लेखक का निवेदन
भारत को स्वतन्त्रता दिलाने में जहाँ वैधानिक आन्दोलन करनेवाले राजनीतिज्ञों का हाथ रहा है , वहाँ क्रान्तिकारी , सशस्त्र चेष्टाओं के द्वारा जननी जन्मभूमि के पराधीनता के पाशों को काटनेवाले वीरों , शहीदों तथा उग्र विचारधारावाले बलिदानी व्यक्तियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । १८५७ में , प्लासी के युद्ध के ठीक सौ वर्ष बाद भारत की जनता ने अंगड़ाई ली और अनेक क्रान्ति – वीरों के नेतृत्व में गुलामी के जुए को उतार फेंकने का प्रयास किया गया । भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को विदेशी इतिहासकारों ने सिपाही विद्रोह का नाम दिया जब कि वह सच्चे अर्थों में आज़ादी की लड़ाई थी । विनायक दामोदर सावरकर ने इंग्लैण्ड में रहते हुए १८५७ की हलचल का जो ओजस्वी इतिहास लिखा उसमें इस संघर्ष को स्वाधीनता की प्रथम चेष्टा कहा तथा स्वतन्त्रता के इस यज्ञ में आत्माहुति देनेवाले वीरों को मार्मिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित की ।उनके वे वाक्य बड़े प्रेरणास्पद थे जब उन्होंने लिखा कि यदि नाना साहब , तात्या टोपे , झाँसी की रानी , मौलवी अहमदशाह तथा जगदीशपुर के कुंवरसिंह जैसे बलिदानी किसी अन्य देश में होते तो घर – घर में उनकी पूजा होती और वे अपने देशवासियों द्वारा देवताओं की भाँति आदर और अर्चना के पात्र होते ।१८५७ के इस संग्राम को यदि सफलता नहीं मिली तो उसके कतिपय कारण थे जिनकी मीमांसा इतिहासकारों ने स्वतन्त्ररूप से की है ।
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