ईश्वर का प्रथम उपदेश यही क्यों ?
Ishwar Ka Pratham Updesh Yahi Kyo

250.00

AUTHOR: Acharya Agnivrat Naishthik (आचार्य अग्निव्रत नैष्ठिक) 
SUBJECT: Ishwar Ka Pratham Updesh Yahi Kyo ? | ईश्वर का प्रथम उपदेश यही क्यों ?
CATEGORY: Vedic Science
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2024
PAGES: 134
BINDING: Paper Back
WEIGHT: 180 GRM
Description

सम्पादकीय

संसार के अनेक सम्प्रदाय अपने-अपने ग्रन्थों को ईश्वरीय वाणी बताकर मानवमात्र को उनके अनुसार चलाने का यथासम्भव प्रयत्न करते हैं। वास्तव में मानव का धर्मग्रन्थ वही हो सकता है, जिसमें सम्पूर्ण सृष्टि का ज्ञान-विज्ञान हो, जिससे मनुष्य सहित सभी प्राणी सुखपूर्वक रह सकें और जिसके अतिरिक्त किसी और ज्ञान की आवश्यकता न रहे। ऐसा ज्ञान वही दे सकता है, जिसने हम सबको बनाया है, इस सृष्टि की रचना की है और जो इसका संचालक व प्रलयकर्ता भी है। क्या वेद के अतिरिक्त कोई अन्य ग्रन्थ इस कसौटी पर खरा उतरता है? नहीं।

वेद क्या है? पूज्य आचार्यश्री द्वारा प्रतिपादित वैदिक रश्मि सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड (सूक्ष्म कणों से लेकर विशाल तारों तक) वेद मन्त्रों की ऋचाओं से निर्मित है और यही मत हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों का रहा है। ये मन्त्र वाणी की पश्यन्ती अवस्था में सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में विद्यमान हैं। जब मानव सृष्टि का प्रारम्भ होता है, तब चार ऋषि (अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा) इन तरंगों को ब्रह्माण्ड से सीधे अपने मन में ग्रहण करते हैं। इसमें परमपिता परमात्मा की प्रेरणा अनिवार्य रूप से रहती है या ऐसे कहें कि परमात्मा इन चार ऋषियों के द्वारा मनुष्य को ज्ञान प्रदान करता है। इस क्रम में सर्वप्रथम जो ज्ञान तरंगरूप में अग्नि ऋषि को प्राप्त हुआ, वह है-

ओम् अग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् । होतारं रत्नधातमम् ॥ [ऋग्वेद 1.1.1]

यह मन्त्र सम्पूर्ण वेद अर्थात् सृष्टि विज्ञान, लोकव्यवहार और अध्यात्म विज्ञान की भूमिका है। इसमें ईश्वर ने प्रथम पीढ़ी के मनुष्यों के लिए उपदेश किया है कि सर्वप्रथम उन्हें क्या करना है, कैसा राजा या गुरु बनाना है और स्वयं को जानना आवश्यक क्यों है ?

एक वेद मन्त्र की कितनी विस्तृत व्याख्या हो सकती है, पाठक इस पुस्तक में देख सकते हैं। यद्यपि यह व्याख्या भी संक्षिप्त ही है, क्योंकि वेदों में अनन्त ज्ञान है। इसीलिए देवराज इन्द्र ने कहा है- अनन्ता वै वेदाः । इस पुस्तक में आपको एक ही वेदमन्त्र के तीन प्रकार के भाष्य (आधिदैविक, आधिभौतिक एवं आध्यात्मिक) पढ़ने को मिलेंगे। वेदभाष्य की जो शैली लुप्तप्राय हो गई थी, उसको आचार्य श्री ने पुनर्जीवित करने का प्रयास किया है।

यह पुस्तक ईश्वर का प्रथम उपदेश यही क्यों ? आचार्यश्री के प्रवचनों पर आधारित है, जिन्हें मेरी सहधर्मिणी श्रीमती मधुलिका आर्या ने संकलित किया है तथा भाषा को भी बहुत अधिक परिमार्जित किया है। इस पुस्तक के ईक्ष्यवाचन में भी उनका बहुत बड़ा योगदान है। इस पुस्तक में ‘अग्निमीळे पुरोहितं…’ मन्त्र का त्रिविध भाष्य किया गया है। विभिन्न सम्प्रदायों के ग्रन्थों के प्रथम-प्रथम वाक्यों की निष्पक्ष दृष्टि से समीक्षा करने के उपरान्त वेद के बारे में विदेशी विचारकों के मत भी उद्धृत किये हैं। इसके पश्चात् इस मन्त्र की विस्तृत व्याख्या की गयी है। पुस्तक ईश्वर का प्रथम उपदेश यही क्यों ? के अन्त में प्रबुद्ध श्रोताओं की अनेक शंकाओं का समाधान किया गया है। पाठकों की भी इसी प्रकार की कुछ शंकाएँ हो सकती हैं, इसलिए यह अध्याय भी अपरिहार्य रूप से पठनीय है।

पाठकों से विनम्र निवेदन है कि वे इस पुस्तक को सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर समाप्तिपर्यन्त पढ़ने का प्रयास करें। तदुपरान्त वे निष्पक्ष हृदय से विचार करें कि क्या उचित है। यदि उनका आत्मा इसमें कही गई बातों को स्वीकार करता है, तो ईश्वर के इस प्रथम उपदेश द्वारा अपने जीवन को अग्निरूप बनाने का प्रयास करें

विशाल आर्य

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