अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति
Ashtadhyayi Bhashya Prathamavriti (Set of 3 Voumes)

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AUTHOR: Pt. Brahmadutt Jigyasu (पं. ब्रह्मदत्त जिज्ञासु)
SUBJECT: अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति | Ashtadhyayi Bhashya Prathamavriti
CATEGORY: Sanskrit Grammer
PAGES:: 1962
LANGUAGE:  Sanskrit & Hindi
BINDING: Hardcover
VOLUMES: 3 Volumes
WEIGHT: 2515
Description

॥ ओ३म् ॥

भूमिका अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति का प्रारम्भ

प्रथमावृत्ति पढ़ाने का वास्तविक प्रारम्भ गण्डासिंह वाला (अमृतसर) में सन् १९२२ ई० में हुआ। जो १९२५ तक वहाँ रहा, उसके पश्चात् १९२८ तक काशी में, पीछे १९३१ तक अमृतसर (रामभवन) में, तत्पश्चात् काशी में १९३२ से ३६ तक रहा। १९३६ से १९४७ तक रावी तट लाहौर और १९५० से १९६४ तक (मोतीझील) काशी में चलता रहा और चल रहा है।

हम अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कराकर ही सदा से प्रथमावृत्ति पढ़ाते रहे। सन् १९५३ में पाणिनि महाविद्यालय में संस्कृत पठन-पाठन की श्रेणियां चलती रहीं। उसके पश्चात् अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करने वाले विद्यार्थी भी पढ़ते रहे, उधर पाणिनि महाविद्यालय में विना अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कराये श्रेणियां चल रही थीं। वे जब ३५-४० दिन में सरलतम विधि के पाठ समाप्त कर लेते थे तो उन्हें अष्टाध्यायी के मुख्य मुख्य प्रकरण पढ़ाये जाते थे और साथ में उनको मार्ग दिखा दिया जाता था कि वह अन्य प्रकरणों को भी यत्न से समझ सकेंगे।

जब सरलतम विधि के ये ३५-४० पाठ पढ़ कर समाप्त करने वालों की संख्या अधिक हुई तब प्रकरणों को सरल ढंग से पढ़ाने के विचार से सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर सरल ढंग से लिखना आवश्यक प्रतीत हुआ और मन में लिखने का पुनः नये सिरे से संस्कार जागृत हुआ। पठनार्थी बहुत संख्या में लिखते थे कि सरलतम विधि से आगे का पाठ्यक्रम भी लिख देवें, ऐसी प्रेरणा बराबर हो रही थी।

मेरे मन में यही उठता था कि सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर सरलतम ढंग से लिखा जाये तो ये आवश्यकतायें स्वयं पूरी हो जाती हैं, और उधर जब सोचता था कि यह काम (अष्टाध्यायी प्रथमावृत्ति का काम पूरा कैसे होगा तो मन निराश हो जाता था।

अवकाश न होने से और निरन्तर कार्यभार के अधिक बढ़ते रहने से अवसर ही न मिल पाता था, यदि कोई प्रथमावृत्ति सम्पूर्ण लिख देता तो मेरा मन शान्त हो जाता और मेरे में प्रबल भावना न उठती। वर्षों से अष्टाध्यायी कण्ठस्थ किये हुओं को पढ़ाते समय कापियों पर लिखा कर पढ़ाते थे बड़ी कठिनता सामने आती थी यह सब विचार मस्तिष्क में घूम ही रहे थे कि सरलतम विधि वालों की आगे की समस्या का प्रबल विचार भी सामने आने लगा तब प्रथमावृत्ति का लिखना अनिवार्य है यह मन में बैठ गया ॥

