सम्पादकीय वक्तव्य
उन्नीसवीं शताब्दी के भारत के धार्मिक तथा सांस्कृतिक नवजागरण के उन्नायक तथा पुरोधा दयानन्द सरस्वती के विचारों और कार्यों का प्रभाव उनके जीवनकाल में ही लक्षित होने लगा था। यह प्रभाव केवल भारत तक ही सीमित नहीं था, अपितु दयानन्द की कीर्ति-कौमुदी स्वदेश की सीमा को लांघ कर यूरोप तथा अमेरिका तक छिटक चुकी थी। फलतः देश विदेश के अनेक लोग न केवल उनके विचारों को ही जानना चाहते थे, अपितु उनकी यह भी इच्छा थी कि वे इस महापुरुष की जीवन- यात्रा के विभिन्न पड़ावों की भी जानकारी प्राप्त करें ।
स्वामी दयानन्द स्वयं चतुर्थाश्रमी संन्यासी थे। संन्यास की मर्यादा उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती थी कि वे अपने माता-पिता, जन्मस्थानादि के बारे में लोगों को बताएं। फिर भी उनके जीवन में दो प्रसंग ऐसे आये जब उन्हें स्वजीवन के कुछ वृत्तान्त लोगों के समक्ष व्यक्त करने पड़े। प्रथम बार उन्होंने अपने जीवन से सम्बन्धित कुछ तथ्यों को उस समय बताया जब महामति महादेव गोविन्द रानडे के आग्रह पर वे १८७५ में पुणे में एक व्याख्यानमाला प्रस्तुत कर रहे थे। इस भाषणमाला के अन्तिम दिन अगस्त १८७५ को उन्होंने अपने जीवन के बारे में कुछ बातों से श्रोताओं को अवगत कराया। कालान्तर में जब स्वामी जी का थियोसोफिकल सोसाइटी के संस्थापकों (कर्नल एच०एस० आल्काट तथा मैडम एच०पी० ब्लैवेट्स्की) से सम्पर्क हुआ और उन्होंने अपनी संस्था के दि थियोसोफिस्ट में प्रकाशित करने मुखं पत्र के लिए स्वामी जी से आत्मवृत्तान्त लिखने का अनुरोध किया तो स्वामी जी ने उनके आग्रह को स्वीकार कर आत्मकथा लिखना आरम्भ किया। इस आत्मकथन की तीन किस्तें उक्त पत्र में प्रकाशित हुईं। इसके पश्चात् यह क्रम बन्द हो गया। स्वामी दयानन्द का यह स्वकथित इतिवृत्त उनके जीवन की प्रारम्भकालीन घटनाओं को जानने में सर्वाधिक प्रामाणिक माना गया है।
यों उनके जीवनकाल में ही दयानन्द के जीवनचरित लेखन का एक प्रयास फर्रुखाबाद निवासी एक महाराष्ट्रीय सज्जन ने किया। पं० गोपाल राव हरि शर्मा पुणतांकर ने दयानन्द दिग्विजयार्क शीर्षक से तीन खण्डों में स्वामी जी का स्फुट जीवन-वृत्तान्त, उनके कतिपय शास्त्रार्थों का विवरण तथा उनके ग्रन्थों के कुछ अंश प्रकाशित किये। इस ग्रन्थ का तृतीय खण्ड तो स्वामी जी की मृत्यु के पश्चात् १८८५ ई० में प्रकाशित हुआ । इसमें उनके जीवन के अन्तिम दिनों, रुग्णता, चिकित्सा तथा महाप्रयाण का मार्मिक वर्णन उपलब्ध होता है। दयानन्द दिग्विजयार्क को व्यवस्थित जीवनचरित तो नहीं कहा जा सकता किन्तु इतना अवश्य है कि इसमें जो सामग्री दी गई वह समयान्तर में लिखे गये जीवनचरितों के लिए उपयोगी सिद्ध हुई।
स्वामी जी के ग्रन्थों, यन्त्रालय आदि का स्वत्व रखने वाली परोपकारिणी सभा का एक महत्त्वपूर्ण अधिवेशन दिसम्बर १८८५ में सम्पन्न हुआ। इसमें एक प्रस्ताव स्वीकार कर सभा के उपमन्त्री पं० मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या से अनुरोध किया गया कि वे स्वामी जी का एक विशद, तथ्यपूर्ण जीवनचरित लिखें। देशवासियों से अपील की गई कि वे स्वामी जी के बारे में जो कुछ जानते हों, उसे लिख कर पण्ड्या जी के पास भेज दें। किन्तु यह कार्य आगे नहीं बढ़ सका । यह कहना कठिन है कि पण्ड्या जी ने इसके लिए उद्योग नहीं किया या उनमें इस महत्त्वपूर्ण कार्य की पात्रता तथा उत्साह ही नहीं था। स्वामी जी के परलोक-गमन के पांच वर्ष पश्चात् आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब ने अपनी १ जुलाई १८८८ की बैठक में यह निश्चय किया कि पं० लेखराम आर्यपधिक से स्वामी जी की प्रामाणिक जीवनी लिखने के लिए आग्रह किया जाये। नवम्बर १८८८ से आर्य पथिक ने जीवनी की आधारभूत सामग्री का संग्रह आरम्भ किया । १८९२ तक आर्य पथिक ने देश के विभिन्न भागों में घूम घूम कर उन सहस्त्रों व्यक्तियों से सम्पर्क किया जिन्होंने स्वामी दयानन्द का चाक्षुष प्रत्यक्ष किया था, उनके सम्पर्क में आये थे, उनके उपदेश श्रवण से स्वयं को धन्य किया था अथवा उनसे पत्राचार ही किया था। ऐसे व्यक्तियों के कयनें को उन्होंने सिलसिलेवार लिपिबद्ध कर लिया। यह निश्चित है कि यदि पं० लेखराम एक आततायी के छुरे का शिकार नहीं हुए होते तो वे अपने चरित्रनायक का एक व्यवस्थित एवं प्रामाणिक जीवनचरित लिखते जो आगे के चरितलेखकों के लिए मार्गदर्शन का कार्य करता। ६ मार्च १८९७ को जब वे हत्यारे के घातक प्रहार से आहत होकर परलोक गमन की तैयारी कर रहे थे उस समय तक जीवनचरित के शायद कुछ ही पृष्ठ वे लिख सके थे। २१ मार्च १८९७ को आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब की अन्तरंग सभा ने एक अन्य प्रस्ताव स्वीकार कर पं० लेखराम द्वारा अधूरे लिखे गये जीवनचरित को पूरा करने का दायित्व पं० आत्माराम अमृतसरी को सौंपा। पं० अमृतसरी ने लेखराम द्वारा लिखी अधूरी पाण्डुलिपि तथा तद्विषयक संकलित सामग्री को आद्योपान्त देखकर उसे व्यवस्थित रूप दे दिया। अन्ततः २५ अक्तूबर १८९७ को मुन्शीराम जिज्ञासु (स्वामी श्रद्धानन्द) लिखित विशद भूमिका के साथ यह उर्दू जीवनचरित प्रकाशित हुआ ।
पं० लेखराम संगृहीत यह जीवनचरित अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। यह एक प्रकार से दयानन्द सरस्वती के सम्पर्क में आने वाले तथा उनके जीवन की घटनाओं से प्रत्यक्ष परिचय रखने वाले लोगों द्वारा कथित बयानों पर आधारित है। यदि एक ही घटना या स्थिति का वर्णन भिन्न भिन्न लोगों ने विभिन्न प्रकार से किया तो पं० लेखराम ने उन सभी लोगों के वक्तव्यों को एक स्थान पर संगृहीत कर लिया। शायद वे स्वतन्त्र रूप से कोई निष्कर्ष भी निकालते अथवा इन संकलित बयानों का कोई समन्वित रूप प्रस्तुत करते परन्तु यह कार्य उनकी असामयिक मृत्यु के कारण नहीं हो सका। एक अन्य बात ध्यातव्य है-पं० लेखराम ने भिन्न भिन्न स्थानों एवं नगरों में स्वामी जी के भिन्न भिन्न कालों में जाने के समग्र विवरण कालक्रमानुसार आगे पीछे न उपस्थित कर एक स्थान पर ही रख दिये हैं। इस प्रकार फर्रुखाबाद, काशी तथा मेरठ आदि स्थानों में उनके एकाधिक बार जाने के विवरण एक ही जगह आ गये हैं। इस सम्बन्ध में हम अपनी ओर से से कुछ न लिख कर स्वामी दयानन्द की जर्जीवनी के एक अन्य लेखक पं घासीराम (दयानन्द के जीवनचरित के यशस्वी लेखक पं० देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय के लिखे अपूर्ण जीवनचरित को पूरा करने वाले) के विचारों को यहां उद्धृत करने का लोभ संवरण नहीं कर सकते। पं० घासीराम लिखते