आचार्य चाणक्य कहते हैं– ‘ विनयस्य मूलं वृद्धोपसेवा ’ अर्थात् विनयप्राप्ति वृद्धों की सेवा से होती है । ‘ विनय ‘ का अर्थ ‘ विनम्रता ‘ ही नहीं अपितु वृद्धजनों की संगति से विकसित होने वाले सदाचार के नियम ‘ भी हैं । इन्हीं सदाचार के नियमों की आर्यों को शिक्षा देने के लिए ही नहीं , बल्कि सदाचार के नियमों को आर्यों के जीवन का अंग बनाने के उद्देश्य से महर्षि दयानन्द ने ‘ आर्याभिविनय ‘ का प्रणयन किया । ‘ आर्याभिविनय ‘ ईश्वरभक्ति का ही ग्रन्थ नहीं अपितु सच्चे कर्मयोग का भी उद्बोधक है । इस के अध्ययन से पाठक ईश्वर के सच्चे स्वरूप का ज्ञान पाकर , उसमें दृढ़ निश्चय रखते हुए अपने आचरण को तदनुकूल बनाने की चेष्टा करेंगे ऐसा महर्षि को भी अभिप्रेत है ।
आर्याभिविनय: Aryabhivinay
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