इस प्रकार अष्टाध्यायी के सूत्रों का पदच्छेद-विभक्ति-समास अनुवृत्ति- अर्थ-उदाहरण आदि जानने की आवश्यकता अधिक से अधिक पड़ने लगी, तब यह प्रश्न सामने आया कि प्रथमावृत्ति की रचना अनिवार्य है। काशिका से पदच्छेद-विभक्ति-समास-अनुवृत्ति-उदाहरणों की सिद्धि विदित होती नहीं थी, अर्थ भी सरल ढंग से समझने में कठिनाई थी, पढ़ाने वाले भी ढंग से पढ़ने वालों के सुहृद् बन कर, ज्ञान न होने से तथा विधि का पता न होने से ठीक से समझा नहीं पाते थे।

हमारे यहां तो सब समझ लेते थे और समझा लेते थे, पर हम कितनों को सम्हाल सकते थे, सबका काम कैसे चले यह समस्या बराबर खड़ी थी, पढ़ने वाले श्रद्धालुओं की मांग पूरी कैसे हो? पढ़ाने वाले श्रद्धा रखते हुये भी अजब ढंग से पढ़ाते थे, यह सब देखकर बड़ा दुःख होता था। पढ़ने वाला निराश हो जाता था। हमारे यहां जो भी कुछ दिन ठहर जाता था, वह तो इस कठिनाई से पार हो जाता था, कितने विद्यार्थियों को भला हम सहारा देते। पाणिनि विद्यालय की श्रेणियां चलती रहती थीं पर समस्या का ठीक हल नहीं बन पाता था।

वास्तव में तो सन् १९२५ के पश्चात् ही प्रथमावृत्ति लिखी जानी चाहिये थी, लिखी भी जा सकती थी, पर पठनार्थियों की कठिनाइयों का ठीक-ठीक अनुभव गत १०-१२ वर्षों में हुआ। स्वयं स्वाध्याय (Self Study) से पढ़ने वालों को अष्टाध्यायी से संस्कृत व्याकरण का व्यावहारिक (अनिवार्य) ज्ञान कैसे हो, इसका १०-१२ वर्ष तक ऐसे व्यक्तियों को पढ़ाते-पढ़ाते खूब अनुभव किया।

अब तो ऐसा लगता है कि यद्यपि उस समय (२५-३० वर्ष पहले) शक्ति तो बहुत थी, पर अनुभव जो मिला वह अपूर्व है, इसको देख के तो यही कहना पड़ रहा है कि इसमें भी प्रभु का ही हाथ था जो उस समय स्वयं लिखना आरम्भ न किया और न ही अपने योग्य शिष्यों द्वारा लिखवाना आरम्भ किया उनकी भी इच्छा लिखने की न हुई !!! यह सब इस समय रहस्यमय ही प्रतीत हो रहा है।

अब मेरा विचार बदल गया है प्रभु को यह काम मेरे द्वारा ही कराना था इसी से किसी अति प्रिय शिष्य की भी इच्छा प्रथमावृत्ति लिखने में न लगी और अन्त में ३५-४० वर्ष पश्चात् मुझे ही इसके लिखने में लगना पड़ा यद्यपि मेरी शक्ति-अवकाश और सब शिथिल हो गये थे।

मैंने सन् १९६० के अन्त में प्रथमावृत्ति लिखने का निश्चय किया मेरे द्वारा इसका प्रारूप निश्चय हुआ और लिखने का आरम्भ हुआ, मुझसे सारा ढंग समझ कर और आवश्यकता पड़ने पर पूछ-पूछ कर लिखा जाता था मैं यथेष्ट समय नहीं दे पाता था, पर सहायक की श्रद्धा-उत्साह एवं योग्यता से दिसम्बर सन् १९६३ तक सवा ५ अध्याय तक प्रथमावृत्ति (रफ) लिखी गई। हर वर्ष साढ़े नौ ९ ॥ मास काम होता रहा, वर्ष में २ ॥ मास अवकाश रखा गया ॥

विशेष घटना

अन्त में १५ दिसम्बर सन् १९६३ को मैं जम्मू में था, जब कि एक विशेष घटना घटी, रात्रि को लगभग ११ बजे के पश्चात् हृदय पर विशेष कष्ट हुआ, (जो पहले कभी नहीं हुआ था) तो प्रभु की कृपा एवं वहां के सज्जनों की विशेष सेवा से यह सङ्कट टल गया, प्रातः यही निश्चय मन में किया कि प्रभु को तुमसे कुछ काम लेना इष्ट है, इसीलिये तुम बच गये हो।

