ध्यान योग प्रकाश:
Dhyana Yog Prakash

125.00

AUTHOR: Yogiraj Swami Lakshmanananda
SUBJECT: Meditation, Yog, Dhyana Yog Prakash
CATEGORY: Yoga
LANGUAGE: Hindi
EDITION: 2018
PAGES: 306
PACKING: Paper Back
WEIGHT: 290 GRMS

 

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Description

दो शब्द

१९ वीं सदी में सभ्य संसार ने आत्मा का बहिष्कार कर दिया था। बड़े बड़े विद्वान् यह मानने लग गये थे कि ज्ञान का स्रोत केवल इन्द्रियां ही हैं । सब ज्ञान इन्द्रियजन्य ही है। यहां तक कि विचार भी मस्तिष्क के कोष्ठों के व्यापारमात्र हैं। एक लेखक ने लिखा था कि जैसे वृक्ष से गोंद निकलता है, वैसे ही मस्तिष्क से विचारों का निकास होता है।

२० वीं सदी में एकदम नई लहर उठी। अमेरिका के प्रसिद्ध दार्शनिक ‘जेम्स’ ने लिखा कि ‘कोई नहीं कह सकता कि इन्द्रियों के अतिरिक्त हमें ज्ञान नहीं प्राप्त हो सकता। ‘मार्कोनी’ से किसी ने पूछा कि तुमने किन परीक्षणों से ‘बेतार को तार’ का पता लगाया है?

उसने कहा- “मैंने कोई परीक्षण नहीं किया, यह विचार स्वभावतः मेरे मन में उठे। मैं नहीं कह सकता कि इन विचारों का स्रोत क्या था” ? इसी प्रकार ‘आइन्स्टाइन’ से, जो संसार का वर्तमान सबसे बड़ा गणितज्ञ है, पूछा गया कि तुमने अपनी स्थापनाओं को सिद्ध करने के लिये गणित की किन क्रियाओं का उपयोग किया है ? उसने बताया कि ये विचार मेरे मन में आप ही उठे । कहां से आये ? मैं नहीं जानता’ ।

L. C. Beckett की इंगलैंड में अभी ही प्रकाशित हुई पुस्तक The world Breath में, जो भौतिकी के सर्वमान्य पण्डित Sir Arthur Eddiughtyas को समर्पित की गई है, लिखा है कि “योग में हिन्दू लोग सहस्रों वर्ष पहले योरोपियन लोगों से बाजी मार ले गये । और अबतक भी जितनी निर्मल बुद्धि हिन्दुओं का है, उतनी और किसी की नहीं” फिर वे मैत्रेयी उपनिषद् का प्रमाण देकर लिखते हैं कि ‘प्राणविद्या ही सब विद्याओं का मूल है।

प्राणा-द्वारा इन्द्रियों को वशीभूत करना ही बुद्धि को निर्मल बनाने मोर परिमार्जित करने का एकमात्र सर्वोत्तम साधन है। फिर योगसूत्र ३, ५, १६ का प्रमाण देकर वे लिखते हैं कि-‘मनुष्य की बुद्धि के विकास के सर्वोत्तम साधन पतञ्जलि मुनि ने बताये हैं’।

जिस योग की इतनी महिमा संसार भर में प्रसिद्ध है, उस योग की पहिली सीढ़ियों का वर्णन बड़ी सुन्दर रीति से इस प्रस्तुत पुस्तक में किया गया है।

“ध्यानयोग प्रकाश” लिखकर स्वर्गीय स्वामी लक्ष्मणानन्द जी ने श्राय्र्यसमाज का जो महान् उपकार किया है, उससे वह कभी उऋण नहीं हो सकता। पर खेद है कि आय्र्यसमाज ने अपने ऊपर किए गये उस महान् उपकार को अभी तक पहचाना नहीं है ।

इस पुस्तक की शिक्षा को बहिन आचार्या विद्यावती जी ने न केवल अपने ही जीवन में घटाया है, अपितु लोक के भी कल्याणार्थं अपने पूज्य गुरु की इच्छा के अनुसार छपाया है। अब इसका तीसरा संस्करण निकल रहा है। भगवान आशीर्वाद दें कि श्री आचार्या जी के इस सत्प्रयत्न से आर्यसमाज तथा आर्यजाति का उद्धार हो और आर्यलोग अपने खोए हुए कोष को पुनः प्राप्त करें।

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