भारत के क्रन्तिकारी और शहीद
Bharat Ke Krantikari Aur Shahid

100.00

AUTHOR: Dr. Bhavanilal Bharatiya
CATEGORY: Biography
PUBLISHER: Hitkari Prakashan Samiti
LANGUAGE: Hindi
Subject: Bharat Ke Krantikari Aur Shahid
PAGES: 202
Best Seller: Aarsh Sahitya

 

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                                लेखक का निवेदन

भारत को स्वतन्त्रता दिलाने में जहाँ वैधानिक आन्दोलन करनेवाले राजनीतिज्ञों का हाथ रहा है , वहाँ क्रान्तिकारी , सशस्त्र चेष्टाओं के द्वारा जननी जन्मभूमि के पराधीनता के पाशों को काटनेवाले वीरों , शहीदों तथा उग्र विचारधारावाले बलिदानी व्यक्तियों की भी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है । १८५७ में , प्लासी के युद्ध के ठीक सौ वर्ष बाद भारत की जनता ने अंगड़ाई ली और अनेक क्रान्ति – वीरों के नेतृत्व में गुलामी के जुए को उतार फेंकने का प्रयास किया गया । भारत के इस प्रथम स्वाधीनता संग्राम को विदेशी इतिहासकारों ने सिपाही विद्रोह का नाम दिया जब कि वह सच्चे अर्थों में आज़ादी की लड़ाई थी । विनायक दामोदर सावरकर ने इंग्लैण्ड में रहते हुए १८५७ की हलचल का जो ओजस्वी इतिहास लिखा उसमें इस संघर्ष को स्वाधीनता की प्रथम चेष्टा कहा तथा स्वतन्त्रता के इस यज्ञ में आत्माहुति देनेवाले वीरों को मार्मिक श्रद्धाञ्जलि अर्पित की ।उनके वे वाक्य बड़े प्रेरणास्पद थे जब उन्होंने लिखा कि यदि नाना साहब , तात्या टोपे , झाँसी की रानी , मौलवी अहमदशाह तथा जगदीशपुर के कुंवरसिंह जैसे बलिदानी किसी अन्य देश में होते तो घर – घर में उनकी पूजा होती और वे अपने देशवासियों द्वारा देवताओं की भाँति आदर और अर्चना के पात्र होते ।१८५७ के इस संग्राम को यदि सफलता नहीं मिली तो उसके कतिपय कारण थे जिनकी मीमांसा इतिहासकारों ने स्वतन्त्ररूप से की है ।

1947 में भारत के स्वतन्त्र हो जाने के पश्चात् इस बात की निरन्तर दुहाई दी जाती रही और इतिहास की पुस्तकों में भी इसे अंकित किया जाने लगा कि देश को स्वाधीनता दिलाने का श्रेय किसी एक पार्टी तथा किसी एक व्यक्ति को है । ऐसे पूर्वाग्रही लोग यह भूल जाते हैं कि पराधीन देश तो अपनी खोई हुई स्वाधीनता को प्राप्त करने के लिए निरन्तर संघर्ष करते ही हैं । इस संघर्ष को करनेवाले समूहों और व्यक्तियों के योगदान का आकलन युक्तिसंगत , पूर्वाग्रह मुक्त तथा सन्तुलित ढंग से किया जाना चाहिए । किसी एक दल या व्यक्ति को वरीयता देना तथा अन्यों की अवहेलना या उपेक्षा करना न्याय्य नहीं है । वैधानिक आन्दोलनों की आधारभूमि उस समय तैयार की जा रही थी जब दयानन्द सरस्वती से समाज सुधार की प्रेरणा लेकर न्यायमूर्ति महादेव गोविन्द रानडे ने नैशनल काँग्रेस के समानान्तर अखिल भारतीय सामाजिक परिषद् ( All India Social Conference ) की स्थापना की और काँग्रेस के प्रत्येक वार्षिक अधिवेशन के पण्डाल में इस समाजसुधार सम्मेलन के जलसे होने लगे । आगे चलकर जब सामाजिक प्रश्नों को गौण मान लिया गया तो इस संस्था का महत्त्व समाप्त हो गया । भारत के क्रान्तिकारी और शहीद के कारण वैसी शक्ति , ऊर्जा तथा तेजस्विता के दर्शन न हुए हों किन्तु भारतीयों के न्यायोचित अधिकारों की प्रबल प्रस्तुति में सर्वश्री दादाभाई नौरोजी , सर फीरोज़शाह मेहता , मदनमोहन मालवीय , सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी जैसे नेताओं का योगदान कभी कम नहीं रहा । उधर लाला लाजपतराय , विपिनचन्द्र पाल तथा लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की त्रिपुटी ने आज़ादी के संघर्ष में तब ऊष्मा भरी थी