बस वहां से कुछ दिन अमृतसर चिकित्सा के पश्चात् काशी आने पर यही निश्चय किया कि ‘प्रथमावृत्ति का काम पूरा किया जावे और इसे छापने का ढङ्ग बनाया जावे, बनाने से ही ढङ्ग बनेगा’ नहीं तो इतना बड़ा काम कैसे पूरा होगा। तब स्वास्थ्य पूरा ठीक न होने पर भी लग गया, और कुछ मास में रफ को सुना गया, पढ़ा गया, संशोधन किया गया, एवं पुनः शुद्ध प्रेस कापी लिखवाई गई, साथ-साथ में आगे का संशोधन भी चलता रहा, अन्त में अप्रैल १९६४ के अन्त वा मई के प्रारम्भ में प्रेस का निश्चय हुआ।

यहां हम प्रसङ्गतः यह बात और अधिक व्यक्त करते हैं कि प्रथमावृत्ति के बनाने एवं छापने की आवश्यकता का अनुभव तो हमें प्रारम्भ से ही बराबर रहा पर चाहते हुये भी यह काम पूरा न हो सका, और इसके बनाने की तीव्र भावना कैसे जागृत हुई यह लिख देना भी कदाचित् अनुचित न होगा, इसलिये इस विषय में कुछ और स्पष्ट रूप से लिखते हैं –

अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति की भावना अधिक तीव्र कैसे हुई

हम अष्टाध्यायी कण्ठस्थ किये छात्रों को पढ़ाते थे तो उनको प्रारम्भ से ही सिद्धि पूरी पढ़ाते थे, हमारी यही प्रक्रिया रही सिद्धि में आगे-पीछे के जो सूत्र लगते थे उनका हमने यह क्रम रखा था कि आगे के लगने वाले सूत्रों को हम संक्षेप से अर्थ-उदाहरण बोल देते थे इतनी बात पर विशेष ध्यान देते थे कि उस आगे लगने वाले सूत्र ने हमारे प्रकृत (प्रारम्भ के) उदाहरण में क्या काम कर दिया। हम इतनी बात पर ही सन्तुष्ट हो जाते थे जब छात्र उलट कर बता दे, कि इस उदाहरण में इस सूत्र ने यह काम किया।

आगे लगने वाले सूत्र का अर्थ छात्र सुन तो लेता था, पर हम उस पर यह भार नहीं डालते थे कि वह उस आगे लगने वाले सूत्र के सम्बन्ध में बतावे, छात्र से पूछते भी नहीं थे, कि वह हमारे बताये उस सूत्र को हमें सुनावे।

छात्र इतना तो कहता था कि उस सूत्र ने यह काम किया। अब जब १९५३ में प्रौढ श्रेणियों के पाठ चले तो हम पूर्ववत् आगे लगने वाले सूत्र का अर्थादि बोलते तो थे ही छात्र इसमें से जितना ग्रहण करना चाहे कर ले सब पर हम बल न देते थे, पर बुद्धिमान्, तीव्र भावना वाले, संस्कृत में निष्ठावान् प्रौढ पठनार्थी जब आगे लगने वाले सूत्र को अधिक प्रौढता से समझने का यत्न करने लगे तो हम उन्हें अच्छी प्रकार बताकर सन्तुष्ट कर देते थे।

किन्तु जब हमें यह ध्यान आया कि प्रौढ पठनार्थियों को जो आगे लगने वाले सूत्रों को भली प्रकार समझ एवं ग्रहण कर सकते हैं उन्हें तो आगे लगने वाले सूत्रों को भी समझा देना ठीक है हम उन्हें क्यों निराश करें, पर उन्हें अन्य अध्यापक कैसे बतायेगा तब मस्तिष्क में यह बात तीव्रता से बैठ गई कि अष्टाध्यायी की प्रथमावृत्ति तैयार हो तो बुद्धिमान् पठनार्थी स्वयं ही विना किसी दूसरे की सहायता के आगे लगने वाले सूत्र को भी समझ लेगा। यह बात काशिका से हल नहीं हो सकती।