हैं-” इस जीवनचरित में घटनाओं के वर्णनों का विश्लेषण, समीक्षण और उनकी समालोचना नहीं की गई, न घटनाओं को पूर्वापर सम्बन्ध की दृष्टि से एक क्रम में रखा गया है। केवल स्थान विशेष को घटनाओं के भिन्न भिन्न मनुष्यों के कथनों को एकत्र कर दिया गया है। इसका परिणाम यह हुआ है। कि एक ही घटना के कई प्रकार के वर्णन पाये जाते हैं, एक ही घटना का भिन्न भिन्न काल में होना पाया जाता है। पाठक चक्कर में पड़ जाते हैं कि किस वर्णन को ठीक मानें, कहीं कहीं तो यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि घटना का वास्तविक रूप क्या था ?” इसके अतिरिक्त पं० घासीराम के अनुसार पं० लेखराम का अनुसन्धान मुख्यतः पंजाब, संयुक्तप्रान्त और राजस्थान तक सीमित रहा। बम्बई और बंगाल प्रान्त में उनका भ्रमण और अनुसन्धान नगण्य ही रहा। उनका यह भी कथन है कि पं० लेखराम को अंग्रेजी जानने की सुविधा प्राप्त नहीं थी तथा वे बंगला और गुजराती से भी अपरिचित थे। इन न्यूनताओं के होते हुए भी पं० लेखराम रचित इस जीवनचरित का महत्त्व निर्विवाद है। पं० घासीराम के शब्दों में-” पण्डित जी ने पांच वर्षों से कम समय में इतना काम किया जितना दो मनुष्य भी नहीं कर सकते थे। वह बीसियों स्थानों पर गये और सहस्त्रों मनुष्यों से मिले और ऋषि जीवन सम्बन्धी घटनाओं को लिपिबद्ध किया। ऋषि का कोई भी जीवनचरित लेखक इसकी सहायता के बिना एक पग भी आंगे नहीं रख सकता ।”
पं० लेखराम के इस ग्रन्थ में स्वामी दयानन्द के जन्मस्थान तथा पिता के नाम आदि के बारे में जो उल्लेख आये हैं, आगे चलकर उनके बारे में कुछ निश्चयात्मक तथ्य सामने आ सके। उनका श्रेय स्वामी जी की जीवनी के अन्वेषण में पर्याप्त समय (१५ वर्ष) लगाने वाले एक बंगाली लेखक देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय को है जिन्होंने टंकारा को उनका जन्म स्थान तथा करसन जी लाल जी तिवारी को उनका पिता सिद्ध किया। सच तो यह है कि पं० लेखराम ने भी स्वामी जी के प्रारम्भिक जीवन की बातों को जानने के लिए गुजरात का भ्रमण किया था किन्तु वहां के पुरातनपन्थी, रूढ़िवादी लोगों ने स्वामी दयानन्द विषयक सही जानकारी इन्हें नहीं दी। इन लोगों को यह बताया गया था कि दयानन्द ने हिन्दू धर्म में सर्वमान्य मूर्तिपूजा, मृतक श्राद्ध तथा अवतारों के सिद्धान्तों का प्रबल खण्डन किया है। अतः दयानन्द को उनके ही प्रान्त में परम्परागत धर्म के विरोधी के रूप में जाना गया था। फलतः उनके जन्मस्थान का कोई भी निवासी अथवा, उनके कुल या वंश का कोई व्यक्ति इस मूर्तिभंजक (वास्तव में परम्परा भंजक क्योंकि स्वामी जी ने मूर्तिपूजा का तो विरोध किया किन्तु मूर्तियों को तोड़ना उन्हें अभीष्ट नहीं था) संन्यासी से अपनी समीपता या निकटता स्वीकार करने में अस्वस्ति अनुभव करता था। एक अन्य कारण यह भी सम्भव था कि पं० लेखराम की उर्दू बहुल भाषा तथा पंजाबी ढंग की वेशभूषा के कारण गुजरात के परम्परा प्रिय लोगों ने उन्हें हिन्दू ही न समझा और वे उन्हें दयानन्द विषयक जानकारी नहीं करा सके ।