जब देश के सार्वजनिक पटल पर महात्मा गाँधी का आगमन भी नहीं हुआ था । गाँधी जी ने अपना राजनैतिक गुरु पं० गोपाल कृष्ण गोखले को माना था जो प्रत्यक्षतया न्यायमूर्ति रानडे को अपना पथप्रदर्शक स्वीकार करते थे और यह इतिहाससिद्ध तथ्य है कि रानडे की देश सेवा में उनकी स्वामी दयानन्द के भक्त और अनुयायी होने की भूमिका ही प्रधान थी । इस प्रकार गाँधीजी के दादा गुरु ऋषि दयानन्द ठहरते हैं । वैधानिक आन्दोलनों से भिन्न क्रान्तिकारी चेष्टाओं के इतिहास पर भी ध्यान दिया जाना आवश्यक है । विदेशी शासकों के निर्मम अत्याचारों तथा देश के निर्बाध शोषण का प्रतिकार करने के लिए । जिन लोगों में बदले की आग भड़क उठी , उसीने सशस्त्र क्रान्ति का रूप ले लिया ।क्रान्तिकारी कार्यों से देश को स्वतन्त्र कराने और शासन के प्रचण्ड दमन का उत्तर आतंकवादी कार्यवाहियों से देने के प्रयास भी वैधानिक आन्दोलनों जितने ही पुराने हैं । अनेक लेखकों ने सशस्त्र क्रान्ति के इस इतिहास को अभिव्यक्ति दी है । काँग्रेस के द्वारा चलाये जानेवाले असहयोग सत्याग्रह तथा सविनय अवज्ञा जैसे आन्दोलनों की महत्ता को स्वीकार करने के बाद भी क्रान्तिकारी उपायों के महत्त्व को समझनेवाले नेताओं की कमी नहीं थी ।

तिलक और लाजपतराय , सुभाष और जयप्रकाश नारायण आदि देशभक्त इसी कोटि में आते हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ में हमने ऐसे ही क्रान्तिकारियों तथा देश की आज़ादी के लिए आत्मबलिदान करनेवाले कुछ शहीदों की जीवनगाथाओं को संक्षिप्त रूप से निबद्ध किया है जिन्होंने मातृभूमि के लिए सर्वस्व न्यौछावर किया था । कारागार की यातनाओं को झेलने , कालापानी का आजीवन कारावास पाने तथा फाँसी के तख्तों पर झूलकर जीवन बलिदान करनेवालों की शौर्य गाथाएँ भारत के क्रान्तिकारी और शहीद यद्यपि भूरिशः लिखी गई हैं , प्रस्तुत ग्रन्थ को भी इसी दिशा में किया गया एक विनम्र प्रयास समझा जाना चाहिए । देश के लिए , आत्माहुति देनेवाले बलिदानियों की समग्र सूची बनाना सम्भव ही नहीं है इसलिए हमारे इस प्रयास को भी पूर्ण नहीं कहा जा सकता । १ ९ ४२ का भारत छोड़ो आन्दोलन स्वाधीनता यज्ञ की पूर्णाहुति था । इसमें जिन वीरों ने भाग लिया उनकी गाथाओं को पृथकशः लिखा जाना चाहिए । ऐसा लगता है कि बीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक के बीत जाने के पश्चात् क्रान्तिवीरों का धराधाम पर अवतरित होना ही बन्द हो गया था । इसके कारणों की भी मीमांसा की जानी चाहिए । तथापि स्वातन्त्र्य वीर , क्रान्तिधर्मियों की यह कथा पाठकों को सादर समर्पित है ।

-डॉ ० भवानीलाल भारतीय

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