महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ
Maharshi Dayanand ke Shastrarth

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SUBJECT: महर्षि दयानन्द के शास्त्रार्थ | Maharshi Dayanand ke Shastrarth
CATEGORY: Vedic Debate
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2019
PAGES: 216
BINDING: Paper Back
WEIGHT: 240 GM

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Description

ग्रन्थ परिचय

‘काशी-शास्त्रार्थः’ काशी, जो कि पौराणिकों का गढ़ था, में संवत् १९२६ मि. कार्तिक सुदी १२, मंगलवार के दिन हुआ था। शास्त्रार्थ स्वामी दयानन्द सरस्वती तथा काशी निवासी स्वामी विशुद्धानन्द सरस्वती तथा बालशास्त्री आदि पण्डितों के बीच हुआ था। शास्त्रार्थ का विषय मूर्तिपूजा था। इसमें स्वामी जी का पक्ष पाषाण मूर्तिपूजन आदि का खण्डन करना तथा काशी के पण्डितों द्वारा मूर्तिपूजा का मण्डन वेद प्रमाण के आधार पर करना निश्चित हुआ था।

काशी के पण्डित कोई भी ऐसा वैदिक प्रमाण प्रस्तुत नहीं कर पाये, जिससे मूर्ति की पूजा करना सत्य सिद्ध हो सके। यहाँ तक कि वे ‘प्रतिमा’ शब्द से अपने पक्ष को सिद्ध करना चाहते थे, वे भी नहीं कर पाये। अतः बाद में मूल विषय को छोड़कर वे विषयान्तर में आ गये और ‘पुराण’ शब्द के ‘विशेषण’ और ‘विशेष्य’ विषय पर संवाद प्रारम्भ हो गया।

इसमें भी काशीस्थ पण्डित ‘पुराण’ शब्द को ‘विशेष्यवाची’ (जो उनका पक्ष था) सिद्ध नहीं कर पाये, लेकिन स्वामी दयानन्द जी ने विशेषणवाची सिद्ध कर दिया। बाद में अपनी पराजय होती देख काशीस्थ पण्डितों ने दो पृष्ठ स्वामी जी के समक्ष पटककर, वहाँ लिखित ‘पुराण’ शब्द को विशेषण सिद्ध करने के लिए कहा। स्वामी जी अभी उनको पढ़ ही रहे थे कि वे बीच में उठकर ही शोर मचाने लगे और कहा कि शास्त्रार्थ समाप्त हो गया।

वास्तव में, काशी के लोग असभ्य व्यवहार करके, अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दयानन्द जी को पराजित घोषित करके तालियाँ आदि भी पीटने लगे। यह एकदम सभ्यता विरुद्ध व्यवहार था। बाद में काशीराज के छापेखाने से पुस्तक छापकर भी उन्हें बदनाम करने की कोशिश की गई।

इतना होने पर भी संवत् १९३७ तक स्वामी जी, काशी में छह बार आकर विज्ञापन लगाते रहे कि कोई वैदिक प्रमाण एवं युक्ति के आधार पर मूर्तिपूजा को सत्य सिद्ध करना चाहे तो सभ्यतापूर्वक विचार किया जा सकता है, परन्तु कोई भी सामने न आया। वैदिक यन्त्रालय से संवत् १९३७ में यह शास्त्रार्थ प्रकाशित किया गया था। यह संस्कृत और हिन्दी दोनों ही भाषाओं में लिखा गया है।

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