प्राक्कथन
‘ जड़ चेतन गुण दोषमय विश्व कीन्ह करता – के अनुसार परमेश्वर ने यह संसार जड़ – चेतन दो रूपों में बनाया है ।
जड़ वे पदार्थ हैं जिनमें बुद्धि , गति आदि नहीं है तथा चेतन वे हैं जिनमें गति है , वृद्धि है , आभास है । यद्यपि परमेश्वर जो चेतना का स्रोत है , वह सर्वत्र व्यापक होने से जड़ कुछ नहीं बचता , सब चेतन ही है , ‘ न जड़ क्वचिद् । चेतना के स्तर पर हम विचार करें तो आत्म चेतना का विकास मनुष्य में सर्वाधिक है ।
उसी क्रम में पशु , पक्षी , तिर्यक आदि आते हैं । यहाँ मानवीय चेतना के संदर्भ में चर्चा की जा रही है । तीन तत्त्वों को नित्य कहा गया है । ईश्वर , आत्मा ( पुरुष ) तथा प्रकृति ईश्वर नियामक है , आत्मा तथा प्रकृति के संयोग से सृष्टि होती है ।
जड़ प्रकृति चेतन पुरुष के संसर्ग से चेतन सी हो जाती है तथा उसमें क्रियाशीलता आ जाती है । पुरुष की चेतना के कारण चित्त , इन्द्रियाँ आदि चेतनवत् समस्त कार्यों का सम्पादन करने लगते हैं ।
जब मृत्यु के समय आत्म चेतना का साथ शरीर से छूट जाता है तो वह शरीर जो समस्त क्रियाकलाप का आधार था निष्क्रिय होकर नष्ट हो जाता है । अतः स्पष्ट होता है कि आत्मतत्त्व ही मुख्य चेतन तत्त्व है । अन्य तत्त्वों में उसी की चेतना व्याप्त है ।
शरीर , मन , बुद्धि , अहंकार , इन्द्रियाँ आदि उसी की चेतना से चेतन हैं । अतः मनुष्य का व्यवहार या चेष्टाएँ चेतना के क्षेत्र के अन्तर्गत आते हैं । चार्वाक की भांति पश्चिमी चिंतक मानवचेतना को उच्च स्तरीय संगठित पदार्थों की अभिव्यक्ति मानते हैं ।
अमेरिकी विद्वान् पुटनम मानवचेतना को मस्तिष्क रूपी मशीनी यंत्र के प्रकाश से अधिक कुछ नहीं मानता । डार्विनवादी तथा मार्क्सवादी चिंतन भी यही कहता है ।
मस्तिष्क को इलैक्ट्रानिक यंत्र तथा इसकी विद्युत चुम्बकीय गतिविधियों को वे चेतना कहते हैं किन्तु इनके विपरीत तंत्रिकाविज्ञानी जॉन एकल्स चेतना के अस्तित्व को मस्तिष्क से अलग स्वीकार करते हैं ।
कार्ल पॉपर मन व मस्तिष्क को पृथक् मानते हैं तथा विलियम जेम्स मस्तिश्क पर मन के चिंतन , व्यवहार व ज्ञान का प्रभाव स्वीकार करते हैं । युग मानवचेतना को चित्त के रूप में परिभाषित करते हैं । यही भारतीय दार्शनिकों की विचारधारा है ।
वे चेतन तत्त्व पुरुष के साथ चित्त , इन्द्रियों आदि को चेतना में समाहित करते हैं । पुरुष की चेतना से चेतन ये तत्त्व ही मानवीय चेतना के अस्तित्व को प्रकट करते हैं । चेतना की चार अवस्थाएँ कहीं गई हैं जाग्रत , स्वप्न , सुषुप्ति तथा तुरीया ।
यह चतुर्थ अवस्था ही आत्मबोध की अवस्था है । इस स्तर तक पहुँचने के अनेक साधन हैं । ज्ञानयोग , भक्तियोग , कर्मयोग , अष्टांगयोग आदि उनमें से मुख्य हैं ।
उक्त चारों अवस्थाओं का अध्ययन मानवचेतना के क्षेत्र के अन्तर्गत आता है । चेतना के विकास की विभिन्न विधियों में योग के विभिन्न प्रकारों के साथ विभिन्न धर्मों के आचार्यों द्वारा बताई गई विधियों का भी महत्त्वपूर्ण योगदान है ।
आज के वैज्ञानिक युग में मानव आत्मतत्त्व तथा ईश्वर दोनों ही तत्त्वों को नकार रहा है । वह स्वयम्भू होकर अपने हाथ में सब कुछ कर लेना चाहता है । केवल उसी की सत्ता स्थापित हो जाए – इसके लिए अहर्निष प्रयत्नशील है ।
यही महती प्रभुत्वाकांक्षा उसे चैन से रहने नहीं देती । अपनी यथार्थ सत्ता को पहचानने में बाधक बन गई है । इसी कारण अपने बनाए जाल में स्वयं ही आबद्ध होकर वह अधिकाधिक लिपटता जाता है ।
जब वह स्वयं को सब कुछ करने में असमर्थ पाता है तो तनाव , चिंता , निराशा , कुंठा , अवसाद जैसे मानसिक रोगों से ग्रस्त हो जाता है । जिससे शारीरिक व्याधियों से भी पीड़ित होकर शेष जीवन को दूभर बना लेता है ।