इसके लिये आगे के सूत्रों की व्याख्या का भी पदच्छेदादि ढंग से बनाया जाना आवश्यक है, तब प्रथमावृत्ति के छापने की भावना प्रबलता से उत्पन्न हुई। इसीलिये इस सारी प्रथमावृत्ति में प्रौढ पठनार्थियों की समस्या पदे-पदे हमारे सामने रही या हमें सामने रखनी पड़ी। कई बातें हमने इनको विचार में रखकर की हैं। साधारण संस्कृत के अध्यापक इस बात को समझ नहीं सकते।

वास्तविक व्याकरण प्रथमावृत्ति ही है

हम तो व्याकरण के तीन भाग करते हैं। प्रथम तृतीय भाग मूलाष्टाध्यायी कण्ठस्थ करना है। दूसरा तृतीय भाग प्रथमावृत्ति है, अर्थात् पदच्छेद-विभक्ति- समास-अनुवृत्ति-अर्थ-उदाहरण-सिद्धि। तृतीय, एक तिहाई भाग है, द्वितीया- वृत्ति शंका-समाधान-वार्त्तिक-कारिका-परिभाषा तथा महाभाष्य सम्पूर्ण। इसमें प्रथमावृत्ति ही मुख्य व्याकरण समझना चाहिये। प्रथमावृत्ति तक व्याकरण तो प्रत्येक भारतवासी को आना चाहिये। तभी संस्कृत का वास्तविक प्रचार हो सकता है। प्रथमावृत्ति तक व्याकरण तो हाई स्कूलों में भी चल सकता है, चाहे वह लड़कों का हो या लड़‌कियों का।

यह बात सुनी सुनाई नहीं कह रहे हैं अपितु स्वानुभूत कह रहे हैं, जब ऐसी स्थिति आवेगी और वह अवश्य आवेगी, जब भारत में यह समझा जायेगा कि जिसने संस्कृत नहीं पढ़ी, वह भारतीय ही नहीं है, तब लोग अनिवार्यता से संस्कृत पढ़ने लगेंगे। यह अवस्था अष्टाध्यायी पद्धति से ही हो सकती है। इसी परिणाम पर सब पहुँचेंगे ॥ अष्टाध्यायी पद्धति की विशेषता हम पृथक् दर्शायेंगे।

जब भारत में यह नियम हो जायेगा कि सबको संस्कृत अनिवार्यतया पढ़नी ही होगी, तब प्रश्न उठेगा कि यह कैसे हो। हमारा अपने आचार्यों के लेख पर तथा अनुभव द्वारा यह मत है कि ” कम से कम व्याकरण और व्यावहारिक वैद्यक प्रत्येक भारतीय पुरुष वा महिला को पढ़नी चाहिये। गणित का भी व्यावहारिक ज्ञान अवश्य रहना चाहिये”।

महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के तृतीय समुल्लास में पठन-पाठन विधि के अन्तर्गत लिखा है- “जैसे पुरुषों को व्याकरण धर्म और अपने व्यवहार की विद्या न्यून से न्यून अवश्य पढ़नी चाहिये वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण-धर्म-वैद्यक-गणित-शिल्प विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये, क्योंकि इनके सीखे विना सत्यासत्य का निर्णय, पति आदि से अनुकूल वर्त्तमान, यथायोग्य सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, वर्धन और सुशिक्षा करना, घर के सब कार्यों को जैसे चाहिये करना-कराना, वैसे वैद्यक विद्या से औषधवत् अन्न पान बनाना और बनवाना नहीं कर सकतीं, जिससे घर में रोग कभी न आवे और सब लोग आनन्दित रहें ॥

