श्री गुरुदत्त का यह हिन्दी उपन्यास इतिहास की एक लुका – छिपी कहानी पर से पर्दा उठाता है ।
प्रथम परिच्छेद
” कहां ? ”
“ अरी , वह देख न ! उन पुरुषों की भीड़ में एक युवती भी !
” कुमकुम ने देखा , वहां लगभग तीस वर्ष की एक युवती थी । हाथ में डफरी कुमकुम लिये नाचती – गाती पुरुषों की मण्डली में जा रही थी ।
” कोई वेश्या होगी ! ” कुमकुम ने कहा ।
कुमकुम अपनी सखी से एक वर्ष छोटी थी । सखी उजले रंग की थी और कुमकुम कुछ साँवलापन लिये थी । परन्तु नख – शिख में वह सखी से अधिक सुन्दर थी । सखी का नाम मुक्ता था , राजकुमारी मुक्ता ।
राजकुमारी ने कुमकुम से पूछ लिया , ” वेश्या ? वह क्या होती है ?
” कुमकुम ने आश्चर्य से कहा , ” तो राजकुमारी नहीं जानती कि वेश्या क्या होती है ? ”
” नहीं कुमकुम , मेरी अध्यापिका ने इस विषय में कुछ नहीं बताया । ”
इस समय नीचे राजपथ पर एक मण्डली जा रही थी , जिसमें कुछ युवक एक लड़की को , जिसने स्त्रियों के वस्त्र पहन रखे थे घेरे हुए नाच रहे थे ।
कुमकुम मे राजकुमारी की बात का उत्तर नहीं दिया और उस स्त्री की वेशभूषा में लड़के को देख हस पड़ी । उसने राजकुमारी की वेश्या संबंधी ज्ञान की वृद्धि नहीं की । राजकुमारी ने पूछ लिया , ” हसी क्यों हो ? ” स्त्री के वेश में यह पुरुष कितना कुरूप दिखाई दे रहा है ।
” इसमें कुरूपता क्या है ?
पेश स्त्रियों का बनाया है , परन्तु मूछ तो कटाई नहीं
” तो मुख पर मूछे कुरूपता का लक्षण होती हैं ?
” नहीं राजकुमारी , पुरुषों के नहीं , परन्तु एक स्त्री के मुख पर मूल अस्वाभाविक है और अस्वाभाविकता ही कुरूपता कहलाती है ।
तुम तो बहुत कुछ जानती हो ।
” यह इस कारण कि राजकुमारी की अध्यापिका अनपढ़ है । ”
” ओह ! ” राजकुमारी मुक्ता कुछ कहना चाहती थी , परन्तु इसी समय राजपथ पर एक अन्य स्वांग आता दिखाई पड़ा और राजकुमारी का ध्यान उस ओर चला गया ।
एक हाथी के बच्चे की पीठ पर लकड़ी का हौदा रखा था । उस पर चार वर्ष का एक बालक सिर पर काग़ज़ का मुकुट धारण किये और गले में टूटे – फूटे पुराने जूतों का हार पहने बैठा था । लोग उसे घेरे हुए ‘ महाराज की जय हो , भूरे महाराज की जय हो ‘ के समाघोष कर रहे थे । सभी लोगों के वस्त्र नीले – पीले और लाल रंगों से रंगे हुए थे ।
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