यह उसकी नासमझी नहीं तो क्या है ? मानव को इन कष्टों से मुक्ति के लिए निज स्वरूप को जानने की आवश्यकता है । जीवन जीने के लिए सर्वशक्तिमान् परमेश्वर की सत्ता में विश्वास तथा मानवोचित आचरण की नितान्त आवश्यकता है ।
इसके लिए मानवीय चेतना के विकास की आवश्यकता होगी । चित्त के उदारीकरण हेतु अविद्या , अस्मिता , राग , द्वेष , अभिनिवेश रूपी पंचक्लेशों का निवारण , संस्कार , पुनर्जन्म , भाग्य , पुरुषार्थ , कर्मसिद्धान्त आदि की जानकारी तथा स्वयं को प्रभु के प्रति समर्पण करके अनासक्त भाव से प्रभु के आदेश का पालन करने की स्थिति बनानी होगी ।
ऐसी विकसित चेतना वाला मानव अपने जीवनकाल में कभी भी कष्ट की अनुभूति नहीं करेगा तथा सदा आनन्द में रहेगा । इस ग्रन्थ में चेतना का अर्थ , परिभाषा , क्षेत्र , मानवचेतना का स्वरूप आदि पर प्रकाश डाला गया है ।
दार्शनिक , वैज्ञानिक , मनोवैज्ञानिक , शरीर वैज्ञानिक , परामनोवैज्ञानिक आदि दृष्टिकोणों से विचार किया गया है । शरीर विज्ञान , मनोविज्ञान , दर्शनशास्त्र आदि शोधों के उल्लेख के साथ – साथ मानवचेतना के विभिन्न रहस्यों – जन्म , जीवन , भाग्य , पुरुषार्थ , संस्कार , पुनर्जन्म , कर्मफल विधान , पंचकोश , सप्तचक्र , तीन शरीर , कुण्डलिनी शक्ति आदि का वर्णन किया गया है ।
मानवचेतना का विकास करने की विभिन्न विधियों के वर्णन के अन्तर्गत भारतीय ऋषियों तथा अन्य धर्माचार्यों के सिद्धान्तों का उल्लेख किया गया है । आज के इस युग में मानवचेतना को विकसित किए बिना जीवन की राह सुगम नहीं होगी , ऐसा मेरा मत है ।
हम मानव से उच्च , उच्चतर , उच्चतम शिखर की ओर बढ़ते जाएँ , इसका विकसित चेतना के अतिरिक्त अन्य कोई मार्ग नहीं है – नान्यः पन्थाः विद्यतेऽयनाय ।
श्री अरविन्द के द्वारा प्रशस्त मार्ग द्वारा दिव्य रूपान्तरण होकर अतिमानव की स्थिति तभी लाई जा सकती है । इस पुस्तिका के माध्यम से मेरी यही इच्छा है कि मानव अतिमानवीय अवस्था तक पहुँचे तथा संसार का कल्याण हो ।
इस ग्रन्थ के लेखन में अनेक विद्वानों के मतों का उल्लेख किया गया है । मैं उन सभी का हृदय से आभारी हूँ । गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के आचार्य एवं उपकुलपति तथा उत्तराखंड संस्कृत अकादमी के उपाध्यक्ष माननीय प्रो० महावीर जी के शुभ आशीर्वाद से इस ग्रन्थ का शुभारम्भ हो रहा हैं ।
इसके लिये मैं उनके प्रति हृदय से कृतार्थ ज्ञापित करता हूँ तथा उनके स्नेह एवं सहयोग की सदैव कामना करता ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के वैज्ञानिक ऋषि श्रद्धेय श्री जितेन्द्र तिवारी जी तथा उनके सहयोगी प्रिय डॉ० हेमाद्रि साव ने सामग्री संकलन में जो सहयोग प्रदान किया , उसके लिए उनका जितना भी आभार व्यक्त करूँ , कम है । धन्यवाद शब्द उसके लिए अत्यन्त क्षुद्र है ।
मेरी सहधर्मिणी की अध्यात्म चर्चा , पुत्र सुयश के द्वारा इंटरनेट आदि की उपलब्धता तथा पुत्रियों पूर्णिमा व ईशा के स्नेह का सम्बल पाकर यह कार्य पूर्ण हो सका है । इसके लिए मैं परमपिता परमेश्वर की सहज कृपा का सुयोग मानता हूँ ।
” सत्यम् पब्लिशिंग हाउस के मालिक श्री आर ० डी ० पाण्डेय को धन्यवाद दिए बिना यह कृतज्ञता ज्ञापन पूर्ण नहीं होगा जिन्होंने बार – बार इसे प्रकाशित करने का आग्रह करके मुझे इस कार्य में प्रवृत्त किया । आशा है इस कृति से मानवचेतना सम्बन्धी कुछ अनसुलझे प्रश्नों को सुलझाने में सहायता प्राप्त होगी ।
छात्रों के लिए यह पुस्तिका मार्गदर्शक के रूप में उपयोगी सिद्ध होगी , ऐसी कामना करता हूँ ।
शमित्यो ३म् !
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