इसमें कम से कम व्याकरण तो सब को ही पढ़ना चाहिये। वैसे तो अधिकार वेद तक का दिया, पर कम से कम व्याकरण प्रत्येक (भारतीय वा व्यक्ति) को पढ़ना, अनिवार्य बताना तो ठीक ही है। जो इतना भी न पढ़ सके वह शूद्र सेवा कार्य किया करे। सारभूत बात यह निकली कि व्याकरण तो प्रत्येक को पढ़ना है। इसलिए हम कहते हैं कि व्याकरण प्रथमावृत्ति को प्रत्येक स्त्री पुरुष को पढ़नी चाहिये।

इतना मात्र पढ़ लेने से व्याकरण पढ़ना हो जाता है। विशेष के लिये चाहे कोई सारा जीवन लगा दे। प्रथमावृत्ति पढ़ लेने से व्याकरण का पर्याप्त बोध हो जाता है। जो अधिक चाहे वह द्वितीयावृत्ति वार्त्तिक परिभाषादि तथा महाभाष्य को पढ़ ले तो और अच्छा है। नहीं तो व्याकरण अध्ययन प्रथमावृत्ति तक है, यह हमारा कहना है ॥

यह बात विदित न रहने से लोगों ने व्याकरण सर्वथा छोड़ दिया, और काव्यादि पढ़कर ही विद्वान् समझे जाने लगे। व्याकरण (प्रथमावृत्ति) के विना काव्यादि का भी यथावत् ज्ञान नहीं होता, इसीलिए अनेक साहित्याचार्य आदि व्याकरण की अपनी कमी समझकर इसको पूरा करते हैं जो अच्छी बात है। व्याकरण (प्रथमावृत्ति) का ज्ञान सब के लिए अनिवार्य है। यह बात
कभी नहीं भूलना चाहिए। व्याकरण प्रथमावृत्ति ही है यह न भूलना चाहिये। यही हमारा कहना है। धातुपाठ उणादि-गणपाठ आदि भी इसी में आ जाते हैं ।॥

हमने देखा कि सरलतम विधि के ४० पाठ पढ़नेवालों ने हमसे विना पूछे ही ४-५ मास में अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करके सुना दी। हम चकित रहे कि इतना कार्य उन्होंने कैसे किया। उसके पश्चात् उन्होंने प्रथमावृत्ति पढ़ ली। कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टाध्यायी की सरलतम पद्धति से समझकर पढ़ने वाले विना अष्टाध्यायी कण्ठस्थ किये पठनार्थी भी, स्वयं अन्तःप्रेरणा से अष्टाध्यायी कण्ठस्थ करने लग जाते हैं।

उसमें उनको आनन्द आने लगता है और पदे-पदे वे यह अनुभव करने लगते हैं कि अष्टाध्यायी कण्ठस्थ कर लेने से हम व्याकरण के अद्भुत विद्वान् बन सकते हैं। शंका समाधान की बातें समझने में भी उनकी गति फिर उत्तम रीति से चल पड़ती है। इस प्रकार प्रथमावृत्ति का ज्ञान हो जाने पर पठनार्थी अपने आप को बहुत कुछ समर्थ समझने लग जाता है।

अष्टाध्यायी भाष्य प्रथमावृत्ति में क्या है ?

पदच्छेद-विभक्ति-समास-अनुवृत्ति-अर्थ-उदाहरण-भाषार्थ ये हैं मुख्य विषय जो हमने लिखे हैं। इनके विषय में पाठकों को हम कुछ विस्तार से बताते हैं-

(१) पदच्छेद-सूत्र के पदों को पृथक् करके बताना।

(२) विभक्ति वचन-किस विभक्ति का कौन सा वचन है यह दर्शाना। किस शब्द के समान इसके रूप चलेंगे यह बताना।

(३) समास जो पद समस्त है, उसका विग्रह दिखाकर, अन्त में समास कौन सा है यह बताना। हमने यद्यपि स्पष्ट बता दिया है कि विग्रह दर्शाने में कहीं-कहीं कठिनाई होगी सो दस-पांच सूत्रों से आगे वह कठिनाई नहीं रहेगी। हमारा विश्वास है कि सूत्रों का पदच्छेद और विभक्ति जान लेने पर विद्यार्थी को अर्थ का आभास होने लगता है ॥

