पुस्तक परिचय
इसमें सप्तांग योग की व्यावाहारिक शिक्षा दी गयी है। शरीर शुद्धि की क्रियाओं, जैसे, नेति, धौति, वस्ति, नौलि, कपालभाति और त्राटक से आरंभ कर आसन, मुद्रा, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान और समाधि के अभ्यासों का सरल भाषा में सचित्र वर्णन किया गया है।
महर्षि घेरण्ड के घटस्थ योग के नाम से प्रसिद्ध ये अभ्यास आत्माज्ञान प्राप्त करने के लिए शरीर को माध्यम बनाकर मानसिक और भावनात्मक स्तरों को नियंत्रित करते हुए आध्यात्मिक अनुभूति को जाग्रत करने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। यह पुस्तक प्रारंभिक से लेकर उच्च योगाभ्यासियों के लिए अत्यंत उपयोगी, ज्ञानवर्द्धक एवं संग्रहणीय है।
घेरण्ड संहिता व्यावहारिक योग पर लिखा गया एक साहित्य है , जिसके प्रणेता महर्षि घेरण्ड हैं । उनकी कृति से मालूम पड़ता है कि वे एक वैष्णव सन्त रहे होंगे , क्योंकि उनके मन्त्रों में विष्णु की चर्चा की गयी है । ‘ जलं विष्णुं थलं विष्णु – अर्थात् जल में विष्णु हैं , थल में विष्णु हैं । एक – दो स्थानों पर नारायण की चर्चा की गयी है । जिससे अनुमान लगाया जा सकता है कि उन्होंने वैष्णव सिद्धान्त को अपने जीवन में अपनाया था और साथ – ही – साथ एक सिद्ध हठयोगी भी थे । उन्होंने योग को जो स्वरूप दिया , उसमें शरीर से शुरू करके आत्म – तत्त्व तक की जानकारी दी गयी है । अभ्यासों की रूप – रेखा बतायी गयी है । घेरण्ड संहिता की प्राच्य प्रतियों से यह अनुमान लगाया जाता है कि ये सत्रहवीं शताब्दी के ग्रन्थ हैं । वैसे महर्षि घेरण्ड का जन्म कहाँ हुआ था या वे किस क्षेत्र में रहते थे , यह कोई नहीं जानता । घेरण्ड संहिता की उपलब्ध प्रतियों में पहली प्रति सन् 1804 की है ।
घेरण्ड संहिता में जिस योग की शिक्षा दी गयी है , उसे लोग ‘ सप्तांग योग ‘ के नाम से जानते हैं । योग में कोई ऐसा निश्चित नियम नहीं है कि योग के इतने पक्ष होने ही चाहिए । अन्य ग्रन्थों में अष्टांग योग की चर्चा की गयी है , लेकिन हठयोग के कुछ ग्रन्थों में योग के छ : अंगों का वर्णन किया गया है । ‘ हठ रत्नावली ‘ में , जिसके प्रणेता महायोगिन्द्र श्री निवास भट्ट थे , चतुरंग योग है । गोरखनाथ द्वारा लिखित ‘ गोरक्ष शतक ‘ में षडांग योग की चर्चा की गयी है । एक युग की आवश्यकता के अनुसार , समाज की आवश्यकता के अनुसार लोगों ने योग की कुछ पद्धतियों को प्रचलित किया ।
सम्भवतः यह कारण भी हो सकता है कि एक जमाने में धारणा थी कि योग का अभ्यास केवल साधु , त्यागी , विरक्त या महात्मा कर सकते हैं । ऐसी स्थिति में उन्हें योग के प्रारम्भिक यम और नियमों को सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं पड़ती होगी । इसलिए यम और नियम को बहुत स्थानों से हटाया गया है । उनका वर्णन नहीं किया गया है । लेकिन जैसे – जैसे युग परिवर्तित होता गया और जन – सामान्य योग के प्रति रुचि दर्शन में जोड़ दिया । लगा , बाद के विचारकों एवं मनीषियों ने यम और नियम को भी योग की परिभाषा घेरण्ड संहिता में सबसे पहले शरीर शुद्धि की क्रियाओं की चर्चा की गयी है , जिन्हें षट्कर्म कहा जाता है । इनमें प्रमुख हैं , नेति – नाक की सफाई , धौति – पेट के ऊपरी भाग और भोजन नली की सफाई , वस्ति – आँतों की सफाई , जिससे हमारे शारीरिक विकार दूर हो जाएँ , शारीरिक विकार उत्पन्न न हों , नौलि – पेट , गुर्दे इत्यादि का व्यायाम , कपालभाति – प्राणायाम का एक प्रकार , और त्राटक – मानसिक एकाग्रता की एक विधि ।
षट्कर्मों या हठयोग के ये छ : अंग माने जाते हैं । शरीर शुद्धि की की चर्चा की है । इन क्रियाओं को महर्षि घेरण्ड ने योग का पहला आयाम माना है । इसके बाद आसनों महर्षि घेरण्ड ने मुख्यतः ऐसे ही आसनों की चर्चा की है , जिनसे शरीर को दृढ़ता एवं स्थिरता प्राप्त होती है । यहाँ पर भी आसनों का उद्देश्य शरीर पर पूर्ण नियन्त्रण के पश्चात् ऐसी स्थिति को प्राप्त करना है , जिसमें शारीरिक क्लेश , या दर्द उत्पन्न न हो । तीसरे आयाम के अन्तर्गत वे मुद्राओं की चर्चा करते हैं ।
