उपोद्घात प्रत्येक उपनिषद् के प्रारम्भ में शान्ति पाठ के रूप में कुछ मंत्र दिये जाते हैं । मुण्डकोपनिषद् के धारम्भ में भी दो मंत्र दिये गये हैं और वही मंत्र माण्डूक्योपनिषद् में भी हैं । अर्थात् शान्ति पाठ के विचार से दोनों उपनिषदों के प्रवक्ता समान भावना से अपना प्रवचन दे रहे हैं । हम समझते हैं कि दोनों उपनिषदों का विषय भी समान ही है । मुण्डक उपनिषद् में यह समझाने का यत्न किया गया है कि यह कार्य – जगत् क्या है ?
उसमें कहा है कि तीन अक्षर पदार्थ हैं । उनका संयोग ही यह ( कार्य – जगत् ) है । कार्य – जगत् का अभिप्राय है जो तीनों ब्रह्मों के संयोग से बनता है । जीवात्मा जब जगत् का ज्ञान प्राप्त कर लेता है तो उस ज्ञान के परिणाम स्वरूप वह मुक्तावस्था को प्राप्त कर लेता है । इस उपनिषद् में इस कार्य – जगत् का ही वर्णन है ।
अन्तर केवल यह है कि जहाँ मुण्डकोपनिषद् में यह बताने का यत्न किया है कि रचना की अवस्था में जीवात्मा प्रकृति के भोग भोगता है और जब वह ज्ञानवान हो जाता है और ज्ञान से उसका स्वभाव ज्ञानयुक्त बनता है , तब वह प्रकृति से छुटकारा या मोक्ष अर्थात् प्रकृति से विरक्तावस्था प्राप्त करना चाहता है । परन्तु माण्डूक्योपनिषद् में जीवात्मा के विषय में कुछ नहीं कहा ।
यह कहा है कि एक ऐसी स्थिति भी आती है , जब परमात्मा प्रकृति से पृथक् हो जाता है अर्थात् जब प्रकृति के परमाणु परमात्मा की शक्ति के प्रभाव में नहीं रहते । उसे दुरिया अवस्था कहते हैं । परमात्मा , प्रकृति और जीवात्मा के परस्पर सम्बन्धों की अवस्था का वर्णन इस ( माण्डूक्य ) उपनिषद् में है ।
दूसरे शब्दों में , संसार के मूल तत्त्वों से लेकर उस अवस्था तक का वर्णन है , जब इन तीनों का परस्पर सहयोग होता है । इन अवस्थाओं का वर्णन करने के लिए ‘ घों ‘ शब्द की बनावट का उदाहरण लिया है ।
‘ श्रीं ‘ शब्द तीन मूल अक्षरों के संयोग का फल है । वे मूल अक्षर है अ , उ और म् । इन तीनों में जब सन्धि होती है तो ‘ ओ ‘ बन जाता है । इसी प्रकार संसार के तीन मूल तत्त्व – परमात्मा , जीवात्मा तथा प्रकृति में परमात्मा की तुलना ‘ घ ‘ अक्षर से की है , जीवात्मा की तुलना ‘ उ ‘ अक्षर से तथा प्रकृति की तुलना ‘ म् ‘ से की गयी है ।
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