तथापि यह तो स्वीकार करना ही होगा कि कालान्तर में स्वामी जी के जो भी जीवनचरित हिन्दी, उर्दू तथा अंग्रेजी में लिखे गये उनका आधार पं० लेखराम रचित यह उर्दू जीवनचरित ही रहा । लाला लाजपतराय लिखित स्वामी जी की उर्दू जीवनी (१८९८) राय साहब रामविलास शारदा कृत आर्य धर्मेन्द्र जीवन (१९०४) मुन्शी चिम्मनलाल रचित सरस्वतीन्द्र जीवन (१९०७) तथा बावा छज्जूसिंह लिखित लाइफ एण्ड टीचिंग्स आफ स्वामी दयानन्द (१९०३) जैसे जीवनचरितों का आधार पं० लेखराम जी का यही ग्रन्थ था ।
यह खेद का विषय था कि स्वामी दयानन्द जैसे युगपुरुष के बारे में प्रथम बार प्रामाणिक सामग्री जुटाने वाले पं० लेखराम की यह कालजयी कृति हिन्दी जानने वालों को लम्बे समय तक सुलभ नहीं हो सकी । आर्ष साहित्य-प्रचार ट्रस्ट के संस्थापक स्व० लाला दीपचन्द जी को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने श्री रघुनन्दनसिंह निर्मल से इसे हिन्दी में अनूदित कराया और १९७१ में आर्यसमाज नया बांस दिल्ली से प्रकाशित कराया। इसके बाद इसके एकाधिक संस्करण आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट से छपे । विशिष्ट ऐतिहासिक ग्रन्थों में भी मानव सुलभ भूलों का रह जाना स्वाभाविक है। जब मैंने इस ग्रन्थ को पुनः पुनः पढ़ा तो यह अनुभव हुआ कि अनुवादजन्य भूलों के अतिरिक्त व्यक्तियों एवं स्थानों के नाम भी यत्र तत्र त्रुटिपूर्ण आये हैं। पं० लेखराम ने स्वामी जी के जीवन की घटनाओं का यथाशक्य कालनिर्धारण किया था जो तत्तत्समय प्राप्त सूचनाओं पर आधारित था। कालान्तर में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में फारसी-अरबी के प्राध्यापक पं० महेशप्रसाद मौलवी, आलिम फातिल ने दयानन्द के विभिन्न स्थानों पर गमनागमन की प्रामाणिक तालिका बनाई और टंकारा (१८२४) से अजमेर (१८८३) तक के स्वामी जी के जीवन-चक्र को तिथि, मास तथा वर्ष के क्रम से निर्धारित किया। मैंने टिप्पणियों में मौलवी जी की इस तालिका को यत्र तत्र उद्धृत किया है।
कई वर्ष पूर्व मैंने आर्ष साहित्य-प्रचार ट्रस्ट के वर्तमान सुयोग्य एवं विद्वान् मन्त्री पं० धर्मपाल जी से निवेदन किया था कि वे मुझे पं० लेखराम रचित इस जीवनचरिंत की संशोधित तथा परिमार्जित करने की अनुज्ञा प्रदान करें। तथैव मैंने सावधानीपूर्वक इस विशालकाय ग्रन्थ में प्रत्यक्ष दिखाई पड़ने वाली अशुद्धियों को शुद्ध किया। व्यक्ति नामों तथा स्थानों के नामों को ठीक किया तथा तिथिक्रम में आपाततः दिखाई पड़ने वाली असंगतियों को दूर किया। यंत्र तत्र विशेष स्पष्टीकरण के लिए सैकड़ों पाद टिप्पणियां देना भी आवश्यक समझा गया। उर्दू लिपि की एक कठिनाई यह है कि इसमें संस्कृत के क्लिष्ट शब्दों को याथातथ्य उतार देना कठिन होता है। जहां इस प्रकार के अशुद्ध नाम दिखाई दिये उन्हें ठीक किया। ग्रन्थान्त में दो विशिष्ट परिशिष्ट दिये गये हैं। प्रथम में स्वामी जी के जीवन की घटनाओं को बतलाने वाले व्यक्तियों की स्थानक्रम से तालिका प्रस्तुत की गई है। एक अन्य परिशिष्ट में कथानायक के जीवन की घटनाओं तथा अन्य प्रसंगों को जिन समसामयिक पत्रों में उल्लिखित किया गया, उन्हें भी तिथिक्रम से दर्शाया गया है। आशा है युगपुरुष दयानन्द के इस आद्य जीवनचरित को पाठक तल्लीन होकर पढ़ेंगे जिससे कि उस महाप्राण व्यक्तित्व का समग्र एवं विराट् रूप उनके मानस चक्षुओं के समक्ष उपस्थित हो सके ।
(डॉ०) भवानीलाल भारतीय
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