(४) अनुवृत्ति हमने सर्वत्र अनुवृत्ति दिखाने का विशेष यत्न किया है, यहां तक किया है कि प्रत्ययः, परश्च (३.१.१,२) जैसी दूर तक व्यापक अनुवृत्तियों को भी हमने प्रत्येक सूत्र में दिखाया है। हमारा दृढ़ निश्चय है कि अनुवृत्ति दिखा देने से सूत्र का अर्थ ठीक-ठीक समझ में आ जाता है। इसमें कहीं-कहीं पाठकों को कठिनाई आवे तो पूर्वापर विचार करने से सब समझ में आ जाता है।

यद्यपि हम प्रत्ययः, परश्च (३.१.१,२) जैसे व्यापक अधिकारों को एक जगह आरम्भ में लिख कर आगे न भी लिखते तो भी काम चल जाता, पर साधारण बुद्धि वालों को ध्यान में रखकर हमने अनुवृत्ति सब सूत्रों में निबाही है। यह सोचकर कि कागज वाले कागज बनावेंगे, छापने वाले छापेंगे, पुस्तक का दाम कुछ अधिक भले ही हो जायेगा पर अनुवृत्ति स्पष्ट कर देने से परम लाभ होगा। शीशे के समान सब साफ विदित हो जायेगा। वृन्दावन वाली मूल अष्टाध्यायी से विषय पूरा स्पष्ट नहीं होता। हां! ऐसा विचार है कि पूरी प्रथमावृत्ति छप जाने पर संशोधन करके नई पुस्तक अनुवृत्ति की छापी जावे। प्रथमावृत्ति वाले को उसकी अलग आवश्यकता नहीं पड़ेगी यह विश्वास है।

(५) अर्थ हमने अनुवृत्ति के आधार पर संस्कृत में लिखा है। भाषार्थ में भी [ ] बड़े कोष्ठक में सूत्रों के सब पदों को दर्शा कर ही अर्थ किया है जिससे भाषार्थ बहुत स्पष्ट हो जाता है। केवल अनुवृत्ति वाले पदों को कोष्ठ में नहीं दिखाया है।

(६) उदाहरण संस्कृत में इसलिये दर्शाना पड़ा है कि हिन्दी न जानने वाले प्रान्तों में भी उदाहरण संस्कृत भाग में दर्शा कर ही पूरा होता है, अहिन्दी प्रान्त वाले हिन्दी न भी देखें तो भी उन्हें बोध हो जायेगा।

उदाहरणों के अर्थ

इस प्रथामावृत्ति में हमने यथासम्भव सब उदाहरणों के अर्थ लिखने का साहस किया है। यदि हम संस्कृत के उदाहरणों के आगे उनके अर्थ भी हिन्दी में दिखा देते तो भी काम चल सकता था, दुबारा भाषार्थ में उदाहरण दिखाकर अर्थ न लिखना पड़ता, पर इसे ठीक न समझकर भाषार्थ में अर्थ दिखाने के लिये उदाहरण दुबारा दिखाना पड़ा है। प्रौढ विद्यार्थियों की सुगमता के लिये ही ऐसा करना पड़ा।

जहाँ तक हमसे हो सका हमने अर्थ दिखाने का प्रयास किया है। आगे इस विषय में न्यूनाधिकता का अवकाश भी रखा है। भाषार्थ के अन्त में किसी आवश्यक विशेष बात की व्याख्या वा स्पष्टीकरण भी कर दिया है जो संस्कृत भाग में नहीं। वह भी इसी आशा पर किया है कि हिन्दी हमारी राजभाषा हो गई है, यह तो सबको जाननी ही होगी, जबकि रूस जैसे विदेशों में हिन्दी के ज्ञान के लिये प्रयास होने लगा है ॥

– ब्रह्मदत्त जिज्ञासु
आचार्य पाणिनि महाविद्यालय
मोतीझील, वाराणसी

 

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