का हृदय कपिता है । कारण यह है कि वह अति निर्दयी , दुराचारी , कामी , क्रोधी और आततायी था । एक ब्राह्मण की कन्या से दुराचार करने पर , ब्राह्मण ने पद्मा नदी में डूबकर आत्मघात करते समय उसे श्राप दिया था , ‘ दुष्ट , तेरे नाम लेनेवाले का भी सत्यानाश होगा । ‘ ब्राह्मण तो डूबकर मर गया , परन्तु उसका श्राप अभी तक जीवित है । जमींदार को जब श्राप का पता चला तो उसने प्रायश्चित्त किया , व्रत रखा , यज्ञ करवाया , बाग लगवाया और भगवती का मन्दिर बनवाया । व्रत अधूरा रह गया , जमींदार ज्वर – ग्रस्त हो गया , यज्ञ पूरा नहीं हो सका और पुरोहित को अर्धाङ्ग बात हो गई । मन्दिर बन तो गया , परन्तु देवी की मूर्ति की प्रतिष्ठा नहीं हो सकी क्योंकि उसके पूर्व ही जमींदार का देहान्त हो गया । कथा यहीं समाप्त नहीं हो गई । जमींदार का इकलौता पुत्र भी पिता के देहांत के कुछ ही काल बाद इस संसार से चल बसा । इस प्रकार उनकी जमींदारी किसी दूर के सम्बन्धी को मिली । नये जमींदार ने जब श्राप की कथा सुनी तो उसने अपने घर में और गांव मृत जमींदार का नाम लेने और मन्दिर तथा बगिया में जाने की मनाही कर दी ।
इस दुःखद घटना को हुए एक सौ वर्ष से ऊपर व्यतीत हो चुके थे , परन्तु ज़मींदार के परिवार और देवा ग्राम के लोग उस आततायी का नाम लेने से अभी तक डरते थे । मन्दिर और बगिया को तो लोगों ने ऐसा छोड़ा कि वह भूतों का निवासस्थान ही माना जाने लगा । उन सबको श्रापित विशेषण देकर स्मरण किया जाता था – श्रापित ज़मींदार , श्रापित बगिया तथा श्रापित मन्दिर । लोगों में किंवदन्ती थी कि उस कन्या के पिता की आत्मा भूत बन उस मन्दिर में रहती हैं ग्राम के नर – नारी नित्य पद्मा पर स्नान करने और जल भरने जाते थे । नदी के किनारे पक्का घाट बना है और श्रापित मन्दिर तथा बगिया इस घाट के समीप ही पीछे की ओर हैं । घाट से नदी पूर्व की ओर है और बगिया तथा मन्दिर पश्चिम की ओर स्नान करने वाले तथा पानी भरने वाले जब वहाँ जाते तो मन्दिर तथा बगिया की ओर आँख उठाकर भी न देखते । कार्तिक मास के अन्तिम दिन थे । एक दिन प्रातः काल एक स्त्री अपनी छः सात वर्ष की लड़की के साथ स्नान करने तथा पानी भरने घाट पर आई थी । जाड़े का आरम्भ था । इतने सवेरे स्नान के लिए घाट पर अभी और कोई नहीं पहुँचा था स्त्री धार्मिक विचारों में रत प्रतीत होती थी । स्नान करते – करते विष्णु सहस्र नाम का पाठ करती जाती थी । लड़की भी तोतली भाषा में हरे राम हरे कृष्ण की रट लगा रही थी । स्नान कर , कपड़े पहन , मां – बेटी गगरी भरने लगीं थीं कि तभी पीछे से अति मधुर स्वर में किसी के गाने का शब्द सुनाई दिया . कोई गा रहा था . बन्दों श्री हरि पद सुखदाई जाकी कृपा पंगु गिरि लंघे , अंधरे को सब कछु दरसाई , लड़की ने पहले सिर उठाकर गाने वाले की और देखना चाहा । वह घाट पर जल के समीप खड़ी थी । किनारा ऊँचा था . इसी कारण वह गाने वाले को नहीं देख सकी । वह अपनी छोटी – सी गगरी को जो उसने जल से भरकर सीढ़ी पर रखी थी , वहीं छोड़ भागकर घाट की सीढ़ियों पर चढ़ गई और बगिया की ओर देखने लगी । बगिया में मन्दिर के बाहर , चबूतरे की सीढ़ियों पर एक सिर नगा , बड़ी – बड़ी दाढ़ी मूंछो वाला आदमी बैठा गा रहा था । लड़की ने अपनी मां और अन्य गाँव वालों से सुना हुआ था कि इस मकान में भूत रहते हैं । अस्तु इस गाने वाले को उसने भुत समझ लिया और चिल्लाकर माँ से कहने लगी . मॉस और उंगली से भापित बगिया की ओर संकेत करने लगी । माँ भी दौड़ती हुई घाट के ऊपर चढ़ आई और गाने वाले की ओर देखने लगी । न जाने गाने वाले ने उनको देख लिया था अथवा जैसे ही यह मन्दिर की सीढ़ियों से उठा उठने पर पकाते और भी भयानक प्रतीत होने लगी ।
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