मुद्राएँ अनेक प्रकार की होती हैं । महर्षि घेरण्ड ने पचीस मुद्राओं का वर्णन किया है , जिनके द्वारा हमारे भीतर प्राणशक्ति के प्रवाह को नियन्त्रित किया जा सकता है । उनका कहना है कि प्राण हमारे शरीर के भीतर शक्ति और ताप उत्पन्न करते हैं । उच्च साधना में जब व्यक्ति लम्बे समय तक एक अवस्था में बैठता है , तो उसके शरीर से गर्मी निकलती है । शरीर का तापमान कम हो जाता है , क्योंकि हमारे भीतर प्राणशक्ति नियन्त्रित नहीं है ।
लेकिन मुद्राओं के अभ्यास द्वारा हम प्राणशक्ति या ऊर्जा को अपने शरीर में वापस खींच लेते हैं , उसे नष्ट नहीं होने देते । प्राण को शरीर के भीतर रोकने के लिए महर्षि घेरण्ड ने मुद्राओं का वर्णन किया है । मुद्राओं के बाद चौथे आयाम के रूप में उन्होंने इस उद्देश्य के साथ प्रत्याहार का वर्णन किया है कि जब शरीर शान्त और स्थिर हो जाए , प्राणों का व्यय न हो , वेअनियन्त्रित न रहें , हमारे नियन्त्रण में आ जायें , तब मन स्वतः अन्तर्मुखी हो जाएगा । पहले हम अपने शरीर को शुद्ध कर लेते हैं ।
शरीर के विकारों को हटा देते हैं । उसके बाद आसन में स्थिरता प्राप्त करते हैं । तत्पश्चात् प्राण को सन्तुलित एवं नियन्त्रित करते हैं , तो चौथे में मन स्वाभाविक रूप से अन्तर्मुखी हो जाता है । प्रत्याहार के बाद पाँचवें आयाम में उन्होंने प्राणायाम के अभ्यास को जोड़ा है । प्राणायाम के जितने अभ्यास घेरण्ड संहिता में बतलाए गये हैं , उनका सम्बन्ध मन्त्रों के साथ है कि यदि व्यक्ति प्राणायाम करे तो मन्त्रों के साथ ।
प्राणायाम के अभ्यास में हम श्वास – प्रश्वास को अन्दर – बाहर जाते हुए देखते हैं और उनकी लम्बाई को समान बनाते हैं । महर्षि घेरण्ड ने भी यही पद्धति अपनायी है , लेकिन गिनती के स्थान पर मन्त्रों का प्रयोग किया है ।
उनका कहना है कि प्रत्याहार की अवस्था में , जब मन अन्तर्मुखी और केन्द्रित हो रहा हो , उस समय सूक्ष्म अवस्था में प्राणी को जाग्रत करना सरल है । उस अवस्था में प्राणों की जाग्रति और मन को अन्तर्मुखी कर पायेंगे । बनाने के लिए परिश्रम नहीं करना पड़ता । प्रत्याहार के बाद स्वाभाविक रूप से सूक्ष्म स्तर के अनुभव , सूक्ष्म जगत् की अनुभूतियाँ होंगी और आप प्राण को जाग्रत मन्त्र के प्रयोग को जोड़कर उन्होंने प्राणायाम के अभ्यास को और शक्तिशाली बना दिया है , क्योंकि जब हम श्वास के साथ मन्त्र जपते हैं तो उसके स्पन्दन का प्रभाव पड़ता है , जिससे एकाग्रता का विस्तार होता और प्राण के क्षेत्र में शक्ति उत्पन्न होती है , जाग्रत होती है । जिस पर हमारा नियन्त्रण रहता है । वह शक्ति अनियन्त्रित नहीं रहती । इसके बाद छठे आयाम के अन्तर्गत आता है ध्यान ।
प्राण जाग्रत हो जाएँ , मन अन्तर्मुखी हो जाए , उसके बाद ध्यान अपने आप ही लगता है । उन्होंने ध्यान के तीन प्रकार बतलाए हैं – बहिरंग ध्यान , अन्तरंग ध्यान और एकचित्त ध्यान । बहिरंग ध्यान में जगत् और इन्द्रियों द्वारा उत्पन्न अनुभवों के प्रति सजगता , अन्तरंग ध्यान में सूक्ष्म मानसिक स्तरों में उत्पन्न अनुभवों की सजगता और एकचित्त ध्यान में आन्तरिक अनुभूति की जाग्रति होती है । सातवें आयाम में समाधि का वर्णन किया गया है । 15 इस प्रक्रिया या समूह को उन्होंने एक दूसरा नाम दिया है – ‘ घटस्थ योग ‘ ।
घटस्थ योग का मतलब हुआ , शरीर पर आधारित योग । घट का अर्थ होता है शरीर । यह शरीर घट है । घट का दूसरा अर्थ होता है घड़ा । शरीर को उन्होंने एक घड़े के रूप में देखा , जो पदार्थ से बनी हुई एक आकृति है , और परमेश्वर ने उसमें कुछ भर दिया है – इन्द्रिय कहिए , मन कहिए , बुद्धि कहिए , अहंकार कहिए – सब मिलाकर हमारा यह घड़ा बना है । अतः आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए योग की शुरुआत शरीर से होती है और शरीर के माध्यम से हम अपने मानसिक और भावनात्मक स्तरों को नियन्त्रित करके आध्यात्मिक अनुभूति को जाग्रत कर सकते हैं । यह इनकी मान्यता है ।
Nikki –
Knowlagebal book