द्रव्यगुण विज्ञान: दो खंड Dravyaguna Vijnana (Set of 2 Volumes)
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इस अभाव की पूर्ति बचासम्भव इस अन्य के द्वारा हुई और अल्पकाल में ही इसने अपना उचित स्थान बना लिया ।
छात्रों और अध्यापकों ने इसे अपनाया और धीरे धीरे यह सारे देश एवं विदेश में भी प्रचलित हो गया ।
बाद में जब केन्द्रीय भारतीय चिकित्सा परिषद् गठित हुई तब उसने भी इसका अनुमोदन किया किसी भी लेखक के लिये यह सौभाग्य का विषय है कि वह अपने अन्य की स्वर्णजयन्ती के समारोह में सम्मिलित हो ।
प्रारम्भ में इसके केवल दो भाग प्रकाशित हुए थे एक में मौलिक सिद्धान्त था और दूसरे में सभी द्रव्यों का विवरण बाद में अनेक अध्यापकों के परामर्श से जाङ्गम और पार्थिव द्रव्यों का विवरण पृथक् तृतीय भाग में कर दिया गया ।
अध्यापन और शोध के काम में मौलिक सिद्धान्तों का मन्थन होता रहा और आधुनिक विज्ञान के आलोक में नये – नये विचार उद्भूत होते रहे ।
समस्या यह भी कि पहले तो आयुर्वेद के ऋषि प्रणीत सिद्धान्तों को यथार्थतः हृदयङ्गम किया जाय और फिर उसकी व्याख्या ऐसी भाषा और शैली में की जाय जिससे आयुर्वेदतर वैज्ञानिकों के लिये भी बुद्धिगम्य हो सके ।
विगत पाँच दशकों में इस दिशा में पर्याप्त कार्य हुआ है और विषय की व्याख्या में अपेक्षाकृत अधिक प्रलता आई है ।
इस अवधि में अनेक विद्वानों ने अपने विचार व्यक्त किए और अनेक ग्रन्थ भी प्रकाशित हुए मैंने जो चिन्तन के आधार पर पाया उसे समय समय पर लेखों और व्याख्यानों के द्वारा प्रकाशित करता रहा , फिर भी यह क्रम निरन्तर चलता रहा । इस संस्करण में प्रयत्न किया गया है कि इस सम्बन्ध में आधुनिकतम विचार सम्मिलित किये जा सकें ।
यह भी प्रयत्न किया गया है कि ग्रन्थ को युगानुरूप बनाये रखा जाय तदनुसार इस ग्रन्थ में कई नये अध्याय जोड़े गये हैं ।
१ ९ ६३ में जब काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम प्रारम्भ हुआ तब कुछ विशेष जानकारी की अपेक्षा होने लगी ।
इसके लिये इसका चतुर्थ भाग प्रकाशित हुआ जिसमें वैदिक औदिमद द्रव्यों तथा द्रव्यगुण के इतिहास का विवरण है ।
द्रव्यों के विमर्श के सम्बन्ध में अनेक विचार समय – समय पर आते रहे । संदिग्धता की बात भी उठाई जाती रही ।
इसी सम्बन्ध में विस्तृत विवेचन के उद्देश्य से पञ्चम भाग प्रकाश में आया इस प्रकार तीन दशकों में पाँच भागों में द्रव्यगुणविज्ञान सम्पन्न हुआ ।
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