पाणिनीयः अष्टाध्यायीसूत्रपाठः
Ashtadhyayi Sutra Path

30.00

AUTHOR: PT. BRAHMDATT JIJNASU
SUBJECT: Ashtadhyayi Sutra Path
PUBLISHER: RAM LAL KAPOOR TRUST
LANGUAGE: SANSKRIT
EDITION: 2019
PAGES: 94
COVER: PAPERBACK
OTHER DETAILS 8.5 INCH X 5.5 INCH
WEIGHT 42 GM
Description

प्राक्-कथन

अष्टाध्यायी क्यों पढ़ें ?

आर्य सनातन वैदिक धर्मियों का सम्पूर्ण धार्मिक साहित्य देववाणी संस्कृत है । हम भारतीयों के लिए वेद सर्वोपरि है। शाखा उपवेद – ब्राह्मण-आरण्यक – उपनिषद्-वेदाङ्ग- साहित्य- आयुर्वेद – विज्ञान-गणित- रामायण-महाभारत- गीता आदि ऋषि-मुनियों के बनाये सभी ग्रन्थ संस्कृत में ही हैं । भारतीय संस्कृति- सभ्यता-साहित्य और भारतीय परम्परा का सब कुछ इसी संस्कृत ( देवभाषा ) है । कहां तक कहें, हम भारतीयों का गौरव सर्वस्व का सब कुछ संस्कृत भाषा ही है।

‘ रक्षार्थं वेदानामध्येयं व्याकरणम् ‘ वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण पढ़ना चाहिये। काशी की आचार्य – शास्त्री – मध्यमा- प्रथमा परीक्षाओं के लगभग १३००० तेरह सहस्र छात्रों में भारत भर में प्रतिवर्ष २०-२५ छात्र ही वेद की परीक्षा में बैठते होंगे । २ – ३ छात्र वेदाचार्य परीक्षा उत्तीर्ण करते होंगे, जिसमें कोई वेद भी पूरा नहीं होता। इसमें याज्ञिक प्रक्रिया का भी ज्ञान अधूरा रहता है ।

१००० छात्र साहित्य में बैठते होंगे, शेष लगभग १२००० बारह सहस्र केवल व्याकरण की परीक्षा देते हैं। १७ विषयों के आचार्य, ६ वर्ष में प्रत्येक आचार्य अर्थात् १७ x ६ = १०२ वर्षों में अन्य विषयों के ज्ञाता ( वह भी अधूरे) बन सकते हैं, जो समयाभाव से होना असम्भव है । १२ वर्षों में केवल व्याकरण 7 ( वह भी अधूरा और पढ़ाने में असमर्थ ) भी कठिनाई से हो पाता है ।

इस सब का कारण आर्ष ग्रन्थों का सर्वथा परित्याग, विशेषकर पाणिनि मुनिकृत अष्टाध्यायी को सर्वथा तिलाञ्जलि देकर लघुकौमुदी – मध्यकौमुदी – सिद्धान्तकौमुदी आदि पाणिनि-क्रम के विरुद्ध बने प्रक्रियाग्रन्थों का पढ़ना है । जिनमें सूत्र और उनका ४-५ गुणा अर्थ विना समझे रटना ही पड़ता है, अन्य कोई मार्ग नहीं। इससे बुद्धि उस (प्रतिबद्ध) हो जाती है, सोचने-समझने की शक्ति मारी जाती है।

वर्तमानकाल में संस्कृत के छात्रों के लिए सूखे भोजन का भी यथेष्ट प्रबन्ध न होने के कारण, उधर घोर रट्टा लगाते-लगाते उनका शारीरिक, मानसिक और आत्मिक विकास रुक जाता है। इस सारी दयनीय दुरवस्था को दूर करने का एक ही उपाय है—

अब पुनः पाणिनीय अष्टाध्यायी की शरण लें

कौमुदी में अष्टाध्यायी के सूत्र होने पर भी अष्टाध्यायी के स्वाभाविक सरल सुबोध क्रम का नाश कर दिया जाता है। सूत्र के अर्थ समझने में तथा साधनिका में अष्टाध्यायी का स्वाभाविक क्रम नष्ट हो जाता है, जो अत्यन्त ही उपादेय और छात्र को तत्काल बोध कराने वाला होता है। यह क्रम ही वास्तविक अष्टाध्यायी समझनी चाहिये, क्रमभङ्ग अष्टाध्यायी कदापि नहीं ।

अष्टाध्यायी का यह स्वाभाविक क्रम बौद्धोच्छेदकाल तक बराबर चलता रहा । १२ वीं शताब्दी से पूर्व जितने भी व्याकरण ग्रन्थ रचे गये, वे सब पाणिनीय व्याकरणानुसार प्रकरणानुसारी ही रचे गये । शब्दसिद्धि की प्रक्रिया (जैसा कि कौमुदी, हेमचन्द्र तथा मुग्ध-बोधादि की है ) के अनुसार व्याकरण की रचना नहीं हुई। इससे यह बात प्रत्यक्ष है कि विक्रम की १२ वीं शताब्दी से पूर्व के सभी वैयाकरण अष्टाध्यायी के प्रकरणानुसार क्रम को ही व्याकरणाध्ययन में सुगम समझते रहे ।

इसीलिये शब्दसिद्धि के प्रक्रियानुसारी ग्रन्थ की रचना इस काल तक नहीं हुई । पाणिनीय अष्टाध्यायी को पाश्चात्त्य विद्वान् – “मानव मस्तिष्क की श्रेष्ठतम रचना वा आविष्कार ” मानते हैं । यदि वेद तक पहुंचना है, तो ४ वर्ष में व्याकरण, १ वर्ष में साहित्य,

२ वर्ष में अन्य वेदाङ्ग, २ वर्ष में उपाङ्ग, १ वर्ष में उपवेद तथा ६ वर्ष में ब्राह्मणसहित वेद १६ वर्ष में सम्पूर्ण वेद-शास्त्र का विद्वान् बन सकता है।  इसके लिए अष्टाध्यायी महाभाष्य ही परम साधन हैं ।

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