Itihas Mein Bhartiy Parampara
हे मनीषियो । आप लोग अपने प्रासन एक – दूसरे के समीप विछायो । वहाँ भी के पात्र रखे जाये और वहाँ मृतका दर्शन हो । वेद भगवान् सवविद्वान् मनुष्यों को यह सम्मति देते हैं कि वे परस्पर समीप बैठकर यज्ञ के निमित्त घृत के पात्र रखकर प्रयोग करें । ऐसा करने से उनको मूत के दर्शन होंगे । धूत से अभिप्राय उस सामग्री तथा साधन से है जिनसे यज्ञ हो सके और यज्ञ का अभिप्राय है लोक – कल्याण कार्य इस प्रकार इस वेद मन्त्र का अर्थ यह बनता है कि विद्वान् पुरुष परस्पर विचार मय कर , सबके हित में यत्न करें और उसके लिये उनके पास साधन उपलब्ध किये जायें । इसी भावना से इस पुस्तक को लिखने का प्रयास किया गया है । जो कुछ भी इस पुस्तक में वर्णित है वह उपलब्ध सामग्री से उत्पन्न विचार और परिणाम को विज्ञ पाठकों के सम्मुख रखने का यत्न है । स्कूल में इतिहास पढ़ते समय हमें अपनी पाठ्य पुस्तकों में यही पढ़ने को मिलता था कि भारतवर्ष का इतिहास नहीं मिलता । भारतवर्ष के पूर्वजों को इतिहास लिखना नहीं आता था । अतः पुराने शिलालेख , मुद्राएँ और विदेशी यात्रियों के लेखों से ही यहां के इतिहास का अनुमान लगाना पड़ता है । उस समय भी इस प्रकार के कथन हमें कानों में खटकते थे । आाज तो उस शैली पर इतिहास लिखने वालों का एक बहुत बड़ा परिवार हो गया है और अधिकांश इतिहास की खोज करने वाले , इस देश की भाषा और यहाँ के प्राचीन शास्त्रों से सर्वथा अनभिज्ञ होने पर भी , यहाँ का इतिहास लिखने लग जाते हैं । सर्वप्रथम महवि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने भारत की जनता का ध्यान इस घोर प्राकर्षित किया कि युरोपियन विद्वान् भारतीय शास्त्र के मर्म से अनभिज्ञ होने के कारण , हमारे विषय में अनर्गल बातें लिख रहे हैं । हमारा इतिहास , धर्म , हमादी मान्यताओं एवं परम्पराओं के विषय में वे भ्रान्ति फैला रहे है । स्वामीजी के संकेत मात्र से कई विद्वानों ने इतिहास पर भारतीय ढंग से प्रकाश डालने का यत्न भारम्भ किया । उनमें से एक श्री पं ० भगवत दयानन्द पुस्तक के संकलन में मुझे बहुत सहायता मिली है । दूसरे हैं पण्डित रघुनन्दन शर्मा महाविद्यालय के भूतपूर्व अनुसन्धानाध्यक्ष थे । इनके अनुसन्धान कार्य से प्रस्तुत साहित्य भूषण । इनकी पुस्तक ‘ वैदिक सम्पत्ति ‘ से भी मुझे प्रेरणा और सहायता मिली है । कई अन्य लेखक भी हैं जो इस ओर ध्यान कर रहे हैं । वे भी भारतीय इतिहास का संकलन भारतीय भाधारों पर कर रहे हैं । मेरा यह प्रयास न तो एक इतिहास की पुस्तक है , न ही यह इतिहास में खोज का परिणाम है । यह अन्य खोज करने वालों के प्रयासों से मेरी समझ में घाये परिणामों का संकलन मात्र है । उनमें से दो विद्वानों के नाम मैंने ऊपर दिये है । उनके प्रतिरिक्त रामायण और महाभारत ग्रन्थों से भी भरपूर सहायता ली गई है । महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती के ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका तथा सत्यार्थ प्रकाश से भी इसके प्रणयन में सहायता मिली है । उक्त ग्रन्थों से मैंने अपने निकाले हुए परिणाम इस पुस्तक में लिखे हैं । प्रत्य के धाकार एवं मूल्य का ध्यान रखकर बहुत कुछ संक्षेप में ही लिखना पड़ा है । इस पर भी इतिहास के विषय में भारतीय परम्पराओं का एक चित्र खींचने का यत्न किया है । यह चित्र कितना स्पष्ट है , वह इसको देखने वालों के ही चिन्तन का विषय है । इतिहास में भारतीय परम्पराएँ इस प्रकार कही जा सकती हैं ( १ ) इतिहास का प्रारम्भ जगत् रचना के प्रारम्भ से मानना चाहिये । ( २ ) जगत् रचना को ग्राज १,६७,१६,६१,६५४ ( एक अरब सत्तानवे करोड़ उन्नीस लाख , इकसठ हजार छह सौ चौवन ) सौर वर्ष हो चुके हैं । ( ३ ) प्राणि रचना को ११,६६,४०,००० ( ग्यारह करोड़ , छियासठ लाख , चालीस हजार ) सौर वर्ष हुए हैं । ( ४ ) मानवरचना को लगभग ३६,००,००० वर्ष ( ५ ) वेदों में मानव इतिहास नहीं है । ( ६ ) विकासवाद मान्य नहीं है । ( ७ ) पुराणादि ग्रन्थ मूलतः इतिहास के ग्रन्थ हैं । उनकी शैली और उनका प्रयोजन भिन्न है । ( ८ ) भारत के इतिहास में बाल्मीकि रामायण और महाभारत अमूल्य हायक ग्रन्थ है । इतिहास लिखने का प्रयोजन है पूर्व घटनाओं का स्मरण करा मनुष्य को मानसिक विकारों से बचाना मन के विकारों में धादि दृष्टि से आज तक किसी प्रकार का अन्तर नहीं घाया । अतः इतिहास अपने को दोहराता रहता है । ( ११ ) बारह करोड़ वर्ष का पूर्ण इतिहास तिथिक्रम से लिखने में कोई प्रयोजन नहीं माना गया । केवल युग प्रवर्तक घटनाओं का ही इतिहास लिखा और स्मरण किया जाता है । ( १२ ) इसी कारण ग्रन्थों में राज्य अथवा ऋऋषियों की वंशावलियाँ न देकर प्रख्यात मानवों को नामावलियाँ दी गई हैं । ( १३ ) इतिहास को केवल विद्वानों का विषय न रखकर जन – साधारण के उपयोग की वस्तु बनाने के लिये इसे पुराणों का रूप दिया गया है । इन्हीं और इस प्रकार की परम्पराओंों को स्पष्ट करने के लिये इस पुस्तक को लिखा गया है । यह आाशा की जाती है कि इससे लोक – कल्याण होगा । विद्वान् मनीषियों से आग्रह है कि वे पुस्तक को पढ़कर अपनी सम्मति , सुझाव अथवा इसमें प्रायी भूलों को लिखने की कृपा करें । अन्त में उन विद्वानों और ऋषियों तथा महर्षियों का अत्यन्त आभारी हूं , जिनके ग्रन्थों से मैंने अपनी इस पुस्तक में कुछ भी सहायता ली है । विशेष रूप से पण्डित भगवद्दत्तजी का मैं आभारी हूँ । उनके ‘ भारतवर्ष का बृहत् इतिहास ‘ से मैंने बहुत कुछ ग्रहण किया है ।
– गुरुदत्त
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